Bappa Rawal Biography In Hindi - बप्पा रावल की जीवनी

Bappa Rawal Biography In Hindi | बप्पा रावल की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे आर्टिकल में आपका स्वागत है आज हम आपको Maharana bappa rawal biography In Hindi की कहानी बताने वाले है। एक वीर और शक्तिशाली राजा बप्पा रावल की जीवनी की जानकारी से हम आपको परिचित करवाएंगे। 

आज हम bappa rawal ki talwar ka weight , bappa rawal successor , bappa rawal height और bappa rawal empire, बप्पा रावल का इतिहास बताइए की सम्पूर्ण जानकारी बताएँगे। बप्पा रावल का जन्म ka nam ‘कालभोज’ था , जन्म 713-14 ई को हुआ ऐसा माना जाता है उनका दूसरा नाम जब उनका जन्म हुआ था उस वक्त पे मान मोरी जो की मौर्य शासक के राजा थे उनका चित्तौड़ राज्य पर शासन था। जब बप्पा रावल युवा अवस्था के हुए तब 20 साल की आयु में उन्हों ने मौर्य शासक मान मोरी राजा को युद्ध में हराकर के चित्तौड़ गढ़ किले पर अपना शासन स्थापित कर दिया था .

ऐसा कहा जाता है की बाप्पा रावल [गोहिल]  गुहिलादित्य गुहिल वंश के  के संस्थापक थे। गोहिल वंश को शासन में उदभव करने वाले महाराजा बप्पा रावल है। परम पूज्य हारीत ऋषि के जरिये बाप्पा को देवाधी देव महादेव के दर्शन का साक्षात कार हुआ था। pspa रावल एक उम्दा राजा के नाम से भारतीय इतिहास में उभर आये है। आज हम बप्पा रावल जीवनी लेख के जरिये bappa rawal story in hindi की जानकारी से आपको ज्ञात कराने वाले है। 

Bappa Rawal Biography In Hindi –

Bappa rawal history in hindi में आपको बतादे की प्राचीन भारत में 713-14 ई में जन्मे राजकुमार काल भोज ने मेवाड़ राज्य के राजा मान मोरी को युद्ध में पराजित करके गुहिल वंश को शासन वंश के रूप में स्थापित करने वाले महाराजा था। bappa rawal in hindi  में जानकारी बहुत काम पाई जाती है लेकिन यह राजा वीर और महान था। बाप्पा रावल ने अपने शासन काल में भगवन शिव का [आदी वराह] मन्दिर 735 ई में बनवाया था। उस समय पर हज्जात ने बाप्पा रावल राजपूताने राज्य पर अपना सैन्य भेजा था।

लेकिन बप्पा रावल की और से हज्जात के सैन्य को हज्जात के राज्य में ही पराजित कर दिया था। बाप्पा रावल को ईडर जो गुजरात का एक गांव है उसमे उनका जन्म भी बताया जाता है और बाप्पा रावल का मूल गांव भी ईडर है, ऐसा कहा जाता है। Bappa rawal wife name in hindi बताये तो उन्हें लगभग 100 पत्नियाँ थीं उसमे bappa rawal wife 35  मुस्लिम शासक राजाओ की राज कुमारिया थीं।  बाप्पा रावल का इतना भय था की मुस्लिम शासको ने अपनी बेटिया उनके भय से उन्हें ब्याह करवाई थी।

भगवन  एकलिंग जी का बहहुत ही बड़ा मन्दिर चित्तोड़ राज्य के उदयपुर नगर के उत्तर की और कैलाशपुरी जगह पर उस्थित भगवन का यह मन्दिर की बनावट 734 ई की साल में बप्पा रावल द्रारा कराई गई थी। उसके पास में ही हारीत ऋषि का एक आश्रम भी स्थापित है |

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बप्पा रावल की उपाधियां – Bappa rawal

जब भारत देश के नन्हे नन्हे  राज्यों पर अरब देश के राजाओ ध्वारा आक्रमण करवाए जाते थे ऐसा कहा जाता है की उसके आक्रमणकारियों से पूरा भारत त्राहि पुकार चूका था। उनके कई पराक्रम बहु प्रचलित है। उस वक्त 738 ई में  शासक राजा वि`क्रमादित्य द्वितीय और नागभट्ट प्रथम की मिली हुई सेना ने सिंधु के मुहम्मद बिन कासिम को बहुत बुरी तरह हराया था।

बाप्पा रावल ने सलीम जाप अफगानिस्तान के गजनी के शासक को हरा दिया था। बाप्पा रावल  एव बापा रावल शब्द व्यक्तिगत शब्द का नाम नहीं है लेकिन जिस तरह वर्त्तमान समय में महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के नाम को बापू के नाम से जाना जाता है ऐसे ही मेवाड़ राज्य के  नृपविशेष और सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का दूसारा नाम है बाप्पा रावल। लेकिन history of rawal caste देखे तो उसके नाम से ही जुडी थी। 

सिसौदिया वंशी राजा कालभोज के देशरक्षण और प्रजासरंक्षण के कार्यो

से प्रभावित हो के ही प्रजा ने राजा को बापा नाम की पदवी से सन्मानित किया था।

महाराणा कुंभा के वक्त में रचना हुई।

एकलिंग महात्म्य के प्राचीन ग्रंथमें राजा काल भोज का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. बताया गया है।

एक दूसरे प्राचीन ग्रन्थ में उस समय को बापा रावल का राज्यत्याग का वक्त भी बताया गया है।

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बप्पा रावल का जीवन परिचय –

उनका शासनकाल 30 साल रहा था उन्हों ने कई प्रजा के कार्य करके वंश के मुख्य स्थापक राजा बने थे। सन् 723 में आसपास बाप्पा रावल ने राज्य का कार्यकाल संभाला था। काल भोज के समय से पहले भी उनके वंश के कुछ महान और प्रतापी महाराजा का शासन मेवाड़ राज्य में रह चूका है।  bppm रावल [काल भोज] का व्यक्तित्व जीवन इस सभी महाराजाओ से बढ़कर था। 

चित्तौड़ का किला मोरी वंश के कब्जे में था उस वक्त परम पूज्य ऋषि श्रेस्ट हारीत ऋषि की सहायता से चितोड़ के राजा मान मोरी को मार कर बाप्पा रावल ने उसके राज्य पर अधिकार स्थापित किया।  वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक लेख मिला था।इस शिला लेख पर अंकित किया हुआ से यह प्रतीत हुआ था की मानमोरी और  bpps रावल के समय में ज्यादा अंतर नहीं था सिंध में अरबी राजाओ का शासन को बढ़ता हुआ पूर्ण रूप से रोकने वाला और उनको बहुत ही करारी हार देने वाला वीर यौद्धा बाप्पा रावल थे।

bippa रावल गहलौत [ गोहिल ]राजपूत वंश के आठवें शासक राजा थे बाप्पा रावल का बाल्य काल नाम राजकुमार कालभोज था।  उनका जन्म सन् 713 में हुआ था। तक़रीबन 97 वर्ष की उम्र में उनकी मौत  हुई थी। इस वीर और प्रतापी युवराज ने राजा बनने के बाद ही अपने वंश का नाम अपने नाम से जोड़ दिया सिर्फ जोड़ा ही नहीं मेवाड़ वंश से अपना राजवंश स्थापित करदिया। bappa rawal sword weight को उठाके जब भी चलते है जित ही हासिल करते थे। 

Bappa rawal एकलिंगजी के भक्त थे –

Biography of Bappa Rawal in Hindi Jivani में सभी को बतादे की बप्पा रावल एक न्यायप्रिय और प्रजा के कल्याणकारी  महाराजा थे। राजा राज्य को अपना नहीं समझते थे लेकिन  भगवन शिवजी के एक रूप ‘एकलिंग जी’ को चित्तोड़ दुर्ग  राजा मानते हुए राज्य  कार्यकाल संभाला करते थे। और खुद को एकलिंगजी के भक्त और प्रजा का सेवक बताते थे। तक़रीबन 30 साल के शासन कल के बाद ही बाप्पा रावल ने अपने जीवन का उद्देश्य बदल के वैराग्य ले लिया और अपने उत्तराधिकारी  पुत्र को राज्य का कारभार देकर भगवन शिव की भक्ति और उपासना में अपना जीवन व्यतीत कर दिया था।

चित्तोड़ किले पर हुए वीर और पराक्रमी राजाओं की जिस वंश में लाइन लगी थी। bappa rawal family tree देखि जाये तो राणा सांगा [ महाराणा संग्राम सिंह ] उदय सिंह , महाराणा प्रताप और अमरसिह जैसे वीर और श्रेष्ठ शासक राजा बाप्पा रावल के ही वंश में जन्मे है।बाप्पा रावल ने अपने जीवन काल में अपने दुश्मन अरब  राजाओ को अनेक समय ऐसी करारी हार का सामना करवाया था

की उन्हों ने अपने जीवन में तक़रीबन  400 साल तक किसी भी मुस्लिम राजा की हिंमत नहीं हुई थी। कोई शासक भारत देश की और आंख उठा कभी देख सके या उनका शासन भारत की और बढ़ाने की सोच भी रख सके। कई बार महमूद गजनवी ने राजस्थान की और चढाई की लेकिन हमेशा पराजय का ही सामना काना पड़ा क्योकि bappa rawal son भी बहुत ताकतवर थे। 

अरबों का आक्रमण –

इतिहास की जानकारी के अनुसार बापा की  ज्यादा प्रसिद्धि का मुख्य कारण अरबो के साथ का सफल युद्ध माना जाता है। अरबो के सामने बाप्पा रावल जब जब भी युद्ध में उतरे है हमेशा जित ही हासिल हु थी।सन् 712 ई. में bappa rawal and muhammad bin qasim के युद्ध में बापा ने सिंधु प्रान्त को जीत लिया था । अरबी राजाओ ने इसके बाद चारों ओर आक्रमण चालू कर दिये थे।  लेकिन बापा रावल ने सबको हार का सामना करवाया था।

कच्छेल्लोंश् , गुर्जरों , चावड़ों, मौर्यों और सैंधवों को पराजित करके बापा ने गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ और मालवा जैसे सभी प्रान्तों पर अपना अधिकार जमा दिया था।राजस्थान राज्य के कुछ महान् लेखो में बप्पा रावल और सम्राट् नागभट्ट प्रथम  के नाम उल्लेख्य किये हुए मिलते हैं।

Bappa rawal hindi में आपको बतादे की राजा नागभट्ट प्रथम ने अरब राजाओ को मालवा और पश्चिम राजस्थान से मार कर खदेड़ दिया था। जिस समय तक बाप्पा रावल का वंश चित्तोड़ दुर्ग में शासन करता रहा उस समय तक अरबो ने कभी भी चित्तोड़ की और कभी भी नहीं देखा था। bappa rawal vanshavali देखि जाये तो कई पराक्रमी और वीर राजाओ ने जन्म लिया है।

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बप्पा रावल के सिक्के – ( Bappa Rawal Coins )

पुरे भारत में अपने अपने राज्य में अपने अपने सिक्के राजाओ के जरिये लागु किये जाते थे। अजमेर शहर में मिले सिक्के को ओझा गौरीशंकर हीराचंद ने बाप्पा रावल का सिक्का है ऐसा बताया था।बाप्पा रावल के सिक्के का वजन देखा जायेतो  65 रत्ती [तोल 115 ग्रेन] है। उनके सिक्के के अंदर ऊपर और निचे की और के इक साइड श्री बोप्प लेखा है जो माला के निचे अंकित किया है। उसके आलावा त्रिशूल और बाई का चित्र अंकित किया है।

और दूसरी साइड पर एक  शिवलिंग भी अंकित किया है। और नंदी भी है जो शिवलिंग की ओर मुख करके बैठा दिखता है। नंदी और शिवलिंग के नीचे दंडवत्‌ प्रणाम करते एक पुरुष की छवि अंकित है।सिक्के के ऊपर सूर्य , चमर और छत्र की आकृति भी अंकित  हैं। इस सिक्के में एक गौ भी खड़ी मिलती और उसका दूध पीता हुआ बछड़ा भी है। इस सिक्के में बप्पा रावल के जीवन की जानकारिया और शिवभक्तिी को प्रतीत कराती है।

बाप्पा रावल की मृत्यु – ( Bappa Rawal Death )

बप्पा रावल का मृत्यु नागदा में हुआ था और वह बापा की समाधि आजभी स्थित है।

आबू के शिलालेख , कीर्ति स्तम्भ शिलालेख , और रणकपुर प्रशस्ति में बाप्पा रावल का वर्णन मिलता है।

Bappa Rawal History Video –

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Bappa rawal के बारेमे कुछ रोचक तथ्य –

  • गहलौत राजपूत वंश के बप्पा रावल आठवें शासक राजा थे।
  • बप्पा का बालयकाल का नाम राजकुमार कलभोज हुआ करता था।
  • उनका जन्म सन् 713 में हुआ था। और उनकी मौत तक़रीबन 97 वर्ष की आयु में हुई थी।
  • महाराजा बप्पा रावल के बारे में कहा जाता है कि
  • वह अपने एक ही झटके में दो भैंसों की बलि देता था।
  • पहेरवेश में 35 हाथ की धोती और 16 हाथ का दुपट्टा पहनते थे।
  • बापा की तलवार का वजन 32 मन बताया जाता है। और अपने भोजन में 4 बकरों का भोजन करते थे।
  • उनकी सैन्य शक्ति में तक़रीबन 1272000 सैनिक हुआ करते है।
  • महाराजा बप्पा रावल ने शासक बनने के पश्यात अपने वंश का नाम ग्रहण नहीं किया था।
  • लेकिन नए मेवाड़ वंश नाम का राजवंश चलाया है और चित्तौड़ दुर्ग को अपने राज्य की राजधानी बनाया था।
  • बप्पा रावल ने 39 वर्ष की उम्र में सन्यास लिया था।
  • इनका समाधि स्थान एकलिंगपुरी से उत्तर में एक मील दूर उपस्थित है। 
  • बप्पा रावल ने कुल 19 वर्षों तक शासन किया था।
  • बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध जितने के कारण हुई  थी। ।
  • सन् 712 ई. में महाराजा बप्पा ने मुहम्मद बिन क़ासिम से सिंधु प्रान्त को जीत लिया था ।
  • अरबों ने उसके बाद चारों ओर धावे करने शुरू करदिये थे।
  • बप्पा ने मौर्यों,चावड़ों,सैंधवों ,गुर्जरों और कच्छेल्लोंश् को भी हरा के मेवाड़ गुजरात ,
  • मारवाड़ और मालवा जैसे बड़े भूभागों को जित लिया था।

FAQ –

1 .बप्पा रावल की कितनी रानियां थी ?

बप्पा रावल की लगभग 100 पत्नियाँ थीं उसमे बप्पा रावल की 35 पत्नियाँ  मुस्लिम शासक राजाओ की राज कुमारिया थीं।  बाप्पा रावल का इतना भय था की मुस्लिम शासको ने अपनी बेटिया उनके भय से उन्हें ब्याह करवाई थी।

2 .बप्पा रावल की वंशावली और बप्पा रावल के पुत्र कौन थे?

बप्पा रावल के पुत्रों के नाम की बात करे तो उनकी पीढ़ी महाराजा राणा प्रताप से मिलती है। बप्पा रावल के राणा सांगा [महाराणा संग्राम सिंह] उदय सिंह , महाराणा प्रताप और अमरसिह जैसे वीर और श्रेष्ठ शासक राजा बाप्पा रावल के ही वंश में जन्मे है। बप्पा रावल ब्राह्मण को बहुत मानसन्मान देते थे।

3 .बप्पा रावल की उपाधियां और बप्पा रावल की मृत्यु कैसे हुई? 

बपा रावल का इतिहास dekhe to बप्पा रावल का मृत्यु नागदा में हुआ था।

उनकी वजह बताई जाये तो उम्र के कारन उनकी मौत हुई थी।

उनकी उपाधियां सिसौदिया वंशी राजा कालभोज के देशरक्षण और प्रजासरंक्षण के कार्यो से प्रभावित हो के ही

प्रजा ने राजा को बापा नाम की पदवी से सन्मानित किया था।

4 . मेवाड़ का प्रथम शासक कौन था? और मेवाड़ का अंतिम शासक कौन था?

मेवाड़ का प्रथम शासक बप्पा रावल को बताया गया है। 

उन्हों ने राजपूत साम्राज्य की मेवाड़ किले पर स्थापना की हुई है।

और मेवाड़ का अंतिम शासक महाराजा अमर सिंह को बताया जाता है।

5 . बप्पा रावल का जन्म और बप्पा रावल की मृत्यु कब हुई?

बप्पा रावल उनका जन्म सन् 713 में हुआ था। और

बप्पा की मौत तक़रीबन 97 वर्ष की आयु में हुई थी।

6 .बप्पा रावल की तलवार का वजन कितना था?

बप्पा रावल इतिहास dekhe to बप्पा रावल की तलवार का वजन तक़रीबन 32 मन बताया जाता है।

7 .बप्पा रावल का वजन कितना था ? बप्पा रावल की लंबाई कितनी थी ? 

