Raja Mahendra Pratap Biography In Hindi – राजा महेन्द्र प्रताप की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Raja Mahendra Pratap Biography In Hindi में मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने वाले खंड़गसिंह गौद आने पर महेन्द्र प्रताप सिंह हो गए इस महान राजा की कहानी बताने वाले है। 

हाथरस के राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युध्द किया। मुरसान के राजा ने भी युद्ध में जमकर साथ दिया। अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया ,1841 में दयाराम का देहान्त हो गया