बप्पा रावल का वजन (bappa rawal height and weight) बताया जाये तो

सिक्के का वजन 115 ग्रेन या 65.7 रत्ती है।

और अपने एक ही झटके में दो भैंसों की बलि देता था। 

Bappa rawal height in feet पहेरवेश में 35 हाथ की धोती और

16 हाथ का दुपट्टा पहनते थे बापा की तलवार का वजन 32 मन बताया जाता है।

बप्पा रावल का भोजन में 4 बकरों का भोजन करते थे।

इसके अनुसार उनकी वजन और ऊंचाई की क्षमता बहुत ज्यादा थी।

8 .बप्पा रावल किस का पुत्र था? 

बप्पा रावल नागादित्य [Nagaditya] के पुत्र थे। 

9 .Bappa rawal और रावलपिंडी के बीच क्या संबंध है?

बप्पा रावल और रावलपिंडी का इतिहास के बीच संबंध बताया जाये तो

अपने देश को विदेशी आक्रमणो से बचाने के लिए वीर बप्पा रावल के सैन्य को

ठिकाना रावलपिंडी मे हुआ करता था, इसी वजह से इस जगह का नाम रावलपिंडी पड़ा था।

10 .मेवाड़ का संस्थापक कौन है?

महाराजा बप्पा रावल मेवाड़ राज्य के स्थापक है। 

11 .बप्पा रावल की हाइट कितनी थी ? 

बप्पा रावल की लंबाई या हाइट की बात करे तो 9 फीट थी।

12 .बप्पा रावल के पिता का नाम क्या था ?

bappa rawal ke pita ka naam नागादित्य [Nagaditya] था। 

13 .बप्पा रावल की तलवार में कितना वजन था ?

महाराजा बापा की तलवार का वजन 32 मन बताया जाता है।

14 .बप्पा रावल का जन्म कब हुआ ?

महाराणा बप्पा रावल का जन्म 713 AD में हुआ था। 

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Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Bappa Rawal Biography बहुत पसंद आया होगा।

इस लेख के जरिये  हमने bappa rawal rawalpindi और

bappa rawal ke vanshaj से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है।

अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।

तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Biography of Babu Veer Kunwar Singh In Hindi - बाबू वीर कुंवर सिंह की जीवनी

Babu Veer Kunwar Singh Biography In Hindi – बाबू वीर कुंवर सिंह की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Babu Veer Kunwar Singh Biography In Hindi में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा कुंवर सिंह ने जगदीशपुर को अंग्रेजों के कब्जे से आजाद कराया था। 

वह 1857 की क्रांति के ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपनी छोटी-सी रियासत की सेना के दम पर आरा से लेकर रोहतास, कानपुर, लखनऊ, रीवां, बांदा और आजमगढ़ तक में अंगरेजी सेना से निर्णायक लड़ाइयां लड़ीं और कई जगह जीत हासिल करके राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। आज veer kunwar singh ki jivani में आपको veer kunwar singh wife name क्या था ? , veer kunwar singh class 7 में थे तब क्या किया था ? और how did veer kunwar singh died ? जैसे कई सवालों के जवाब इस पोस्ट में हम देने वाले है। 

80 साल की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जिस अदम्य साहस का उन्होंने परिचय दिया, वह अतुलनीय है. वे एक अच्छे राजा, महान योद्धा व बेहतरीन इंसान भी थे। उनका प्रभाव वर्तमान झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक फैला हुआ था। वीर कुंवर सिंह जीवनी में 1857 के विद्रोह में कुंवर सिंह की भूमिका का वर्णन और कुंवर सिंह ने विद्रोह का कहां पर नेतृत्व किया उसकी सम्पूर्ण जानकारी के लिए चलिए शुरू करते है। 

Babu Veer Kunwar Singh Biography In Hindi –

  नाम

  बाबू वीर कुंवर सिंह

  जन्म

  नवंबर, साल 1777

  जन्मस्थान

  जगदीशपुर, भोजपुर जिला, बिहार

  पिता

  बाबू साहबजादा सिंह

  माता

  रानी पंचरतन देवी

  मृत्यु

  26 अप्रैल 1858

बाबू वीर कुंवर सिंह की जीवनी –

  • साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में वीर कुंवर का जन्म हुआ।
  • बचपन खेल खेलने की बजाय घुड़सवारी, निशानेबाज़ी, तलवारबाज़ी सीखने में बीता।
  • उन्होंने मार्शल आर्ट की भी ट्रेनिंग ली थी।
  • माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद भारत में वह दूसरे योद्धा थे। 
  • जिन्हें गोरिल्ला युद्ध नीति की जानकारी थी।
  • अपनी इस नीति का उपयोग उन्होंने बार-बार अंग्रेजों को हराने के लिए किया।

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बाबू वीर कुंवर सिंह का जन्म परिचय –

साल 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तब वीर कुंवर की आयु 80 बरस की थी। इस उम्र में अक्सर लोग आरामदेह जीवन व्यतीत करना चाहते हैं और अगर वीर कुंवर भी चाहते तो कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने संग्राम में अपने सेनानी भाइयों का साथ देते हुए अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करने की ठानी। उनके दिल में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।

उन्होंने तुरंत अपनी शक्ति को एकजुट किया और अंग्रेजी सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला। उन्होंने अपने सैनिकों और कुछ साथियों के साथ मिलकर सबसे पहले आरा नगर से अंग्रेजी आधिपत्य को समाप्त किया। आजादी पाने की पहली लड़ाई के दौरान जब नाना साहब, तात्या टोपे, महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसे महान शूरवीर अपने-अपने राज्यों को अंग्रेजों के कब्जे से बचाने के लिए युद्ध कर रहे थे।

उसी दौरान बाबू वीर कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर अपनी कुशल सैन्य का परिचय दिया था।

वीर कुंवर सिंह का जन्म और विवाह – 

1857 की क्रांति के इस महान योद्धा और सूरवीर ने नवंबर साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में एक उज्जैनिया राजपूत घराने में जन्म लिया था। उनके पिता का नाम बाबू साहबजादा सिंह था, जो कि भोजपुर जिले के उज्जैनिया राजपूत वंश के रियासतदार शासक थे और मां रानी पंचरतन एक घरेलू गृहिणी थी।

वहीं साल 1826 में पिता की मौत के बाद कुंवर सिंह को जगदीशपुर के तालुकदार बनाया गया, जबकि उनके दोनों भाई हरे कृष्णा और अमर सिंह उनके सिपहसालार बनें, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध उनका साथ दिया था।इसके अलावा उनके ही परिवार के गजराज सिंह, उमराव सिंह और बाबू उदवंत सिंह ने भी भारत की पहली आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी।

वहीं राजपूत राजघराने में पैदा होने की वजह से बाबू कुंवर सिंह के पास काफी जागीर थी, वे जाने-माने बड़े जमींदार थे, हालांकि बाद में उनकी जागीर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी नीतियों के चलते छीन ली गई थी, जिससे उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ रोष पैदा हो गया था।वहीं veer kunwar singh के अंदर बचपन से ही देश को आजाद करवाने की आग प्रज्वलित थी। 

इसी वजह से उनका मन शुरु से ही शौर्य युक्त कामों में ज्यादा लगता था। कुंवर का विवाह मेवारी के सिसोदिया राजपूताना शासक फतेह नारायण सिंह की बेटी के साथ हुआ था, जो कि बिहारसिंह जिले के बडे़ और समृद्ध जमींदार और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के वंशज भी थे।

कुंवर सिंह ने अंग्रेजों की विलय नीति का किया था विरोध –

साल 1848 – 49 में जब क्रूर अंग्रेजी शासकों की विलय नीति से बड़े-बड़े शासकों के अंदर डर जाग गया था। उस समय कुंवर वीर सिंह, अंग्रेजों के खिलाफ भड़ उठे। वहीं इसके बाद अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए हिंदु और मुसलमान दोनों एक जुट हो गए। दरअसल, अंग्रेजों की अत्याचारी नीतियों के कारण किसानों के अंदर भी रोष पैदा हो गया था। वहीं इस दौरान सभी राज्यों के राजा अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे।

इसी वक्त बिहार के दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर ने अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया। इसके साथ ही इसी दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति के साथ इसका नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को उनके आगे घुटने टेंकने को मजबूर कर दिया।

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आजमगढ़ की आजादी – 

  • अपने अभियान के दौरान कुंवर सिंह ने आरा शहर और जगदीशपुर को तो आजाद कराया ही।
  • साथ ही आजमगढ़ को भी आजाद कराया. आजमगढ़ को आजाद कराने में भी उनकी सूझबूझ कारगर साबित हुई।
  • उन्होंने देखा कि आजमगढ़ से सैनिक लखनऊ भेजे गये हैं।
  • तो उन्होंने मौके का फायदा उठाकर आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और उनकी वजह से आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा। 

आरा की सरकार और जगदीशपुर की आजादी –

  • 25 जुलाई, 1857 को जब आरा शहर पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया था।
  • तो कुंवर सिंह ने तत्काल आरा शहर के प्रशासन को सुव्यवस्थित किया।
  • हालांकि आजादी चंद दिनों की ही थी।
  • मगर उनके शासन प्रबंध की लोग खूब तारीफ करते थे।
  • उनकी आखिरी जीत जगदीशपुर की आजादी थी।
  • आजमगढ़ से जब वे लौटे तो सीधे जगदीशपुर पहुंचे। 
  • हालांकि रास्ते में एक युद्ध के दौरान उनकी बांह में गोली लग गयी थी।
  • और जैसा कि हर कोई जानता है कि संक्रमण से बचने के लिए उन्होंने खुद ही अपनी बांह काटकर गंगा को अर्पित कर दिया।
  • फिर वे जगदीशपुर पहुंचे और शानदार जीत हासिल की. 26 अप्रैल तक वे जीवित रहे. ये चार दिन आजादी के थे। 

धरमन बाई के लिए मस्जिदे बनवायीं –

आज कुंवर सिंह को देखने का हमारा नजरिया बदल गया है. हम उन्हें खास जाति तक सीमित कर देखते हैं, मगर जब जानेंगे कि उस वक्त उनके अगल-बगल सहयोगी कौन थे, तो नजरिया बदल जायेगा। उनकी दूसरी पत्नी धरमन बाई मुस्लिम थीं। धरमन उनके साथ युद्ध अभियान में भी गयी थीं उन्होंने कुंवर सिंह को आर्थिक सहयोग भी किया कुंवर सिंह ने धरमन के लिए आरा शहर में दो मस्जिदे बनवायीं थे ।

उनकी बहन करमन बाई के नाम पर आज भी आरा शहर में एक मोहल्ला है। युद्ध व प्रशासन में उनके सहयोगी सभी समुदाय के थे। वे सवर्ण थे, मगर अंग्रेजों ने कई जगह लिखा है कि आरा के विद्रोह में ज्यादातर निचले तबके के लोगों ने सक्रिय भागीदारी की थी। उनमें कुंवर सिंह को लेकर गजब का क्रेज था।

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जब अदालत में लगी पुकार-आरा शहर हाजिर हो –

स्वतंत्रता संग्राम में पूरे भारत में एकमात्र किसी शहर पर चला था बगावत का मुकदमा पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एकमात्र शहर आरा पर बगावत के आरोप में मुकदमा चला था , इसमें अभियुक्त कोई व्यक्ति नहीं, आरा शहर था। शहर पर 1858 के अधिनियम x के तहत बगावत का आरोप था , सुनवाई कर रहे मजिस्ट्रेट डब्ल्यू जे हर्शेल के सामने आरोप से संबंधित सबूत व गवाह पेश किये गये थे , ‘गवर्नमेंट वर्सेस द टाउन ऑफ आरा’ मुकदमा 1859 में चला था। 

दरअसल, अंग्रेज पूरे आरा शहर से आरा हाउस की घेराबंदी का बदला लेना चाहते थे आरा पर कब्जा के बाद 6 अगस्त, 1857 को ड्रम-हेड कोर्ट मार्शल के तहत 16 लोगों को फांसी देने के बाद भी अंग्रेजों की नाराजगी शांत नहीं हुई थी। आंदोलन में पूरे शहर के लोगों की भागीदारी से वे काफी नाराज थे , उस वक्त आरा के सत्र न्यायाधीश आर्थर लिटिलडेल थे।

वे 26 जुलाई से 2 अगस्त तक आरा हाउस में घिरे हुए थे 3 अगस्त को मेजर विन्सेंट आयर के फैजी दल द्वारा गजराजगंज-बीबीगंज में मुठभेड़ के बाद आरा पर फिर से कब्जा कर लेने के दिन से कोर्ट मार्शल की डायरी लिटिलडेल ने रखनी शुरू की थी ,6 अगस्त के कोर्ट मार्शल का वर्णन डायरी में था। 

शहरवासियों को प्रभार मुक्त किया गया –

जिन 16 लोगों को फांसी दी गयी थी, उनमें से तीन आरा शहर के थे , फांसी पर चढ़े गुलाम याह्मया kunwar singh के वकील थे और उन्हें आरा का प्रोभेस्ट मार्शल कुंवर सिंह ने नियुक्त किया था। विद्रोहियों द्वारा गठित सरकार में मजिस्ट्रेट की भूमिका इन्होंने निभायी थी , उम्र के आखिरी पड़ाव में मनवाया अपनी बहादुरी और शौर्य लोहा -मैं आरा शहरवासियों को आरोपमुक्त करता हूं। 

सबूतों और गवाहों के बाद मजिस्ट्रेट हर्शेल ने फैसले में कहा- उस समय शहर जो भी सजा का अधिकारी रहा हो, दो साल बीत जाने के बाद मामला बदल गया है। शहर ने क्या नहीं किया, उसकी जगह इस बात पर जोर देना चाहिए कि शहर ने क्या किया था। प्रामाणिक रूप से यह बात स्थापित हो चुकी है कि लोगों ने देसी अधिकारियों की उस समय रक्षा की जब सारा शहर बागी सिपाहियों से भरा हुआ था। 

इन अधिकारियों की सरगर्मी से तलाश की जा रही थी शहर के लोगों ने उस समय क्षतिग्रस्त मकान की मरम्मत के लिए खर्च करने की पेशकश की बाद में सरकारी सैनिकों की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर विद्रोहियों ने शहर पर फिर हमला बोला, तो शहर के लोगों ने प्रतिरोध किया लोगों ने कुछ अवसरों पर जो उदासीनता दिखायी, वह दुखद है। 

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Babu Veer Kunwar Singh 80 साल के शेर थे –

मेरे विचार में शहर और वासियों का आचरण अन्य जिले-शहर की तुलना में बेहतर है, इसलिए मैं शहरवासियों को आरोपमुक्त करता हूं प्रदेश सरकार ने हर्शेल के निर्णय को न्यायपूर्ण बताया और आयुक्त को निर्देश दिया कि आरा शहर पर दंड लगाने के पहले प्रस्ताव पर अब आ वहीं 1857 में जब भारत के सभी हिस्सों में लोग अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे, उस समय बाबू कुंवर सिंह अपने उम्र के आखिरी पड़ाव में थे, उनकी उम्र उस समय 80 साल थी।

तभी ब्रिटिशों के खिलाफ नेतृत्व करने का उन्हें संदेश आया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया, क्योंकि उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ इतना गुस्सा भरा था और कुंवर सिंह को भारत को आजादी दिलवाने की इतनी छटपटाहट थी कि इस उम्र में भी उन्होंने अपने अदभुत साहस, धैर्य और वीर पराक्रम के साथ अंग्रेजों का डटकर सामना किया।

अंग्रेजों के कार्यालयों को बर्बाद कर दिया –

यही नहीं उन्होंने अंग्रेजों के कार्यालयों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, सरकारी खजाने को लूट लिया, यहां तक की जगदीशपुर में अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। वहीं इसके बाद जब वे अपनी पलटन के साथ गंगा नदी पार कर रहे थे तब इस दौरान चुपचाप ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों उन्हे घेर लिया। और अंग्रेजी सैनिकों ने गोलीबारी की जिससे कुंवर सिंह के एक हाथ में अंग्रेजों की गोली लग गई, जिसे उन्होंने अपना अपमान समझा और फिर तलवार से अपनी एक बांह काट कर गंगा नदी को समर्पित कर दी और एक हाथ से ही दुश्मनों का सामना किया।

वीर कुंवर सिंह की मृत्यु – Babu Veer Kunwar Singh

  • कुँवर सिंह सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी
  • घाट से रात्रि के समय कश्तियों में गंगा नदी पार कर रहे थे।
  • तभी अंग्रेजी सेना वहां पहुंची और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगी।
  • veer kunwar singh इस दौरान घायल हो गए और एक गोली उनके बांह में लगी।
  • 23 अप्रैल 1858 को वे अपने महल में वापिस आए थे। 
  • लेकिन आने के कुछ समय बाद ही 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गयी। 
  • 23 अप्रैल 1966 को भारत सरकार ने उनके नाम का मेमोरियल स्टैम्प भी जारी किया। 
  • veer kunwar singh  केवल 1857 के महासमर के सबसे महान योद्धा थे बल्कि ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है। 
  • “उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी।
  • वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।
  • इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी थी। 

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किताबों और फिल्मों में कुंवर सिंह – (Babu Veer Kunwar Singh In Books And Films)

  • veer kunwar singh पर कई किताबें लिखी गयीं। 
  • इनमें से सबसे महत्वपूर्ण काली किंकर दत्त द्वारा लिखित पुस्तक बायोग्राफी ऑफ कुंवर सिंह एवं अमर सिंह है।
  • जिसे पटना के केपी जायसवाल इंस्टीट्यूट ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
  • के शताब्दी वर्ष के मौके पर 1957 में प्रकाशित किया था। 
  • नेशनल बुक ट्रस्ट ने हिंदी में कुंवर सिंह और 1857 की क्रांति नामक पुस्तक का प्रकाशन किया था।
  • जिसके तीन लेखक हैं- डॉ सुभाष शर्मा, अनंत कुमार सिंह और जवाहर पांडेय। 
  • श्रीनिवास कुमार सिन्हा ने पुस्तक लिखी है, वीर कुंवर सिंह, द ग्रेट वारियर ऑफ 1857  .
  • इसे कोणार्क प्रकाशन ने 1997 में प्रकाशित किया है।
  • कुंवर सिंह के जीवन पर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने एक धारावाहिक का निर्माण भी किया था।
  • 1992 में बने इस धारावाहिक का नाम था विद्रोह. इस धारावाहिक की शूटिंग बेतिया में हुई थी।
  • विजय प्रकाश इसके लेखक थे और सतीश आनंद ने कुंवर सिंह की भूमिका निभायी थी।

Babu Veer Kunwar Singh Life Style Video –

Babu Veer Kunwar Singh Interesting Facts –

  • बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था।
  • उनका  पूरा नाम babu veer kunwar singh था।
  • इनके पिता का नाम बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे।
  • 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों एव 
  • अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया था।
  • kunwar singh न केवल 1857 के संग्राम के एक वयोवृद्ध योद्धा भी थे।
  • कुंवर सिंह की बदौलत अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था।
  • kunwar singh ने अपनी 80 साल की उम्र में लडाई लड़ी थी।
  • 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर के लोगों ने उनको सिंहासन पर बैठाया और राजा घोषित किया था।
  • ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है। 
  • ‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी।
  • इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी थी।

Babu Veer Kunwar Singh Questions –

1 .कुंवर सिंह की मृत्यु कब हुई ?

26 अप्रैल 1858 के दिन कुंवर सिंह की मौत हुई थी।

2 .कुंवर सिंह ने विद्रोह का कहां पर नेतृत्व किया ?

जगदीशपुर की  क्रांतिकारी सेना का नेतृत्व कुंवर सिंह ने किया था। 

3 .1857 के विद्रोह में कुंवर सिंह की भूमिका का वर्णन?

स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मुसलमानों

और हिंदू सभी को एक करने के लिए महत्व पूर्ण भूमिका निभाई थी। 

4 .कुंवर सिंह ने अपनी चतुराई कैसे दिखाई?

कुंवर सिंह चतुराई  बात करे तो स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में बहुत ही महत्व पूर्ण भूमिका निभा के दिखाई थी। 

5 .कुंवर सिंह की मृत्यु कैसे हुई?

अंग्रेजी सेना की गयी अंधाधुंध गोलिबार से कुंवर सिंह घायल हुई और दो दिन के बाद मौत हुई थी।

6 .कुंवर सिंह में देशभक्ति और स्वाधीनता की भावना किसने उत्पन्न की थी?

देशभक्ति और स्वाधीनता की भावना जगाने वाले व्यक्ति जगदीशपुर के जंगलों में ‘बासुरिया बाबा’ जो एक सिद्ध संत थे। 

7 .वीर कुंवर सिंह पाठ के लेखक कौन हैं?

डॉ सुभाष शर्मा, अनंत कुमार सिंह और जवाहर पांडेय तीन लेखकों ने उस पाठ को लिखा है।

8 .वीर कुंवर सिंह का जन्म किस राज्य में हुआ था?

वीर कुंवर सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था।

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Conclusion –

आपको मेरा Babu Veer Kunwar Singh Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने kunwar singh last words और veer kunwar singh jagdishpur से सम्बंधित जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य व्यक्ति या अभिनेता के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास वीर कुंवर सिंह पर लेख या 1857 में वीर कुंवर सिंह की भूमिका की कोई जानकारी हैं, या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है। तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद 

1 .कुंवर सिंह के पिता क्या थे ?

2 .कुंवर सिंह ने विद्रोह का कहां पर नेतृत्व किया था ?

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Biography oF Samudragupta In Hindi - समुद्र्गुप्त की जीवनी हिंदी में

Samudragupta Biography In Hindi – समुद्र्गुप्त की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Samudragupta Biography In Hindi में आपको गुप्त राजवंश के महान राजा समुद्रगुप्त का जीवन परिचय से ज्ञात कराने वाले है। 

इस महान राजा  को गुप्त राजवंश के चौथे महान राजा माने जाते है , चन्द्रगुप्त पहले के दूसरे अधिकारी पाटलिपुत्र समुद्रगुप्त के साम्राज्य की राजधानी मानी जाती है । वे वैश्विक इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक एवं सम्राट कहा जाता है। आज samudragupta history in hindi में आपको samudragupta wife , samudragupta son name और samudragupta achievements से सबंधित जानकारी देने वाले है। ऐसा कह सकते है की आज हम समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन की कहानी बताने वाले है 

समुद्रगुप्त का शासनकाल भारत के लिये सोने का ( स्वर्णयुग ) की शुरूआत कही जाती है ,और समुद्रगुप्त को गुप्त राजवंश का महान राजा माना जाता है। समुद्रगुप्त को एक महान शासक, वीर योद्धा माना जाता है और तो और समुद्रगुप्त को कला के संरक्षक भी माना जाता है । उनका नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है। Samudragupta का नाम समुद्र की चर्चा करते हुए और अपने विजय अभियान की वजह से रखा गया था और उसका अर्थ होता है।”महासागर”। समुद्रगुप्त के बहुत भाई थे, फिर भी उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा के देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था ।

Samudragupta Biography In Hindi –

नाम

समुद्रगुप्त

उपनाम

तनत्रीकमन्दका

पिता

चन्द्रगुप्त प्रथम

माता

कुमारादेवी

पुत्र

चंद्रगुप्त द्वितीय

पत्नी

दत्तदेवी

समुद्र्गुप्त की जीवनी – 

चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद, उनकी राजगादी के लिये संघर्ष हुआ जिसमें समुद्रगुप्त एक प्रबल दावेदार बन कर उभरे। कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने राज्य पर अपना शासन करने के लिये अपने प्रतिद्वंद्वी अग्रज राजकुमार काछा को युद्ध में हराया था समुद्रगुप्त का नाम सम्राट अशोक के साथ जोड़ा जा रहा है माना की वो दोनो एक-दूसरे के बहुत ही करीब थे । और वो एक अपने विजय अभियान के लिये जाने जाते थे और दूसरे अपने धुन के लिये जाने जाते थे। समुद्र्गुप्त को भारत के महान शासक जाता हे समुद्र्गुप्त ने अपने जीवन काल के दौरान कभी भी हार नहीं मानी थी । वि.एस स्मिथ के द्वारा उन्हें भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी गई थी। 

समुद्रगुप्त का शासनकाल –

चंद्रगुप्त को मगध राज्य के महान राजा और गुप्त वंश के पहले शासक माने जाते है उन्होने एक लिछावी राजकुमारी, कुमारिदेवी के साथ उन्होंने विवाह कर लिया था और उनकी वजह से उन्हे गंगा नदी के तटीय जगहो पर एक पकड़ मिला जो उत्तर भारतीय वाणिज्य का मुख्य स्रोत माना गया था। उन्होंने लगभग दस वर्षों तक एक प्रशिक्षु के रूप में बेटे के साथ उत्तर-मध्य भारत में शासन किया और उन्की राजधानी पाटलिपुत्र, भारत का बिहार राज्य, जो आज कल पटना के नाम से जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद ,समुद्रगुप्त ने राज्य शासन संभाला था और उन्होने शायद पूरे भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद ही आराम ग्रहण किया था

समुद्रगुप्त का शासनकाल, एक विशाल सैन्य अभियान के रूप में वर्णित किया। हुवा माना जाता है शासन शुरू करने के साथ उन्होने मध्य भारत में रोहिलखंड और पद्मावती के पड़ोसी राज्यों पर हमला किया। उन्होंने बंगाल और नेपाल के कुछ राज्यों के पर विजय प्राप्त की और असम राज्य को शुल्क देने के लिये विवश किया। उन्होंने कुछ आदिवासी राज्य मल्वास, यौधेयस, अर्जुनायस, अभीरस और मधुरस को अपने राज्य में विलय कर लिया। अफगानिस्तान, मध्य एशिया और पूर्वी ईरान के शासक, खुशानक और सकस भी साम्राज्य में शामिल कर लिये गए।

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समुद्रगुप्त का वैवाहिक गठबंधन –

राजा समुद्रगुप्त के शासनकाल की सबसे अच्छी घटना वकटका राजा रुद्रसेन दूसरे की और पश्चिमी क्षत्रपों के रूप में शक राजवंश के जरिये सदियों से शासन करते आये थे और जो काठियावाड़ के सौराष्ट्र की प्रायद्वीप के पराजय के साथ अपने वैवाहिक गठबंधन में बंधा था। लग्न के गठजोड़ गुप्तों की परदेशी नीति में एक मुख्य अच्छा स्थान रखा है । समुद्रगुप्त के गुप्तो ने लिछवियो से लग्न गठबंधन कर बिहार में समुद्रगुप्त ने अपनी स्थिति को मजबूत किया था। 

समुद्रगुप्त ने पड़ोसी राज्यों से उपहार स्वीकार कर लिये थे। एक ही उद्देश्य के साथ, चन्द्रगुप्त द्वितीय नागा राजकुमारी कुबेर्नगा से शादी की और वकटका राजा से शादी में अपनी बेटी, प्रभावती, रुद्र शिवसेना द्वितीय दे दी है।यह समुद्रगुप्त का एक रणनीतिक स्थिति पर अपना राज जमा लिया था जो वकटका राजा के अधीनस्थ गठबंधन सुरक्षित रूप वकटका गठबंधन कूटनीति के मास्टर स्ट्रोक था।

यह रुद्र शिवसेना जवान मारे गए और उसके बेटे की उम्र के लिए आया था, जब तक उसकी विधवा शासनकाल में उल्लेखनीय है डेक्कन के अलग अलग राजवंशों की भी गुप्ता शाही परिवार में उन्होंने विवाह कर लिया था । समुद्रगुप्त गुप्त, इस तरह अपने डोमेन के दक्षिण में मैत्रीपूर्ण संबंधों की भी रचना की है यह भी चन्द्रगुप्ता दूसरे के दक्षिण-पश्चिम की ओर विस्तार के लिए कमरे की तलाश के लिए पसंद करते हैं समुद्रगुप्त के दक्षिणी रोमांच का नवीनीकरण नहीं किया है कि इसका मतलब है।

समुद्रगुप्त गुप्त वंश का उत्तराधिकारी – Samudragupta Gupta Dynasty

चंद्रगुप्त पहले के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर विराज मान हुवा था । चंद्रगुप्त के अपने पुत्र थे। पर गुण और साहस में समुद्रगुप्त सबसे उत्तम था। लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना दूसरा अधिकारी चुना था। 

और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा – ‘तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।’ इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।

सम्राट समुद्रगुप्त के गुण और चरित्र –

सम्राट समुद्रगुप्त के वैयक्तिक गुणों और चरित्र के बारे मे प्रयाग की प्रशस्ति में बड़े अच्छे और सुंदर पाये जाते हैं। इसे महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण ने तैयार किया था। हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त का चरित्र इस प्रकार का था ‘उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था।

वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों की बुद्धि विभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे ‘कविराज’ की उपाधि दी गई थी। ऐसा कौन सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था। सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था। परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था।

  • समुद्रगुप्त का सूत्र

समुद्रगुप्त के इतिहास का सबसे अच्छा स्रोत, वर्तमान इलाहाबाद की बाजु में, कौसम्भि में पहाड़ो में शिलालेखों में से एक बहुत ही अच्छा शिलालेख है। इस शिलालेख में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का विवरण दिया गया है। इस शिलालेख पर लिखा है, “जिसका खूबसूरत शरीर, युद्ध के कुल्हाड़ियों, तीरों, भाले, बरछी, तलवारें, शूल के घावों की सुंदरता से भरा हुआ है।

यह शिलालेख भारत के राजनीतिक भूगोल की वजह से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें विभिन्न राजाओं और लोगों का नाम अंकित है, जोकि चौथी शताब्दी के शुरूआत में भारत में मौजुद थे। इसमें समुद्रगुप्त के जित के अभियान पर लिखा गया है और तो और उसके लेखक हरिसेना को माना गया हुवा है जो समुद्रगुप्त के दरबार के सबसे महत्वपूर्ण महान कवि माने जाते थे । समुद्रगुप्त जहाँ उत्तर भारत के एक महान शासक एवं दक्षिण में उनकी पहुँच को स्वयं दक्षिण के राजा भी बराबर नहीं कर पाते थे ।

  • समुद्रगुप्त का सिक्का –

समुद्रगुप्त का ज्यादा उसे और शिलालेख के जरिये जारी किए गए उनके सिक्कों के माध्यम से समुद्रगुप्त के बारे में जाना जाता है। और इस आठ अलग अलग प्रकार के थे और सभी को शुद्ध सोने का बना दिया गया था । अपने विजय अभियान उसे सोने और भी कुषाण के साथ अपने परिचित से सिक्का बनाने विशेषज्ञता लाया।

बहुत ही शांति के रूप से, समुद्रगुप्त गुप्ता की मौद्रिक प्रणाली का पिता माना जाता है। समुद्रगुप्त ने बताया और कहा कि सिक्कों की अलग अलग प्रकार की शरुआत की थी । वे मानक प्रकार, आर्चर प्रकार, बैटल एक्स प्रकार, प्रकार, टाइगर कातिलों का प्रकार, राजा और रानी के प्रकार और वीणा प्लेयर प्रकार के रूप में जाने जायेगे वो तकनीकी और मूर्तिकला की चालाकी के लिए एक अच्छी गुणवत्ता का प्रदर्शन करते हुए सिक्कों की कम से कम तीन प्रकार की शरुआत की थी

1. आर्चर प्रकार, 2.लड़ाई-कुल्हाड़ी और 3. टाइगर प्रकार – मार्शल कवच में समुद्रगुप्त का प्रतिनिधित्व कीया था जैसे विशेषणों वीरता,घातक लड़ाई-कुल्हाड़ी,बाघ असर coins of samudragupta, उसकी एक कुशल योद्धा जा रहा है साबित होते हैं। सिक्कों की समुद्रगुप्त के प्रकार वह प्रदर्शन किया बलिदान और उसके कई जीत और दर्शाता है।

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समुद्रगुप्त और सिंहल से सम्बन्ध – (achievements of samudragupta)

समुद्रगुप्त के इतिहास की बहुत सारी बातो का भी उदभव किया हुवा है । इस समय में सीलोन का महान राजा मेघवर्ण था। और राजा मेघवर्णशासन के काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे। वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था। जब वे अपने देश को वापिस चले गए  तो समुद्रगुप्त ने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की। मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए।

इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा। समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने ‘बौधिवृक्ष’ के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया। जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का वैदिक धर्म और परोपकार –

समुद्रगुप्त को ब्राह्मण धर्म के ऊपर से धारक था । लेकिन धर्म के कारण अपनी सेवाओं को इलाहाबाद के शिलालेख और उसके लिए ‘धर्म-बंधु’ की योग्यता शीर्षक का उल्लेख है। लेकिन उन्होंने कहा कि अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं था। उनका बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को संरक्षण और महेंद्र के अनुरोध की स्वीकृति, बोधगया में एक बौद्ध मठ का निर्माण करने के सीलोन के राजा कथन से वह अन्य धर्मों का उन्होंने साबित किया था ।

उसे (परिवहन) मकर (मगरमच्छ) के साथ मिलकर लक्ष्मी और गंगा के आंकड़े असर अन्य सिक्कों के साथ सिक्कों का समुद्रगुप्त को प्रकार ब्राह्मण धर्मों में अपने विश्वास में गवाही देने के लिए दिया गया था । समुद्रगुप्त धर्म की सच्ची भावना आत्मसात किया था और उस कारण के लिए, वह इलाहाबाद शिलालेख में (करुणा से भरा हुआ) के रूप में वर्णित किया गया है। उन्होंने कहा, ‘गायों के हजारों के कई सैकड़ों के दाता के रूप में’ वर्णित किया गया है।

Samudragupta Victory – (समुद्रगुप्त की विजय)

समुद्रगुप्त ने उत्तर और दक्षिण के अपना साम्राज्य ज़माने के लिये रणनीतिक योजनाओं को अपनाया। दूर के अभियानों को अपना ने से पहले, उसने पहले पड़ोसी राज्यों को अपने अधीन करने का निणर्य किया किया था ।समुद्रगुप्त के आक्रमणों में तीन अलग-अलग चरण देखने को मिलते है, मतलब आर्यावर्त में उनका पहला अभियान, दक्षिणापथ में समुद्रगुप्तका अभियान और आर्यावर्त में उसका दूसरा अभियान मन ।

उनके आक्रमणों और विजय के अलावा, समुद्रगुप्त ने भी अटाविका या वन राज्यों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने गुप्त साम्राज्य के मोर्चे पर स्थित राज्यों के साथ राजनयिक संबंध भी स्थापित किए थे उन्होंने , अंत में, दूर की विदेशी शक्तियों के साथ राजनीतिक वार्ता का आदान-प्रदान किया। पुरे उत्तर भारत में उनके सबसे अच्छे पहले अभियान में, समुद्रगुप्त ने तीन राजाओं को हराया और उन तीनो राजा ओ का साम्राज्य छीन लिया।

और वे थे, अच्युता नागा, नागा सेना और गणपति नागा। ये नागा राजा शायद गुप्तों के खिलाफ एकजुट होकर काम करते थे और समुद्रगुप्त के लिए खतरे का एक स्रोत थे। उन्होंने क्रमशः अहिच्छत्र, पद्मावती, और मथुरा के राज्यों में शासन किया। उनके साथ पहली मुठभेड़ में गुप्त सम्राट ने उसे दिखने के लिए विवश किया था । और वह उत्तर में उनके सेकंड अभियान में था, कि कुछ नए इंसान के साथ ये राजा पूरी तरह से समाप्त हो गए थे। तीन उत्तरी शक्तियों पर अपनी विजय के बाद, समुद्रगुप्त ने दक्खन में अपना अभियान शुरू किया। अपने दक्षिणी अभियानों के दौरान उन्होंने बारह राजकुमारों के रूप में कई विनम्रता दिखाई। 

समुद्रगुप्त का मथुरा पर विजय –

समुद्रगुप्त की विजय का वर्णन में जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने कब्जे में ले लिया था और मथुरा के राजा गणपति नाग को समुद्रगुप्त हराया था। उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था,जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है। इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है। वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था। समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।

राजा समुद्रगुप्त के विरोधी राजाओं के उलेख से पता चलता है गंगा-यमुना को आखिर कार दोआब ‘अंतर्वेदी’ विषय के नाम से पहचाना जात है । स्कन्दगुप्त के शाशन काल में अंतर्वेदी का शासक ‘शर्वनाग’ था ऐसा उल्लेख किया गया है । इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे। सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो।

समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया। दिग्विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया। यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये। इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते है।

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समुद्रगुप्त की अधीनता –

उनके पश्यात समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेवअपनी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। ये सब कर देकर, आज्ञाओं का पालन कर, प्रणाम कर, तथा राजदरबार में उपस्थित होकर सम्राट समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकृत करते थे। इस प्रकार करद बनकर रहले वाले प्रत्यन्त राज्यों के नाम हैं। 

समतट या दक्षिण-पूर्वी बंगाल –

  • कामरूप या असम
  • नेपाल
  • डवाक या असम का नोगाँव प्रदेश
  • कर्तृपुर या कुमायूँ और गढ़वाल के पार्वत्य प्रदेश।
  • निःसन्देह ये सब गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त या सीमा प्रदेश में स्थित राज्य थे।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार –

समुद्रगुप्त का प्रत्यक्ष प्रशासन साम्राज्य कि तरह व्यापक था। और यहाँ पर शायद पूरा उत्तर भारत शामिल था। उनके पश्यात यहाँ पर पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपुताना, सिंध, गुजरात और उड़ीसा गुप्त साम्राज्य भी शामिल नहीं थे। उसके बावजूद भी यहाँ का साम्राज्य विशाल था। पूर्व में, यह ब्रह्मपुत्र नदी के रूप में दूर तक विस्तारित था।

दक्षिण में, यह नर्मदा नदी को छू गया। उत्तर में, यह हिमालय तक पहुँच गया। ठीक ही इतिहासकार वीए स्मिथ ने समुद्रगुप्त के क्षेत्र और शक्ति कहने की सीमा को भी बताया है समुद्रगुप्त की चौथी शताब्दी की सरकार के बहुत ही अच्छे प्रभुत्व इस तरह भारत के सबसे अहम् आबादी वाले और उपजाऊ देशों में शामिल था।

यह पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में जमुना और चंबल तक फैला हुआ था। उत्तर में हिमालय के पैर से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक। ऐसे विस्तृत सीमाओं से पुरे, असम और गंगा के डेल्टा के साथ हिमालय और दक्षिणी ढलानों पर राजपुताना और मालवा की मुक्त जनजातियों के गठबंधन के समर्थन के बंधन द्वारा साम्राज्य से जुड़े थे।

दक्षिण को सम्राट की सेनाओं द्वारा उखाड़ फेंका गया था और अपनी अदम्य ताकत को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया था। इस प्रकार परिभाषित किया गया साम्राज्य अब तक का सबसे बड़ा था जो कि अशोक के छह शताब्दियों पहले के दिनों से भारत में देखा गया था और इसका अधिकार स्वाभाविक रूप से समुद्रगुप्त को विदेशी शक्तियों के सम्मान के लिए मिला था। 

Samrat Samudragupta History Hindi – 

Samudragupta का विदेशी शक्तियों से संबंध –

समुद्रगुप्त ने सिर्फ गुप्त साम्राज्य की सरहद पर अपनी सीमावर्ती राज्यों की और गणराज्यों को अपने वश में कर लिया, और तो और साम्राज्य के बाहर की फोरेन का साम्राज्य के मन में भी भय पैदा कर दिया। पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की शक्तियों के साथ-साथ दक्षिण में जैसे सिम्हाला या सीलोन के साम्राज्य ने गुप्त सम्राट को विभिन्न तरीकों से उनके सम्मान का भुगतान किया।

इलाहाबाद स्तंभ शिलालेख ऐसी सेवाओं को संदर्भित करता है जैसे व्यक्तिगत संबंध, मासिक सेवा के लिए युवतियों के उपहार और भेंट समुद्रगुप्त के बहुत करीब संबंधों के प्राप्त करने की भी अपील की, इंपीरियल गुप्ता गरुड़ सील को आकर्सन करते हुए, उनके लिए अपने देश के रूप में मैत्रीपूर्ण देशों पर शासन करने की गारंटी का संकेत दिया। Samudragupta ने अपनी इच्छाओं को दोस्ताना तरीके से स्वीकार किया।

उन फोरेन की ताकत के बीच जो दोस्ती जैसे संबंधों की दिष्या में आते थे, काबुल घाटी में बाद के कुषाण शासक थे, जो अब भी खुद को दैवपुत्र-शाही-शाहानुशाही के रूप में स्टाइल करना जारी रखते थे। सुदूर उत्तर-पश्चिम में शक शासक भी थे जिन्होंने Samudragupta का पक्ष लिया था।

समुद्रगुप्त का भारतवर्ष पर एकाधिकार –

समुद्रगुप्त का शाशन काल भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नाम के जित की खुशी के लिए विख्यात माना जाता ना है Samudragupta ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था।

उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में ‘प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है।

समुद्रगुप्त का अश्वमेध यज्ञ –

पुरे भारत में अबाधित राज किया था और बहुत बड़ी जित को ख़त्म कर के Samudragupta ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजान किया और यज्ञ में विराज मान हुई थे । शिलालेखों में उसे ‘चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता’ और ‘अनेकाश्वमेधयाजी’ कहा गया है।Samudragupta ने अश्वमेधो में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही उलेख नहीं किया बल्की इस अवसर से बेनिफिट लेकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था।

प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कई सिक्कों में अश्वमेध यज्ञ का भी चित्र बताया गया है। samudragupta coins अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किया गया था। Samudragupta के सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, और वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है  ‘राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्य राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है। 

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Samudragupta का प्रशस्ति गायन –

भारत के दक्षिण एवंम पश्चिम के बहुत से राजा Samudragupta के अस्तित्व में थे, और उसे बहुत ही अच्छे भेट पहुंचाकर उन्हें खुश रखते थे। और ऐसे तीन महान राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है।ये ‘देवपुत्र हिशाहानुशाहि’, ‘शक-मुरुण्ड’ और ‘शैहलक’ हैं। दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है। शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है,

जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था। पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे। सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है। इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा Samudragupta का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।

समुद्रगुप्त का एक अनुमान –

Samudragupta ने बिना भरोशा किये भारतीय हिस्टरी के सबसे महान राजा में से एक है समुद्रगुप्त ने एक सैनिक,और योद्धा संस्कृति के संरक्षक के रूप में, वह भारत के शासकों के बीच प्रतिष्ठित है। कुछ लोग उन्हें गुप्त वंश का सबसे बड़ा सम्राट मानते हैं। समुद्रगुप्त की महानता भारत के एकीकरण के लिए एक योद्धा के रूप में Samudraguptaकी साहसी भूमिका में थी। इस संबंध में, उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य samudragupta maurya की भूमिका को दोहराया।

वह भारत के उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से पर एक शाही सत्ता के राजनीतिक आधिपत्य को स्थापित करने में सफल रहे। अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण में,  जबकि उन्होंने ऊपरी भारत के अधिकांश हिस्सों को अपने प्रत्यक्ष प्रशासन के तहत एक ठोस राजनीतिक इकाई में परिवर्तित कर दिया, उन्होंने दक्खन, सीमांत राज्यों और जनजातीय क्षेत्रों को अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ के साथ उन पर एक निश्चित प्रभाव के साथ रखा।

समुद्रगुप्त भारत के नेपोलियन –

उपाधियां की बात करे तो समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता था। कला इतिहासकार और स्मिथ ने उनकी जित के लिए भारत के नेपोलियन के रूप में संदर्भित किया है। माना की कई अलग इतिहासकार इस तथ्य को कोय नहीं मानते थे, लेकिन नेपोलियन की तरह वह कभी पराजित नहीं हुये न ही निर्वासन या जेल में गये थे। उन्होंने 380 ईस्वी से अपनी मृत्यु तक गुप्त राजवंश पर शासन किया। 

समुद्रगुप्त की मुत्यु –

महाराजा समुद्रगुप्त की मृत्यु कब हुई ? और samudragupta death को लेकर कोय ज्ञात जानकारी मिलती नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता हे की उनकी शासनावधि ल. 335/350-380 तक की माने जाती है उन्होंने 380 ईस्वी से अपनी मृत्यु तक गुप्त राजवंश पर शासन किया।

Samudragupta Facts –

  • गुप्त काल को स्वर्ण युग क्यों कहते हैं ?
  • भारतीय के इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग माना गया है क्यों की गुप्तकाल में भारतीय विज्ञान से लेकर साहित्य, स्थापत्य तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में नये प्रतिमानों की स्थापना की गई जिससे यह काल भारतीय इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के रूप में जाना गया।
  • समुद्रगुप्त का शासनकाल भारत के लिये सोने का ( स्वर्णयुग ) की शुरूआत कही जाती है
  • समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेवअपनी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। 
  • यूरोप का समुद्रगुप्त कौन था (who was samudragupta) बहरहाल समुद्रगुप्त के पराक्रम और विजय अभियानों के कारण कुछ लोग उनकी तुलना नेपोलियन से करते हैं और इसी आधार पर नेपोलियन को यूरोप का समुद्रगुप्त कहा जा सकता है। 

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Samudragupta Question –

1 .गुप्त वंस के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कोन थे ?

पूर्ववर्ती चन्द्रगुप्त प्रथम  ,उत्तरवर्ती चन्द्रगुप्त द्वितीय या रामगुप्त है। 

2 .भारतीय इतिहास में कौन सा काल स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है ?

भारतीय इतिहास में गुप्त काल को स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है

3 .समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का मुख्य उद्देश्य क्या था ?

समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का मुख्य उद्देश्य भारत में राष्ट्रीय एकता की स्थापना करना था। 

4 .समुद्रगुप्त ने कब तक शासन किया ?

समुद्रगुप्त ने करिबन (राज 335/350-380)

5 .गुप्त वंश का अन्तिम शासक कौन था ?

कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।

6 .गुप्त वंश के बाद कौन सा वंश आया ?

गुप्तों के पतन के बाद हूण, मौखरि, मैत्रक, पुष्यभूति और गौड का शाशन आया। 

7 .कौन सा ग्रंथ गुप्त काल में रचा गया ?

हितोपदेश व पंचतंत्र की रचना भी गुप्त काल में हुई है

8 .दक्षिण में समुद्रगुप्त की नीति क्या थी ?

उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया

9 .समुद्रगुप्त ने कलिंग पर कब आक्रमण किया था ?

समुद्रगुप्त ने कलिंग पर 350 – 418 ई. में आक्रमण किया था

10.गुप्त काल का सबसे प्रसिद्ध वेद कौन था ?

इतिहास का सर्वप्रमुख स्त्रोतअभिलेख है। जिसे ‘प्रयाग-प्रशस्ति’ कहा जाता है।

11 .गुप्त काल की सबसे प्रसिद्ध स्त्री शासिका कौन थी  ?

गुप्त काल की सबसे प्रसिद्ध स्त्री शासिका प्रभावती गुप्त थी

12 .समुद्रगुप्त का दूसरा नाम क्या था ?

समुद्रगुप्त का दूसरा नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है

13 .समुद्र्गुप्त के माता -पिता का नाम क्या था ?

समुद्र्गुप्त के पिता का नाम चन्द्रगुप्त प्रथम था और माता का नाम कुमारादेवी था

14 .समुद्रगुप्त का दरबारी कवि कौन था ?

समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिसेन था

15 .समुद्रगुप्त का पुत्र कौन है ?

समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय था

16 .समुद्रगुप्त की पत्नी कौन है ?

समुद्रगुप्त की पत्नी दत्तदेवी थी

17 .समुद्र्गुप्त का घराना क्या था ?

समुद्र्गुप्त का घराना गुप्त राजवंश था। 

Conclusion –

आपको मेरा Samudragupta Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये samudragupta father और samudragupta empire map से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

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Nepolian Bona Part Biography In Hindi - नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

Nepolian Bona Part Biography In Hindi | नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Nepolian bona part Biography In Hindi में विश्व के महान सेनापति पूरी दुनिया में एकछत्र शासन स्थापित करने वाले नेपोलियन बोनापार्ट सम्राट की जीवनी बताने वाले है। 

18 मई 1804 से 6 अप्रैल 1814 तक सम्राट रहने वाला नेपोलियोनि दि बोनापार्टे 11 नवम्बर 1799 से 18 मई 1804 तक फ्रान्स की क्रान्ति में प्रथम कांसल के रूप में शासक रहे थे। उसकी कार्य कुशलता इस तरह की थी कि पूरी दुनिया आज भी उन्हें उनके अद्भुत युद्ध कौशल के लिए याद करती है ,उनकी युद्धकौशल का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विरोधी उनकी ख्याति से इतना घबरा गए कि उन्हें मारने के लिए ज़हर दे दिया था। आज nepolian bona part in hindi history में आपको nepolian bona part quotes in hindi , what did napoleon do ? और napoleon bonaparte french revolution की कहानी बताने वाले है।

आज हम बात कर रहे है विश्व के महान विजेताओं में से एक नेपोलियन बोनापार्ट की ,आज हम आपको Nepolian bona part history in hindi बताते है। nepolian bona part thoughts बहुत ऊँचे हुआ करते थे उन्होंने एक विचार करलिया था की उनका शाशन पुरे विस्व पर चले सके तो चलिए उस महान व्यक्ति के व्यक्तित्व से आप सबको रूबरू करवाते है। 

Nepolian Bona Part Biography In Hindi –

नाम

नेपोलियन बोनापार्ट

जन्म

15 अगस्त 1769

जन्म स्थान

कोर्सिका के अजियाको में

पिता

कार्लो बोनापार्ट

माता

लेटीजिए रमोलिनो

विवाह

जोसेफीन , मैरी लुईस

पत्नि

जोसेफीन , मैरी लुईस

मृत्यु

1821

मृत्यु का कारण 

पेट का कैंसर

नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी –

 nepolian bona part date of birth15 अगस्त 1799 केको कोर्सिका के अजियाको में हुआ था।

नेपोलियन फ्रैजस, फ्रांस में उतरा, जहां उन्होंने फ्रांसीसी निर्देशिका, फ्रांस के अलोकप्रिय शासी निकाय को उखाड़ने में मदद की।

उन्हें नए स्थापित फ्रांसीसी वाणिज्य दूतावास में पहली कांसुल का नाम दिया गया था।

1800 में, उन्होंने अपनी सेना का नेतृत्व इटली में किया, जहां उन्होंने ऑस्ट्रियाई लोगों को हराया

और इटली को फ्रांसीसी नियंत्रण में लाया।

nepolian bona part ने फ्रेंच और रोमन कैथोलिक के बीच सद्भाव बहाल किया।

शिक्षा के पुनर्गठन के माध्यम से फ्रांस में सुधार की स्थिति, बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना की थी।

नेपोलियन संहिता को शुरू करने से फ्रांस के कानूनी प्रणाली में सुधार किया।

नेपोलियन ने सरकार को केंद्रीकृत करके क्रांति के बाद फ्रांस की स्थिरता को बहाल करने,

बैंकिंग प्रणाली जैसे सुधार संस्थानों और विज्ञान और कला का समर्थन करने के लिए काम किया।

Nepolian bona part photo
Nepolian bona part photo

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Nepolian Bona Part कौन था – 

नेपोलियन बोनापार्ट कौन था ? नेपोलियन शासन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक नेपोलियन संहिता थी, जो एक यूरोपीय कानून में नागरिक कानून प्रणाली के साथ स्थापित होने वाला पहला कानूनी कोड था। नेपोलियन संहिता यूरोपीय सीमाओं से परे देशों को प्रभावित करती थी क्योंकि नेपोलियन युद्धों के दौरान और बाद में बनाए गए कई देशों के कानूनों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा था।

nepolian bona part संहिता, कानूनों और लोगों के साथ विवाह, नागरिक अधिकार, अभिभावक-बच्चे के रिश्तों, संपत्ति और स्वामित्व सहित, विवाह के माध्यम से विरासत, अन्य अधिकारों के साथ निपटा। नेपोलियन ने यह भी आग्रह किया कि यूरोप के क्षेत्रों में यहूदी को भूमि और संपत्ति के मालिक होने और आज़ादी से पूजा करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

यद्यपि यह रूढ़िवादी चर्च से निंदा करता था, उनका मानना ​​था कि धार्मिक स्वतंत्रता एक यहूदी आबादी को फ़्रांसिसी-नियंत्रित क्षेत्रों में आकर्षित करेगी, इस प्रकार यहूदियों के साथ फ्रेंच समाज को एकजुट करेगा। हालांकि 1805 में, ब्रिटिश सेना ने फ्रांसीसी नौसेना की ताकत को नष्ट कर दिया, नेपोलियन ऑस्ट्रेलित्ज़ के युद्ध में ऑस्ट्रिया और रूस को हराकर सक्षम था। 

नेपोलियन बोनापार्ट ने ब्रिटिश और प्रशियाई सेनाओं को हराया –

1806 में, उसकी सेना ने प्रशियाई सेना को नष्ट कर दिया जून 1807 में, रूसी नेता अलेक्जेंडर ने टिसिल में शांति बनाकर नेपोलियन को पश्चिम और मध्य यूरोप के पुनर्गठन के लिए स्वतंत्र बनाया था।इंग्लैंड को चोट पहुंचाने के प्रयास में, उन्होंने कॉन्टिनेंटल सिस्टम की शुरुआत की, जिसने यूरोपीय व्यापार से यूरोपीय महाद्वीपीय बंदरगाहों को अवरुद्ध किया, और अधिकतर यूरोपीय शक्तियों को निराश किया।

मित्र देशों ने अक्टूबर 1813 में लेपज़िग की लड़ाई में नेपोलियन की सेना को हराया, और नेपोलियन को एक छोटे द्वीप में एल्बा, को निर्वासित किया गया। वह फ्रांस में वापस जाने और सत्ता को फिर से स्थापित करने से पहले केवल तीन सौ दिन पहले ही रहे। 1815 में, वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन के शासन का विरोध करने के लिए यूरोपीय शक्तियों ने एक साथ शामिल हो गए।

18 जून 1815 को, neponline को ब्रिटिश और प्रशियाई सेनाओं ने हराया था, नेपोलियन को तीन दिन बाद ही पद छोड़ना पड़ा। नेपोलियन ने बाद में 3 जुलाई को ब्रिटिशों को आत्मसमर्पण किया और सेंट हेलेना के द्वीप पर निर्वासन में भेजा गया, जहां उनका कैंसर 5 मई, 1821 को हुआ।

Nepolian bona part image
Nepolian bona part image

नेपोलियन बोनापार्ट का जीवन परिचय – Nepolian Bona Part Kon Tha

15 अगस्त को कोर्सिका के अजियाको में नेपोलियन का जन्म हुआ था। कब्जे वाले फ्रांसीसी बलों ने द्वीप को चलाने के लिए इसे एक साल पहले जेनोआ से हासिल किया था। हालांकि स्थानीय मानकों से दूर, नेपोलियन के माता-पिता अमीर नहीं थे, और कुलीन वंश के उनके जोरदार दावे जांच के लिए खड़े नहीं हो पाए।

उनकी मां लेटिजिया और nepolian bona part father कार्लो कोर्सिका के पूंजीपति वर्ग का हिस्सा थे। एक बार फ्रांसीसी कब्जे के लिए कोर्सीकन के प्रतिरोध में शामिल होने के बाद, कार्लो ने फ्रांसीसी के साथ व्यक्तिगत शांति बना ली थी जब नेता पासक्वाले पाओली को भागने के लिए मजबूर किया गया था और शाही अदालत का मूल्यांकनकर्ता बन गया था। नेपोलियन के जन्म के संदर्भ में उनके उल्लेखनीय भविष्य पर संकेत दिया गया है।

नेपोलियन बोनापार्ट की शिक्षा –

वृद्ध नौ, नेपोलियन फ्रांस में स्कूल के लिए रवाना हुए। वह एक बाहरी व्यक्ति था, अपने नए घर के रीति-रिवाजों और परंपराओं में उलझा हुआ था।हमेशा सेना के लिए किस्मत में, नेपोलियन को पहले शिक्षित किया गया था, संक्षेप में, ऑटुन में, फिर पेरिस में सैन्य अकादमी में अंतिम वर्ष से पहले बेरेन में पांच साल। उन्होंने सितंबर 1785 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसमें 58 की संख्या में 42 वें स्थान पर थे।

यह तब था जब वह पेरिस में थे कि नेपोलियन के पिता की मृत्यु हो गई, जिससे परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। अभी तक 16 नहीं, और यहां तक ​​कि सबसे बड़े बेटे भी नहीं थे, फिर भी यह नेपोलियन था जिसने परिवार के प्रमुख के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। वृद्ध नौ, नेपोलियन फ्रांस में स्कूल के लिए रवाना हुए। वह एक बाहरी व्यक्ति था, अपने नए घर के रीति-रिवाजों और परंपराओं में उलझा हुआ था।

Nepolian bona part image hd
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नेपोलियन बोनापार्ट का करियर- (Napoleon Bonaparte’s Career)

बाल्यवस्था में ही nepolian bona part family के भरण पोषण का उत्तरदायित्व कोमल कंधों पर आने के कारण उसे वातावरण की जटिलता अनुसार व्यवहार करने की कुशलता मिल थी। फ्रेंच क्रांति में उसका प्रवेश युगांतरकारी घटनाओं का संकेत दे रहा था। फ्रांस के विभिन्न वर्गों से संपर्क स्थापित करने में कोई संकोच या हिचकिचाहट नहीं थी।

उसने जैकोबिन दल में प्रवेश किया था। 20 जून के तुइलरिए के अधिकार के अवसर पर उसे घटनाओं से प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। फ्रांस के राजतंत्र की दुर्दशा का उसे पूर्ण ज्ञान हो गया था। यहीं से नैपोलियन के विशाल व्यक्तित्व का आविर्भाव हुआ। nepolian bona part के उदय तक फ्रेंच क्रांति पूर्ण अराजकता में परिवर्तित हो चुकी थी। जैकोबिन और गिरंडिस्ट दलों की प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य के परिणाम स्वरूप ही  ‘आतंक का शासन’ संचालित किया गया था। 

जिसमें एक एक करके सभी क्रांतिकारी यहाँ तक कि स्वयं राब्सपियर भी मार डाला था।

1793 में टूलान के घेरे में नैपोलियन को प्रथम बार अपना शौर्य एवं कलाप्रदर्शन का अवसर मिला था।

डाइरेक्टरी का एक प्रमुख शासक बैरास उसकी प्रतिभा से आकर्षित हो उठा।

 1795 में जब भीड़ कंर्वेशन को हुई थी।  तो डाइरेक्टरी द्वारा विशेष रूप से आयुक्त होने पर नैपोलियन ने कुशलतापूर्वक कंवेंशन की रक्षा की और संविधान को होने दिया। इन सफलताओं ने सारे फ्रांस का ध्यान नैपोलियन की ओर आकृष्ट किया।डाइरेक्टरी ने उसे इटली के अभियान का नेतृत्व दिया। 2 मार्च 1796 एक सप्ताह में उसने जोज़ेफीन से विवाह किया और  अपनी सेना सहित इटली में प्रवेश किया।

नेपोलियन बोनापार्ट राजा कैसे बने – (How did napoleon bonaparte become king)

आपको पता है की नेपोलियन बोनापार्ट ने 1904 में खुद को कहां का सम्राट घोषित किया ? नेपोलियन 16 साल का हुआ तब सेना के उच्च विभाग में नियुक्ति के लिए नेपोलियन का साक्षात्कार लिया गया जिसमे उनेक उत्तर सुनकर परीक्षक चकित रह गये | अब उन्हें तोपखाने की सेना में द्वितीय लेफ्टिनेट के पद मिल गया जिसमे आय भी थोड़ी ज्यादा थी | 1796 में उन्हें इटली की फ्रेंच सेना का कमांडर बना दिया गया

जहा उन्होंने आस्ट्रिया एव उसके मित्र राष्ट्रों को शान्ति कायम करने के लिए विवश किया | 1788 में उन्होंने ओटोमन द्वारा शाषित मिश्र को जीत लिया था |अब फ़्रांस एक नये संकट से झुझ रहा था जब आस्ट्रिया व् रूस , ब्रिटन के साथ मैत्री कर चुके थे | उधर तरफ नेपोलियन पेरिस लौट आ ये थे जहा सरकार संकट में थी |1799 में nepolian bona part को उनको फ़्रांस का वाणिज्यदूत चुना गया और 1804 में नेपोलियन को फ़्रांस का सम्राट घोषित किया गया। 

अब सरकार में आते ही नेपोलियन ने सरकार के केन्द्रीकरण , बैंक ऑफ़ फ्रांस के निर्माण , रोमन कैथोलिक धर्म की पुन: प्रतिष्ठा और कोड नेपोलियन की सहायता से कानून व्यस्व्स्था को दुरुस्त किया था| 1800 में नेपोलियन ने आस्ट्रिया को पराजित कर दिया था | उन्होंने एक जनरल यूरोपीयन शान्ति समझौता किया जिससे पुरे महाद्वीप पर फ्रेच सत्ता स्थापित हो गयी थी |

Images for nepolian bona part
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Nepolian Bona Part Marriage – (नेपोलियन बोनापार्ट का विवाह)

नेपोलियन ने अपनी प्रथम पत्नी ‘जोसेफ़िन’ के निस्संतान रहने पर ऑस्ट्रिया के सम्राट की पुत्री ‘मैरी लुईस’ से दूसरा विवाह किया। जिससे उसे संतान प्राप्त हुई थी और पिता बन सका।

नेपोलियन बोनापार्ट ने कितने युद्ध किये थे – (How many wars did napoleon bonaparte)

nepolian bona part जब तक सत्ता में रहा युजिन रहारा यूरोप त्रस्त था। इन युद्धों को सम्मिलित रूप से नेपोलियन के युद्ध कहा जाता है। 1803 से लेकर 1819 तक कोई साठ युद्ध उसने लड़े थे जिसमें से सात में उसकी पराजय अपने अन्तिम दिनों में। इन युद्धों के फलस्वरूप यूरोपीय सेनाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। परम्परागत रूप से इन युद्धों को 1972 में फ्रांसीसी क्रांति के समय शुरू हुए क्रांतिकारी युद्धों की शृंखला में ही रखा जाता है। आरम्भ में फ्रांस की शक्ति बड़ी तेजी से बढ़ी और नैपोलियन ने यूरोप का अधिकांश भाग अपने अधिकार में कर लिया। 1892 में रूस पर आक्रमण करने के बाद फ्रांस का बड़ी तेजी से पतन हुआ।

फ्रांस और इंग्लैण्ड का युद्ध – (nepolian bona part war of France and England)

मई 1803 में फ्रांस और इंग्लैण्ड में परस्पर युद्ध छिड़ गया।

नेपोलियन ने इटली के पीडमांड राज्य को फ्रांस में सम्मिलित कर लिया।

हालैण्ड को अपने अधिकार में करके वहां के एण्टवर्प बंदरगाह को जल सेना के लिए विस्तृत करना प्रारंभ कर दिया।

उसके ये कार्य इंग्लैण्ड के हितों के विरूद्ध थे, इसलिए 18 मई 1803 को इंग्लैण्ड ने फ्रांस के विरूद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

Nepolian Bona Part
Nepolian Bona Part

ट्रफलगार युद्ध –

21 अक्टूबर 1805 को फ्रांस और स्पेन की संयुक्त जल सेना और नेलसन के नेतृत्व वाली अंग्रेज जलसेना के मध्य ट्रफलगार के समीप समुद्र में भयंकर युद्ध हुआ। इसे ट्रफलगार का युद्ध कहते हैं।  यद्यपि इस युद्ध में नेलसन वीरगति को प्राप्त हुआ, पर इंग्लैण्ड की जलसेना ने फ्रांस और स्पेन की संयुक्त जल सेना को ट्रफलगार के युद्ध में परास्त कर दिया। फ्रांस की इस पराजय से नेपोलियन द्वारा समुद्र की ओर से इंग्लैण्ड पर आक्रमण करने का भय समाप्त हो गया।

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फ्रांस और आस्ट्रिया के बिच युद्ध – (War between France and Australia)

nepolian bona part ने मेक के सेनापतित्व में आस्ट्रिया की सेना पर आक्रमण कर उसे 20 अक्टूबर 1805 के उल्म के युद्ध में परास्त कर दिया। इस विजय के बाद नेपालियन ने वियना पर अधिकार कर लिया। आस्ट्रिया का शासक फ्रांसिस द्वितीय वियना छोड़कर पूर्व की ओर चला गया।

नेपोलियन बोनापार्ट
नेपोलियन बोनापार्ट

ऑस्टरलिट्ज युद्ध – (Austerlitz war)

नेपोलियन ने रूस और आस्ट्रिया की संयुक्त सेनाओं को अक्टूबर 1805 को आस्टरलिट्ज के युद्ध में परास्त कर दिया।

यह विजय नेपोलियन की महत्वपूर्ण विजयों में से थी।

रूस ने इस पराजय के बाद अपनी सेनाएँ पीछे हटा लीं और आस्ट्रिया ने नेपोलियन के साथ

26 दिसम्बर 1805 ई. को प्रेसवर्ग की संधि कर ली। 

फ्रांस और रूस के बिच युद्ध – (War between France and Russia)

नेपोलियन के विरूद्ध जो तीसरा गुट (थर्ड कोलिएशन) निर्मित हुआ था उसमें अब इंग्लैण्ड और रूस ही शेष बचे थे,

बाकी सदस्य देश नेपोलियन के हाथों परास्त हो चुके थे। नेपोलियन रूस की ओर आगे बढ़ा था।

8 जनवरी 1807 को आइलो नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ।

14 जून 1807 को फ्रीडलैण्ड के युद्ध में नेपोलियन ने रूस को परास्त कर दिया।

पराजय के बाद रूस के सम्राट जार एलेक्जेंडर ने नीमेन नदी में शाही नाव में नेपोलियन से भेंट की।

इस अवसर पर नेपोलियन ने अपने आकर्षक प्रभावशाली व्यक्तित्व और मधुर शिष्टाचार से जार को प्रसन्न कर लिया।

अंत में टिलसिट नगर में फ्रांस, रूस और प्रशास के प्रतिनिधियों में टिलसिट की संधि हो गई।

नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी
नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

Nepolian Bona Part की हार कब हुई –

नेपोलियन बोनापार्ट ने 60 युद्धों में भाग लिया जिसमें से केवल सात में हार का सामना किया। जो उनके पतन के समय थे।

वर्ष 1812 में नेपोलियन द्वारा रूस पर आक्रमण के पश्चात फ़्रांसीसी प्रभुत्व का तेजी से पतन हो गया।

1894 मे नेपोलियन की हार और 1895 में वाटरलू के युद्ध में पूर्ण रूप से हार गये।

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नेपोलियन बोनापार्ट की मृत्यु – 

फ़्रांस के सम्राट nepolian bona part की मौत को लेकर तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं।

लेकिन अधिकांश इतिहासकार ये मानते हैं कि उनकी मौत का कारण पेट का कैंसर था।

वॉटरलू की लड़ाई में हार जाने के बाद नेपोलियन को 1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप निर्वासित कर दिया गया था।

जहाँ 52 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। 

लेकिन सन 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके पाया कि उसमें आर्सनिक नामक ज़हर था।

ये कहा गया कि संभवत सेन्ट हैलेना के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने फ़्रांस के काउंट के

साथ मिलकर नेपोलियन की हत्या की साज़िश रची।

फिर अमरीकी वैज्ञानिकों ने बिल्कुल ही अलग व्याख्या की थी।

उन्होंने कहा कि नेपोलियन की बीमारी का जो उपचार किया गया उसी ने उन्हें मार दिया। 

उन्हें नियमित रूप से पोटेशियम टार्ट्रेट नामक ज़हरीला नमक दिया जाता था।

जिससे वो उलटी कर सकें और ऐनिमा लगाया जाता था। 

इससे उनमें पोटेशियम की कमी हो गई जो कि दिल के लिए घातक होती है।

नेपोलियन को उनकी आंतों की सफ़ाई के लिए 600 मिलिग्राम मरक्यूरिक क्लोराइड दिया गया।

और दो दिन बाद nepolian bona part death हो गई। 

Nepolian Bona Part Video – (नेपोलियन बोनापार्ट वीडियो)

Nepolian Bona Part Facts – नेपोलियन बोनापार्ट के रोचक तथ्य

  • नेपोलियन का जन्म 15 अगस्त को कोर्सिका के अजियाको में हुआ था। 
  • पेरिस में सैन्य अकादमी में  सितंबर 1785 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसमें 58 की संख्या में 42 वें स्थान पर थे।
  • नेपोलियन बोनापार्ट ने 60 युद्धों में भाग लिया जिसमें से केवल सात में हार का सामना किया था। 
  • 1812 में नेपोलियन द्वारा रूस पर आक्रमण के पश्चात फ़्रांसीसी प्रभुत्व का तेजी से पतन हो गया। 
  • मेक के सेनापतित्व में आस्ट्रिया की सेना पर आक्रमण कर
  • उसे 20 अक्टूबर 1805 के उल्म के युद्ध में परास्त कर दिया।
  • 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके कहाकी उसमें आर्सनिक नामक ज़हर था। 
  • नेपोलियन रूस की और 8 जनवरी 1807 को आइलो नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में
  • भीषण लड़ाई हुई एव रूस को परास्त कर दिया।
  • पेरिस में सैन्य अकादमी में अंतिम वर्ष से पहले बेरेन में पांच साल नेपोलियन ने सितंबर 1785 में स्नातक  हुए थे। 
  • नेपोलियन को उनकी आंतों की सफ़ाई के लिए 600 मिलिग्राम मरक्यूरिक क्लोराइड दिया गया था। 
  • वॉटरलू की लड़ाई में हार जाने के बाद नेपोलियन 1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप निर्वासित किया।
  • जहाँ 52 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। 
Nepolian Bona Part Biography
Nepolian Bona Part Biography

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Nepolian Bona Part FAQ – (नेपोलियन बोनापार्ट प्रश्न)

1. nepolian bona part kahan parajit hua ?

1894 मे नेपोलियन की हार और 1895 में वाटरलू के युद्ध में पूर्ण रूप से हार गये।

2 .नेपोलियम बोनापार्ट के माता-पिता कौन है ?

नेपोलियम बोनापार्ट के पिता का नाम कार्लो और माता का नाम लेटिजिया है। 

3 .नेपोलियम बोनापार्ट को फ़्रांस का सम्राट कब घोषित किया था ?

nepolian bona part को  1804 में फ़्रांस का सम्राट घोषित किया गया। 

4 .नेपोलियम बोनापार्ट ने कितने युद्ध लड़े थे?

राजा नेपोलियम बोनापार्ट ने करीबन 60 युद्ध लडे थे। 

5 .नेपोलियम बोनापार्ट ने 60 युद्धों में से कितने युद्ध हार गया था ?

60 युद्धों में 7 युद्ध में नेपोलियम बोनापार्ट को पराजय का सामना करना पड़ा था। 

6 .सन 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल के परीक्षण में क्या पाया गया है ?

2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके पाया कि उसमें आर्सनिक ज़हर था। 

7 .नेपोलियम बोनापार्ट ने कब रूस को परास्त किया था ?

14 जून 1807 को फ्रीडलैण्ड के युद्ध में नेपोलियन ने रूस को परास्त कर दिया।

8 .नेपोलियम बोनापार्ट ने अंतिम युद्ध कौनसा लड़ा था ?

अंतिम वॉटरलू की लड़ाई लड़ी ,उसमे नेपोलियम को हार का सामना करना पड़ा था। 

9 .नेपोलियम बोनापार्ट की वाइफ कौन थी ?

 जोसेफ़िन’ और ‘मैरी लुईस’ नेपोलियन की पत्नी थी। 

10 .नेपोलियम बोनापार्ट का अवसान कब हुवा था ?

1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप पर  नेपोलियन की 52 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई। 

11 .नेपोलियम बोनापार्ट का जन्म कब और कहा हुवा था ?

15 अगस्त 1769 कोर्सिका के अजियाको में नेपोलियन का जन्म हुआ था।

Conclusion –

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नेपोलियन बोनापार्ट के अनमोल विचार, नेपोलियन बोनापार्ट का इतिहास, नेपोलियन बोनापार्ट के उदय के कारण और नेपोलियन के पतन का कारण की विस्तृत चर्चा हमने बताई है। 

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल napoleon bonaparte biography In Hindi पूरी तरह से समज आ गया होगा और बहुत पसंद भी आया होगा । इस लेख के जरिये  हमने how did napoleon die ? ,who was napoleon bonaparte और empress josephine से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Biography of Rana Ratan Singh in Hindi - राणा रतन सिंह की जीवनी हिंदी में

Rana Ratan Singh Biography In Hindi | राणा रतन सिंह की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे आर्टिकल में आपका स्वागत है ,आज हम Rana Ratan Singh Biography In Hindi में गुहिल वंश चित्तौड़गढ़ के महान प्रतापी महाराजा जो अपनी राजपूताना बहादुरी के लिए पहचाने जाने वाले राणा रतनसिंह का जीवन परिचय बताने वाले है।

तेरहवीं शताब्दी की शुरुआती वर्षो में चित्तौर की राजगद्दी सँभालने वाले बप्पा रावल के गुहिलौत वंश के अंतिम शासक और रावल समरसिंह के पुत्र रावल रत्नसिंह थे। उनका राज्याभिषेक 1301ई० में मानाजाता है। गुहिल वंश के वंशज रतनसिंह के वंश की शाखा रावल से सम्बंधित है , उन्होंने चित्रकूट के किले पर राज कीया था वह अब चित्तौड़गढ़ कहजता है ,रतन सिंह अपनी राजपूताना बहादुरी से पुरे विस्व  प्रसिद्ध हुए है।

आज हम Maharana ratan singh wife पद्मिनी ,rana ratan singh son name और rana ratan singh family tree से जुडी सभी माहिती से आपको महितगार कराने वाले है। राणा रतनसिंह के शासनकाल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखी गई कविता ‘पद्मावती’ में मिलती है। मोहम्मद जायसी ने ये कविता सन् 1540 में लिखी थी। राजस्थान के महान प्रतापी राजा राणा रतन सिंह के कितने पुत्र थे ? रतन सिंह का खेड़ा किसे कहते है जैसे कई सवालों के जवाब आज की पोस्ट में सबको मेवाड़ का इतिहास बताने वाले है। 

Rana Ratan Singh Biography In Hindi –

नाम रावल रतन सिंह
जन्म 13 वीं सदी के मध्य (मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत के अनुसार)
जन्म स्थान चित्तौड़, (वर्तमान में चित्तौड़गढ़) राजस्थान
पिता समरसिह
पत्नी रानी पद्मिनी
धार्मिक मान्यता हिन्दू धर्म 
राजधानी चित्तौड़गढ़
राजघराना राजपूत (चित्तोड़ का इतिहास)
वंश  गुहिलौत राजवंश
मृत्यु 14 वीं शताब्दी (1303) के प्रारम्भ में (मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत के अनुसार)

राणा रतन सिंह की जीवनी –

रावल रतन सिंह का जन्म 13वी सदी के अंत में हुआ था ,उनकी जन्म तारीख इतिहास में कही उपलब्ध नही है , रतनसिंह राजपूतो की रावल वंश के वंशज थे। जिन्होंने चित्रकूट किले (चित्तोडगढ) पर शासन किया था , रतनसिंह ने 1302 ई. में अपने पिता समरसिंह के स्थान पर गद्दी सम्भाली , जो मेवाड़ के गुहिल वंश के वंशज थे , रतनसिंह को राजा बने मुश्किल से एक वर्ष भी नही हुआ कि अलाउदीन ने चित्तोड़ पर चढाई कर दी , और तो और वह घेरा से सुल्तान ने 6 महीने तक इनके किले पर अधिकार जमाया था।

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राणा रतनसिंह का प्रारंभिक जीवन –

छ महीने तक घेरा करने के बाद सुल्तान ने दुर्ग पर अधिकार तो कर लिया ,लेकिन इस जीत के बाद एक ही दिन में 30 हजार हिन्दुओ को बंदी बनाकर उनका संहार किया गया | जिया बर्नी तारीखे फिरोजशाही में लिकता है कि 4 महीने में मुस्लिम सेना को भारी नुकसान पहुचा था। अपने पिता समर सिंह की मुत्यु के बाद रतन सिंह ने राजगद्दी पर 1302 सीई. में अपने राज्य की भागदौड़ अपने हाथ लेली और उस पर उन्होंने 1303 सीई तक शासन किया था।  1303 सीई में दिल्ली सल्तनत के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने उन्हें पराजित कर उनकी गद्दी पर कब्जा कर लिया था। 

रानी पद्मिनी से विवाह – Ratan Singh

रावल समरसिंह के बाद रावल रतन सिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रावल रतन सिंह का विवाह रानी पद्मिनी के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी के रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। रतन सिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी थी। 

अलाउद्दीन ख़िलज़ी और पद्मिनी –

राणा रतन सिंह का इतिहास देखे तो उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रतनसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि हमारे साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहते हे , रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।”

रतनसिंह ख़िलज़ी का यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि मेरे खातिर चित्तोड़ के किसी भी सैनिक का रक्त नहीं बहाना चाहिए ,रानी को अपनी नहीं पूरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।

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ख़िलजी और रतन सिंह की लड़ाई –

Rana rawal ratan singh जयपुर में हिस्ट्री के प्रोफेसर राजेंद्र सिंह खंगरोट बताते हैं कि ‘ अलाउद्दीन ख़िलजी और Maharawal ratan singh के टकराव को अलग करके नहीं देखा जा सकता ये सत्ता के लिए संघर्ष था जिसकी शुरुआत मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच साल 1191 में होती है। जयगढ़, आमेर और सवाई मान सिंह पर किताब लिख चुके खंगरोट ने कहा, ”तुर्कों और राजपूतों के बीच टकराव के बाद दिल्ली सल्तनत और राजपूतों के बीच संघर्ष शुरू होता है। इनके बाद ग़ुलाम से शहंशाह बने लोगों ने राजपुताना में पैर फैलाने की कोशिश की थी। 

कुत्तुबुद्दीन ऐबक अजमेर में सक्रिय रहे. इल्तुत्मिश जालौर, रणथंभौर में सक्रिय रहे , बल्बन ने मेवाड़ में कोशिश की, लेकिन कुछ ख़ास नहीं कर सके। उन्होंने कहा कि संघर्ष पहले से चल रहा था और फिर ख़िलजी आए जिनका कार्यकाल रहा 1290 से 1320 के बीच. ख़िलजी इन सब में सबसे महत्वाकांक्षी माने जाते हैं। चित्तौड़ के बारे में साल 1310 का ज़िक्र फ़ारसी दस्तावेज़ों में मिलता है जिनमें साफ़ इशारा मिलता है कि ख़िलजी को ताक़त चाहिए थी और चित्तौड़ पर हमला राजनीतिक कारणों की वजह से किया गया था। 

ऐतिहासिक उल्लेख –

Rana Ratna singh अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहास लेखक की स्थिति से न तो ‘तारीखे अलाई’ में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र ख़ाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा ‘मसनवी खिज्र ख़ाँ’ में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत ‘पद्मावत की रचना की हुई है।

70 वर्ष पश्चात् सन् 1610 में ‘पद्मावत’ के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। गौरीशंकर हीराचंद ओझा का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फ़रिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यही है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रतनसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी थी। 

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राजा रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी का युद्ध –

चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन ख़िलज़ी की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने अमीर खुसरव के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर और ‘पद्मावत की कथा’ के आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपम सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है। 28 जनवरी, 1303 ई. को अलाउद्दीन ख़िलज़ी का चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार हो गया था । राणा रतन सिंह युद्ध में शहीद हुआ और उसकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया।

क़िले पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर ‘ख़िज़्राबाद’ रखा और ख़िज़्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया। चित्तौड़ को पुन स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने ख़िज़्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया। 

चित्तोडगढ की घेराबंदी –

Raja Rawal ratan singh history in hindi देखे तो 28 जनवरी 1303 को अलाउदीन की विशाल सेना चित्तोड़ की ओर कुच करने निकली। किले के नजदीक पहुचते ही बेडच और गम्भीरी नदी के बीच उन्होंने अपना डेरा डाला था ,अलाउदीन की सेना ने चित्तोडगढ किले को चारो तरफ से घेर लिया। अलाउदीन खुद चितोडी पहाडी के नजदीक सब पर निगरानी रख रहा था। करीब 6 से 8 महीन तक घेराबंदी चलती रही। खुसरो ने अपनी किताबो में लिखा है कि दो बार आक्रमण करने में खिलजी की सेना असफल रही थी। 

जब बरसात के दो महीनों में खिलजी की सेना किले के नजदीक पहुच गयी लेकिन आगे नही बढ़ सकी थी ,तब अलाउदीन ने किले को पत्थरों के प्रहार से गिराने का हुक्म दिया था। 26 अगस्त 1303 को आखिरकार अलाउदीन किले में प्रवेश करने में सफल रहा था ,जीत के बाद खिलजी ने चित्तोडगढ की जनता के सामूहिक नरसंहार का आदेश दिया था। 

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Ratan Singh Death (राणा रतनसिंह की मृत्यु)

जायसी द्वारा लिखी गई ‘पद्मावती’ के अनुसार रतन सिंह को वीरगति अलाउद्दीन खिलजी के हाथों मिली थी. जो उस समय दिल्ली की राजगद्दी का सुल्तान था , किताब के मुताबिक राजा रतन सिंह के राज्य दरवारियों में राघव चेतन नाम का संगीतिज्ञ था ,एक दिन रतन सिंह को राघव चेतन के काला जादू करने की सच्चाई पता चली तो उन्होंने राघव को गधे पर बैठाकर पूरे राज्य में घुमाया ,अपनी इस बेइज्जती से गुस्साए राघव ने दिल्ली के सुलतान के जरिये बदला लेने की साजिश रची थी। 

राघव ने अपने गलत मंसूबों को कामयाब करने के पद्मावती के सौन्दर्य के बारे में खिलजी को बताया ,पद्मावती की सुंदरता का गुणगान सुन खिलजी ने उन्हें हासिल करने की ठान ली थी। रानी पद्मावती को पाने के लिए खिलजी ने सबसे पहले दोस्ती करने का तरीका रतन सिंह पर आजमाया और रतन सिंह के सामने उनकी पत्नी पद्मावती को देखने की अपनी ख्वाहिश भी बताई थी। रतन सिंह ने भी खिलजी की इस ख्वाहिश को मान लिया और रानी पद्मावती के चेहरे की छवि को आईने के जरिए खिलजी को दिखा दिया। हालांकि रानी पद्मावती रतन सिंह के इस फैसले से नाखुश थी। 

रानी पद्मावती का आत्मदाह – Padmavati story hindi

  • चित्तौड़गढ़ का इतिहास  देखे  तो एक पत्नी का धर्म निभाते हुए उन्होंने
  • रतन सिंह की ये बात अपनी कुछ शर्तों के साथ मान ली थी।
  • वहीं रानी की खूबसूरती की झलक देखकर खिलजी ने उनको पाने के लिए।
  • अपने सैनिकों की मदद से राजा रावल को उन्हीं के महल से तुरंत अगवा कर लिया था।
  • जिसके बाद राजा रतन सिंह को किसी तरह  सिपाहियों ने खिलजी की कैद से मुक्त करवाया था। 
  • खिलजी ने रतन सिंह के उनकी कैद से आजाद होने के बाद
  • रतन सिंह के किले पर हमलाकर किले को चारों ओर से घेर लिया था। 
  • किले को बाहर से कब्जा करने के कारण कोई भी चीज ना तो
  • किले से बाहर जा सकती थी ना ही किले के अंदर आ सकती थी।
  • वहीं धीरे-धीरे किले में रखा हुआ खाने का सामान भी खत्म होने लगा था।
  • अपने किले में बिगड़ते हुए हालातों को देखते हुए।
  • रतन सिंह ने किले से बाहर निकल बहादुरी से खिलजी से लड़ाई का फैसला किया।
  • रावल रतन सिंह का इतिहास देखे तो राणा रतन सिंह का युद्ध अंतिम था। 
  • वहीं जब खिलजी ने युद्ध में राजा को हरा दिया तो उनकी पत्नी रानी पद्मावती ने
  • अपने राज्यों की कई औरतों समेत जौहर (आत्मदाह) किया था। 

Rana Ratan Singh History in Hindi Video –

Rawal Ratan Singh Biography in Hindi

Rana Ratan Singh Facts

  • इतिहासकारों शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर
  • और ‘पद्मावत की कथा’ के  आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के
  • आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपम सौन्दर्य के
  • प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है।
  • राणा रतनसिंह के शासनकाल के बारे में ज्यादा जानकारी मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा
  • लिखी गई कविता ‘पद्मावती’ में मिलती है
  • अलाउद्दीन ख़िलज़ी राणा रतनसिंह की महारानी  पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा था। 
  • उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी थी।
  • राजा रतनसिंह वीरगति होने के बाद उस की स्वरुपवान रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के
  • साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी थी।  

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राणा रतनसिंह के प्रश्न –

1 .अलाउद्दीन खिलजी को किसने मारा था ?

अलाउद्दीन के नाजायज संबंध थे वह मलिक काफूर ने ही खिलजी को जहर देकर मार दिया था। 

2 .मेवाड़ का शासक कौन था ?

राजा रतन सिंह राजस्थान मेवाड़ के राजा थे जिन्हे गुहिल वंश

की रावल शाखा के अंतिम शासक कहे जाते है। 

3 .रतन सिंह के पिता का नाम क्या था ?

राजा रतन सिंह के पिताजी का नाम समरसिह था। 

4 .रतन सिंह की पत्नी का क्या नाम था ?  

रतन सिंह  का नाम पद्मिनी और उन्हें ने स्वयंवर में रानी पद्मिनी से शादी की थी। 

5 .राजा रतन सिंह की कितनी पत्नियां थीं ?

राजा रतन सिंह की पंद्रह पत्नी थी। 

Conclusion –

आपको मेरा Rana Ratan Singh Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने Ratan singh jodha, राणा रतन सिंह वाइफ और

Rana ratan singh son से सम्बंधित जानकारी दी है।

कोई अभिनेता या जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।

तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास रतन सिंह राजपूत की जानकारी या

Raja ratan singh history in hindi की कोई जानकारी हैं।

या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है।

तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद

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Biography of Maharaja Surajmal in Hindi - महाराजा सूरजमल की जीवनी

Maharaja Surajmal Biography In Hindi – महाराजा सूरजमल की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है ,आज हम Maharaja Surajmal Biography In Hindi में सबको भरतपुर के स्थापक और शाषक महाराजा सूरजमल का जीवन परिचय बताने वाले है। 

भरतपुर में उपस्थित लोहागढ़ किला देश का एकमात्र किला है, जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद्य रहा है । अपने पिता बदनसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा सूरजमल जाट 1756 ई. में भरतपुर राज्य का शासक बने थे। कुशाग्र बुद्धि और राजनैतिक कुशलता से उन्हें लोग जाटो के प्लेटों कहकर जानते थे। भरतपुर रियासत को स्थापित करने वाले महाराजा सूरजमल की गिनती भारत के सबसे शक्तिशाली शासक में हुआ करती थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1707 को हुआ था। 

आज हम महाराजा सूरजमल की कथा में maharaja surajmal institute ,maharaja surajmal height and weight और maharaja surajmal gotra से सम्बंधित जानकारी लेके आपको बताने की कोशिश करेंगे। ऐसा कहे तो कुछ गलत नहीं है की महाराजा सूरजमल का उपनाम प्लेटों था। महाराजा सूरजमल की वंशावली से जुडी सभी रोचक जानकारी और तथ्य बहुत चर्चित हुए है , महान राजा महाराजा सूरजमल शायरी बहुत पसंद थी ,तो चलिए शुरू करते है राजा की जीवन की कहानी बताते है। 

Maharaja Surajmal Biography In Hindi –

नाम  सूरजमल
जन्म  13 फरवरी 1707
पिता  बदन सिंह
माता  महारानी देवकी
पत्नी  महारानी किशोरी देवी
संतान  जवाहर सिंह,  नाहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह,  रंजीत सिंह
शासनावधि  1755 – 1763 AD
राज्याभिषेक  डीग, 22 May 1755

महाराजा सूरजमल की जीवनी –

महाराजा सूरजमल का जन्म maharaja surajmal birthday 13 फरवरी 1707 में हुआ था, यह इतिहास की वही तारीख है, जिस दिन हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम सबसे पहले आता है। महाराजा सूरजमल राजा बदनसिंह के बेटे थे। महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे। अट्ठारवीं शताब्दी को महाराजा सूरजमल का इतिहास की सबसे अस्थिर, उथल-पुथल से भरी और डांवाडोल शताब्दी माना जाता है। इस शताब्दी के जिस रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ,चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था वो महाराजा सूरजमल थे।

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महाराजा सूरजमल का प्रारंभिक जीवन  –

महाराजा सूरजमल अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक थे। महाराजा सूरजमल की सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे। मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया। महाराजा सूरजमल ने नजीबुद्दोला द्वारा अहमद शाह अब्दाली के सहयोग से भारत को मजहबी राष्ट्र बनाने को कोशिश को भी फैल कर दिया था। Maharaja Surajmal in hindi  में बतादे की अफगान सरदार असंद खान, मीर बख्शी, सलावत खां आदि को पराजित किया। 1757 में अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पहुच गया और उनकी सेना ने ब्रज के तीर्थ को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया था । 

उसको बचाने के लिए सिर्फ महाराजा सूरजमल ही आगे आये और उनके सैनिको ने बलिदान दिया। इसके बाद में अब्दाली वापस लौट गया। जब सदाशिव राव भाऊ अहमद शाह अब्दाली को पराजित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ रहा था, तभी खुद पेशवा बालाजी बाजीराव ने भाऊ को सुझाव दिया उत्तर भारत में मुख शक्ति के रूप में उभर रहे महाराजा सूरजमल का सम्मान कर उनके सुझाव पर ध्यान दिया जाए। परंतु भाऊ ने युद्ध सम्बन्धी इस सुझाव पर कोई ध्यान नही दिया और अब्दाली के हाथों पराजित हो गए थे। 

दिल्ली की लूट का खजाना –

सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे। Maharaja Surajmal के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी। यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे थे ।

सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया। मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है। 

महाराजा सूरजमल की दिल्ली लूट –

महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन् ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है।  इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया था। 

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मराठों की गतिविधियाँ –

जब ब्रज और उसके आस पास महाराजा सूरजमल का साम्राज्य था।

उसी समय मराठा पेशवाओं की सैनिक गतिविधियाँ भी तेज़ हो गयीं।

पेशवाओं की शक्ति का विस्तार दक्षिण से दिल्ली तक हो गया था।

और मुग़ल शासक भी भयभीत था।

ऐसे समय में सूरजमल को मुग़लों के साथ साथ मराठों से भी

अपने राज्य की रक्षा और अधिकार के लिए लड़ना पड़ा।

उसकी शक्ति धीरे धीरे क्षीण हो रही थी। 

Maharaj Surajmal की उदारता –

14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई थी । मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती थी | Maharaja Surajmal ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। 

जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें।

जाटवंश –

कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में ‘डांगे’ भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरयाणा में ‘दांगी’ भी उन्हीं की शाखा है। मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है। 

Maharaja Surajmal के जन्म से जुड़ा लोकगीत –

‘आखा’ गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी ,

धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी ,

भइयन को राख्यो राजी, और चाकी चहुं दिस नौबत बाजी। 

वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे।

महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे।

सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की

वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे। 

सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी। 

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अब्दाली के आक्रमण –

उस समय अहमदशाह अब्दाली ने देश पर हमला कर दिया था। 

मराठों ने उधर ध्यान नहीं दिया वे जाटों और राजपूतों से लड़कर कमज़ोर होते रहे।

मराठों ने जहाँ ख़ुद को कमज़ोर किया वहीं राजपूतों को भी कमज़ोर किया। 

और अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण करने का मौक़ा दे दिया ।

लूट के बाद का ब्रज –

अब्दाली की लूटमार सन् 1756−57 में हुई थी।

किसी ने भी लुटेरों का विरोध नहीं किया।

लुटेरे आये और दिल्ली से आगरा तक के ही समृद्धिशाली राज्य को लूट कर चले गये। 

औरंगजेब के अत्याचारों से सहमा ब्रजमंड़ल लम्बे समय तक संभल नहीं पाया।

ऐसी परिस्थिति में मराठा सरदार चुप्पी लगा गये।

और सूरजमल अपने क़िले में छिपा रहा।

इसके बाद अब्दाली ने कई हमले किये, जिनमें वह हमेशा कामयाब रहा था। 

पानीपत की लड़ाई –

सन 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा। मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक़ लेकर मराठों और जाटों ने संधि की; लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए। वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को ख़त्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे। इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये थे। 

भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया। मराठा सरदार को अपनी ताक़त पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की। युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हज़ार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हज़ार थीं। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ।

उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये। उस युद्ध में सैनिक बहुत संख्या में मारे गये। भरतपुर के ‘मथुरेश’ कवि ने इस स्थिति पर दु:ख जताते हुए कहा है। होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की थी । पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रुषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी।

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महाराजा सूरजमल के शौर्य गाथाएं –

Maharaja Surajmal का जयपुर रियासत के महाराजा जयसिंह से अच्छा रिश्ता था. जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में रियासत के वारिश बनने को लेकर झगड़ा शुरु हो गया। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह को रियासत का अगला वारिस बनाना चाहते थे, जबकि उदयपुर रियासत के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह को राजा बनाने के पक्ष में थे। इस मतभेद की स्थिति में गद्दी को लेकर लड़ाई शुरु हो गई. मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई. लड़ाई यहां पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। 

माधोसिंह मराठों, राठोड़ों और उदयपुर के सिसोदिया राजाओं के साथ मिलकर वापस रणभूमि में आ गया. ऐसे माहौल में राजा सूरजमल अपने 10,000 सैनिकों को लेकर रणभूमि में ईश्वरी सिंह का साथ देने पहुंच गये। सूरजमल को युद्ध में दोनों हाथो में तलवार ले कर लड़ते देख राजपूत रानियों ने उनका परिचय पूछा तब सूर्यमल्ल मिश्र ने जवाब दिया था ‘नहीं जाटनी ने सही व्यर्थ प्रसव की पीर,और जन्मा उसके गर्भ से सूरजमल सा वीर’ .

जाटों का विस्तार –

पानीपत में अफ़ग़ानी पठानों और रूहेलों की जीत ज़रूर हुई ; लेकिन हानि मराठाओं से कम नहीं हुई। अहमदशाह अब्दाली अफ़ग़ानिस्तान लौट गया। रूहेले भी थके होने से प्रभावशाली क़दम उठाने में असमर्थ थे। पराजय से मराठों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी । हालांकि वे शीघ्र ही फिर से बलशाही हो गये थे, निजाम दक्षिणी शक्तियों का दमन करने के कारण उत्तर की ओर देखने की स्थिति में नहीं थे। यह परिस्थितियाँ सूरजमल को अपनी शक्ति विस्तृत करने के लिए अनुकूल लगी थी। पानीपत से बिना लड़े वापिस आने से उसकी शक्ति सुरक्षित थी।

सूरजमल ने मुग़लों की राजधानी आगरा को लूटा और अधिकार कर अपने राज्य में मिला लिया।  इसके बाद हरियाणा के बलूची शासक मुसब्बीख़ाँ पर हमला कर उसे हराया और कैद कर भरतपुर भेज दिया। उसकी राजधानी फर्रूखनगर को उसने अपने बड़े पुत्र जवाहर सिंह को सौंपा और उसे मेवाती क्षेत्र का स्वामी बना दिया। आगरा से लेकर दिल्ली के पास तक सूरजमल की तूती बोलने लगी। उसे अपने अधिकृत क्षेत्र की प्रभु−सत्ता को दिल्ली के मुग़ल सम्राट् से स्वीकृत कराना था। उस समय शक्तिहीन मुग़ल सम्राट का संरक्षक उसका शक्तिशाली रूहेला वज़ीर नजीबुद्धोला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था।  वह जाटों का कट्टर बैरी था। 

महाराजा सूरजमल दिल्ली विजय –

उसने मुग़ल सम्राट की ओर से जाट राजा की इस माँग को ठुकरा दिया। सूरजमल ने अपने अधिकार को स्वीकृत कराने के उद्देश्य से अपनी सेना को दिल्ली चलने का आदेश किया।  रूहेला वज़ीर भी जाटों का सामना करने की तैयारी करने लगा। उसने अहमदशाह अब्दाली और अन्य रूहेले सरदारों के पास संदेश भेजकर सहायतार्थ दिल्ली आने का निमन्त्रण भेजा।  फिर उसने चारों ओर के फाटक बंद करा कर उसकी समुचित रक्षा के लिए शाही सेना को तैनात कर दिया। जाट सेना ने दिल्ली पहुँच कर उसे चारों ओर से घेर लिया था 

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महाराजा सूरजमल की मृत्यु – Maharaja Surajmal Death

रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था। जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी। सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी। जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा ज़माना पड़ा; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा।

उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी। Maharaja Surajmal  की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई। एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया।[3] महाराजा सूरजमल बलिदान दिवस सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) है । उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी। 

Maharaja Surajmal ka Itihas –

Maharaja Surajmal Fact –

  • सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि
  • सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है।
  • रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता,
  • सूझबूझ,चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था वो महाराजा सूरजमल थे। 
  • महाराजा सूरजमल की सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे।
  • मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया।
  • महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, 
  • उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया।

Maharaja Surajmal FAQ –

1 .महाराजा सूरजमल का उपनाम क्या था ?

सूरजमल  को बृजराज की उपाधि दी गयी थी। 

2 .महाराजा सूरजमल की मृत्यु कब हुई ?

25 दिसंबर सन् 1763 रविवार के दिन महाराजा सूरजमल की मृत्यु हुई थी। 

3 .महाराजा सूरजमल का दूसरा नाम ?

सूरजमल का दूसरा नाम सूजन सिंह था। 

4 .महाराजा सूरजमल का बचपन का नाम ?

सूरजमल का बचपन का नाम सुजान सिंह था

5 .महाराजा सूरजमल का अन्य नाम क्या था ?

 सूरजमल का अन्य नाम सुजान सिंह ओर बृजराज भी कहते थे। 

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Conclusion –

मेरा यह आर्टिकल maharaja surajmal history in hindi

बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा और पसंद भी आया होगा ।

इस लेख के जरिये  हमने maharaja surajmal family tree और

maharaja surajmal status से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है।

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राणा कुंभा की जीवनी - Biography of Rana Kumbha In Hindi

Rana Kumbha Biography In Hindi | राणा कुंभा की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है , आज हम Rana Kumbha Biography In Hindi में मध्यकालीन भारत के महान  शासक महाराणा कुंभा का जीवन परिचय बताने वाले है। 

राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी। वह स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता हुआ करता था। आज राणा कुम्भा की वंशावली के साथ हम rana kumbha father name , rana kumbha son name और rana kumbha palace से सम्बंधित जानकारी से सबको वाकिफ कराने जा रहे है।  

महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां की बात करे तो मध्यकालीन भारत के शासकों में कुम्भा ने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका भी लिखी थी।  राणा कुम्भा की पत्नी का नाम मीराबाई था ,महाराणा कुंभा का जन्म 1423 ई. में राजस्थान मेवाड़ में हुआ था। महाराणा कुंभा की हत्या कब और किसने की ? और महाराणा कुंभा के कितने पुत्र थे / जैसे कई सवालों के जवाब आज हमारी पोस्ट में आपको देने वाले है तो चलिए शुरू करते है। 

Rana Kumbha Biography In Hindi –

नाम

राणा कुम्भा

पूरा नाम

कुम्भकर्ण सिंह

पिता

राणा मोकल , मेवाड़

माता

सौभाग्य देवी

पत्नी

मीराबाई

पुत्र

उदय सिंह, राणा रायमल

पुत्री

रमाबाई (वागीश्वरी)

शासनावधि

1433 – 1468

राज्याभिषेक

1433

मुत्यु

1473 ई

राणा कुंभा की जीवनी –

महाराणा कुम्भकर्ण महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन् 1437 से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया था ।

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राणा कुंभा का प्रारंभिक जीवन –

राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। Maharana Kumbha in hindi देखे तो उन्होंने अनेक विजय भी प्राप्त किए थे ।

उसने डीडवाना की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया। किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे। 

राणा कुंभा की रचनाएँ –

संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। राणा कुम्भा नेे जिस कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया उसी है। इस दुर्ग में 1468 ई. को अपने पुत्र उदयसिंह प्रथम द्वारा हत्या का शिकार हुए | यह घटना मेवाड़ के लिए पित्रहन्ता कही जाती है तथा इसी घटना को मेवाड़ का प्रथम कलंक कहा जाता है।

राणा कुंभा का महल – Rana Kumbha Palace

महाराणा Rana Kumbha राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।

राणा कुंभा का युद्ध – War of Rana Kumbha

सारंगपुर का युद्ध (1364- 1382 ईस्वी) :

विद्रोही महपा को सुल्तान ने शरण दे दी | महाराणा कुम्भा ने उसे लोटाने की मांग की | सुल्तान ने महपा को देने से मना कर दिया अतः 1437 ई. में महाराणा कुम्भा ने एक विशाल सेना सहित मालवा पर आक्रमण कर दिया Rana Kumbha ने मंदसोर, जावरा को जीतता हुआ सारंगपुर पर चढ़ाई कर दी | इस युद्ध में सुल्तान महमूद खिलजी की हार हुई | सुल्तान को बंधी बना कर चित्तोडगढ लाया गया | वहा विजय के उपलक्ष्य में महाराणा ने पुरे गढ़ को सजाया | उदारता का परिचय देते हुए महाराणा ने सुल्तान को मुक्त कर दिया |

कुम्भलगढ़ पर आक्रमण :

महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए। 

सबसे पहले 1442 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।

मेवाड़ के सेनापति दीपसिंह को मार कर बाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया। 

इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु सेना ने चित्तौड़ को जीतना चाहा।

इस बात को सुनकर महाराणा बूँदी से चित्तौड़ वापस लौट आए।

जिससे महमूद की चित्तौड़-विजय की यह योजना सफल नहीं हो सकी।

और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया।

गागरौनपर आक्रमण (1443-44 .) :

मालवा के सुल्तान ने महाराणा कुम्भा की शक्ति को तोड़ना कठिन समझ कर मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गों पर अधिकार करने की चेष्टा की। अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया। गागरौन उस समय खींची चौहानों के अधिकार में था। मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड़ और मालवा के लिए इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व था। अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को घेर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया  और गागरौन पर खलजी का अधिकार हो गया। डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा था।

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मेवाड़-गुजरात संघर्ष – (1455 ई. से 1460 ई) –

नागौर की वजह से मेवाड़ और गुजरात में संघर्ष हुआ | नागौर के तत्कालीन शासक फिरोज खां की मृत्यु होने पर और उसके छोटे पुत्र मुजाहिद खां द्वारा नागौर पर अधिकार करने हेतु बड़े लड़के शम्सखां ने नागौर प्राप्त करने में महाराणा कुम्भा की सहायता माँगी थी। महाराणा कुम्भा ने अच्छा अवसर समझ मुजाहिद को वहाँ से हटा कर महाराणा ने शम्सखां को गद्दी पर बिठाया परंतु गद्दी पर बैठते ही शम्सखां अपने सारे वायदे भूल गया और उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया था ।

स्थिति की गंभीरता को समझ कर महाराणा कुम्भा ने शम्सखां को नागौर से निकाल कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। शम्सखां भाग कर गुजरात पहुँचा और अपनी लडकी की शादी सुल्तान से कर, गुजरात से सैनिक सहायता प्राप्त कर महाराणा की सेना के साथ युद्ध करने को बढ़ा, परंतु विजय का सेहरा मेवाड़ के सिर बंधा। मेवाड़-गुजरात संघर्ष का यह तत्कालीन कारण था। 1455 से 1460 ई. के बीच मेवाड़- में युद्ध खेला गया था। 

गुजरात संघर्ष के दौरान निम्नांकित युद्ध हुए –

नागौर युद्ध (1456 ) :

नागौर के पहले युद्ध में शम्सखां की सहायता के लिए भेजे गए।

गुजरात के सेनापति रायरामचंद्र व मलिक गिदई महाराणा महाराणा कुम्भा से हार गए थे।

इस हार का बदला लेने तथा शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बिठाने के लिए

1456 ई. में गुजरात का सुल्तान कुतुबुद्दीन सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ आया।

सुल्तान कुतुबुद्दीन का आक्रमण :

सिरोही के देवड़ा राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से प्रार्थना की कि वह आबू जीतकर सिरोही उसे दे दे। सुल्तान ने इसे स्वीकार कर लिया। आबू को महाराणा कुम्भा ने देवड़ा से जीता था। सुल्तान ने अपने सेनापति इमादुलमुल्क को आबू पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसकी पराजय हुई। इसके बाद सुल्तान ने कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई कर तीन दिन तक युद्ध किया।  बेले ने इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की पराजय बताई है किन्तु गौ. ही. ओझा, हरबिलास शारदा ने इस कथन को असत्य बताते हुए इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की जीत ही मानी है। उनका मानना है कि यदि सुल्तान जीत कर लौटता तो पुनः मालवा के साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करता। सुल्तान का दूसरा प्रयास भी असफल रहा।

नागौरविजय (1458) 

महाराणा कुम्भा ने 1458 ई. में नागौर पर आक्रमण किया जिसके प्रमुख कारण इस प्रकार है

  • 1. नागौर के हाकिम शम्सखां और मुसलमानों के द्वारा बहुत ज्यादा मात्र में गो-वध करना।
  • 2. शम्सखांने मालवा के सुल्तान के मेवाड़ पर आक्रमण के समय महाराणा के विरुद्ध सहायता की थी।
  • 3. शम्सखां ने किले की मरम्मत शुरू कर दी थी। अत: महाराणा ने नागौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

साहित्य प्रेमी –

स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण,

राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था।

कुम्भा ने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत

‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका भी लिखी थी ।

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राणा कुंभा की कहानी – Story of Rana Kumbha

ये स्वयं महान विद्वान व कलाप्रेमी शासक थे. जिन्हें वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य की अनूठी समझ थी. इन्होने साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. कुम्भा ने चार नाटकों की रचना की तथा रसिक प्रिय व गीत गोविन्द पर टीकाएँ भी लिखी थी। हिन्दू सुरताण कुम्भकर्ण (कुम्भा) ने अपनी राजधानी में कई भवनों तथा नवीन इमारतों का निर्माण कराकर स्थापत्य कला को फिर से जीवित किया , राणा कुम्भा ने ही गुजरात विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया था, जिनके कारीगर अत्री व महेश थे। 

मेवाड़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में शुमार अचलगढ़, कुम्भलगढ़, सास बहू का मन्दिर तथा सूर्य मन्दिर का निर्माण भी कुम्भा के काल में हुआ, इन्होने उजड़े हुए बसन्तपुर नगर को फिर से आबाद भी किया. कुम्भा के पुत्र का नाम उदयसिंह था जिन्होंने इनकी हत्या की थी. इसके बाद सत्ता प्राप्त करने वाले मुख्य शासकों में राजमल, राणा सांगा, प्रताप, अमरसिंह व राजसिंह थे। 

राणा कुंभा का व्यक्तित्व और इतिहास –

भारत अति प्राचीन देश हैं, रियासतकालीन समय में यहाँ अलग अलग देशी राजाओं के रजवाड़े हुआ करते थे. कही पर देशी शासकों का शासन था तो कही विदेशी आक्रमणकारी शासन चला रहे थे.उस समय अधिकतर शासकों की यह महत्वकांक्षा रहती थी, कि उनका साम्राज्य सबसे बड़ा हो, सबसे बड़ी सेना भी उन्ही की हो. उसी समय मेवाड़ राजस्थान जो प्राचीन समय में राजपुताना कहलाता था। यहाँ एक से बढ़कर वीर पराक्रमी शासक हुए, जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से अंत तक लोहा लिया.मेवाड़ के शासकों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे लोक हितेषी थे, उनका लक्ष्य साम्राज्य विस्तार से अधिक जनता का सुख दुःख व उनकी भलाई था. ऐसे ही महान प्रतापी राणा कुम्भा थे। 

पन्द्रहवी सदी के इस राजपूत शासक के पिता महाराणा मोकलसिंह थे. इनका राज्य विस्तार डीडवाना, खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे , गुजरात, मालवा और दिल्ली तथा तथा राजस्थान का अधिकतर भूभाग था राणा कुम्भा’ ने संगीत, साहित्य, कला संस्कृति के क्षेत्र में जितना कार्य किया, उतना किसी समकालीन शासक ने नही किया था. मात्र 36 वर्षों के काल में इन्होनें मेवाड़ धरा में इतनी अनुपम स्थापत्य शैली को स्थापित किया, जिन्हें देखने के लिए हजारों सैलानी नित्य मेवाड़ आते हैं. चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़, विजय स्तम्भ जैसे सैकड़ों किले व मंदिर हैं जिन्हें “राणा कुम्भा” ने बनाया था. संगीत के क्षेत्र में इन्हें संगीतराज की उपाधि प्राप्त थी. महाराणा कुम्भा नाट्यशास्त्र, वीणावादन में भी दक्ष थे। 

राणा कुंभा की मुत्यु – Rana Kumbha Death

ऐसे वीर,प्रताभी महाराणा का अंत बहुत दुखद हुआ | 1468 ईस्वी में कुम्भा के पुत्र उदा ने राज्य पिपासा में महाराणा की हत्या कर डी अवम स्वयं सिहासन पर आरुढ़ हो गया मशहूर फॉरेन लेखक कर्नल टॉड ने लिखा है कि “महाराणा कुम्भा ने अपने राज्य को सुदृढ़ किलों द्वारा संपन्न बनाते हुए ख्याति अर्जित कर अपने नाम को चिर स्थायी कर दिया।” कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा को महान दानी और प्रजापालक बताया गया है उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा है। 

डॉ जी. शारदा ने उसे ‘महान शासक, महान सेनापति, महान निर्माता और महान विद्वान’ कहा है। प्रजाहित को ध्यान रखने के कारण प्रजा उसमें अत्यधिक विश्वास और श्रद्धा रखती थी। महाराणा कुम्भा संगीतकार,साहित्य प्रेमी , संगीताचार्य ,वास्तुकला का पुरोधा, नाट्यकला में कुशल , कवियों का शिरोमणि , अनेक ग्रंथो का रचियता, वेद, स्मृति, दर्शन, उपनिषद, व्याकरण आदि का विद्वान, संस्कृत आदि भाषाओँ का ज्ञाता, प्रजापालक, दानवीर, जैसे कई गुण सर्वतोन्मुखी गुण विद्यमान थे जो राणा सांगा में नहीं थे। 

Rana Kumbha की हत्या के बाद मेवाड़ –

Rana Kumbha की हत्या करने वाले उदा को कोई भी महाराणा के रूप में स्वीकार करने को तैयार नही था | अतः किसी भी तरह उदा को हटाने के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया था उदा और उसके भाइयो में आपसी रंजिस बढती चली गयी | और अंतत: रायमल ने राज सिहासन अपने अधिकार में कर लिया | इस बीच ऊदा मालवा के सुल्तान के पास सहायतार्थ पहुंचा। मालवा के सुल्तान गयासशाह ने मेवाड़ में अशांति करते हुए कई इलाके हथिया लिए किन्तु रायमल की सूझबूझ से उसके चितौड़ और मांडलगढ़ के आक्रमणों में सुल्तान की हार हुई इस प्रकार रायमल ने मेवाड़ की स्थिति को सुदृढ़ करना आरम्भ किया था। 

 मेवाड़ और सुदृढ़ करने के लिए जोधपुर के राठौड़ों व हाड़ाओं से मित्रता की, किन्तु इस बीच उसके पुत्रों में संघर्ष हो जाने और दो पुत्रों की मृत्यु होने तथा सांगा के मेवाड़ छोड़ कर चले जाने से उसका जीवन दुःखमय हो गया। इसी आघात के कारण रायमल की हालत बहुत बिघाड गयी हो गयी | जैसे ही पिता के अस्वस्त होने की खबर सांगा को लगी वह पुनः मेवाड़ आ गया अंतत: रायमल ने अपने पुत्र सांगा (संग्राम सिंह) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और कुछ ही दिनों बाद रायमल की मृत्यु हो गयी , जो उसकी (रायमल की) मृत्यु के बाद 1508 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। सांगा के मेवाड़ की सत्ता सँभालते ही मेवाड़ का उत्कर्षकाल पुनः प्रारंभ हो गया।

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महाराणा कुंभा का इतिहास –

1433 ई.* इस वर्ष महाराणा कुम्भा का राज्याभिषेक हुवा (कर्नल जेम्स टॉड ने महाराणा कुम्भा के राज्याभिषेक का वर्ष 1418 ई. बताया है व उनकी पत्नी का नाम मीराबाई बताया है, जो कि सही नहीं है | मीराबाई तो महाराणा कुम्भा के 100 वर्ष बाद की थीं) महाराणा मोकल के मामा मारवाड़ के रणमल्ल थे रणमल्ल चित्तौड़ आए और चाचा व मेरा को मारने के लिए 500 सवारों के साथ निकले और कई जगह धावे बोले चाचा व मेरा अपने साथी राजपूतों के हाथों मारे गए इक्का (चाचा का बेटा) और महपा पंवार भागकर मांडू के सुल्तान महमूद की शरण में चले गए राघवदेव (महाराणा कुम्भा के काका) और रणमल्ल के बीच खटपट हो रही थी। 

रणमल्ल ने धोखे से राघवदेव की हत्या कर दी, जिसका हाल कुछ इस तरह है कि रणमल्ल ने राघवदेव को तोहफे में अंगरखा दिया, जिसकी दोनों बाहों के मुंह सीये हुए थे जब राघवदेव ने अंगरखा पहना तो उनके दोनों हाथ फँस गए, इतने में रणमल्ल ने तलवार से राघवदेव की हत्या कर दी Rana Kumbha ने जनकाचल पर्वत व आमृदाचल पर्वत पर विजय प्राप्त की1437 ई  महाराणा कुम्भा ने देवड़ा राजपूतों को पराजित कर आबू पर अधिकार किया 1437-38 ई.* महाराणा कुम्भा ने मांडलगढ़ पर हमला कर विजय प्राप्त की मांडलगढ़ पर हाडा राजपूतों के सहयोगियों का कब्जा था इन्हीं दिनों में महाराणा ने खटकड़ पर हमला कर विजय प्राप्त की कुछ दिन बाद जहांजपुर पर हमला किया | काफी मशक्कत के बाद महाराणा कुम्भा ने जहांजपुर पर विजय प्राप्त की थी। 

Rana Kumbha Video –

राणा कुंभा के रोचक तथ्य –

  • महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां की बात करे तो
  • मध्यकालीन भारत के शासकों में कुम्भा ने चार भाषाओं में चार नाटकों की रचना की थी।
  • उन्होंने जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका लिखी थी। 
  • राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी।
  • वह स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति
  • और साहित्य का ज्ञाता हुआ करता था।
  • महाराणा कुंभा ने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी,
  • खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया था।
  • दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया।
  • राणा कुम्भा द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़
  • जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं।
  • वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं।

Rana Kumbha FAQ –

1 .महाराणा कुंभा का जन्म कब हुआ ? 

1403 ई. में महाराणा कुम्भा का जन्म चित्तौड़ के महाराणा मोकल किल्ले में हुआ था। 

2 .महाराणा कुंभा के कितने पुत्र थे ?

कुंभा राणा के के दो पुत्र ऊदा सिंह और राणा रायमल और एक रमाबाई (वागीश्वरी) नाम की राजकुँवरी भी थी। 

3 .महाराणा कुंभा के पिता का नाम क्या था ?

महाराणा कुंभा के पिताजी का नाम महाराणा मोकल था। 

4 .महाराणा कुंभा के समय दिल्ली का शासक कौन था ?

राणा कुंभा के समय दिल्ली के राज्य पे मुहम्मद शाह का शाशन चला करता था। 

5 .महाराणा कुंभा के समय मालवा का सुल्तान कौन था ?

सुल्तान महमूद खिलजी महाराणा कुंभा के समय मालवा का राजा था। 

6 .महाराणा कुंभा की हत्या किसने की थी ?

1473 ई. में महाराणा कुंभा की हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी।

7 .महाराणा कुंभा ने कितने दुर्गों का निर्माण करवाया ?

मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों है ,उसमे से 32 दुर्ग अकेले कुंभा बनवाए थे ऐसा प्रमाण मिलता है। 

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Conclusion –

आपको मेरा Maharana kumbha history in hindi अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने rana kumbha family tree और rana kumbha wife से सम्बंधित जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य अभिनेता के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। 

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास Rana kumbha ka itihaas की जानकारी या Maharana kumbha ka jivan parichay की कोई जानकारी हैं, या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है। तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद 

1 .महाराणा कुम्भा की पत्नी का नाम क्या था ?

2 .महाराणा कुंभा की मृत्यु कैसे हुई ?

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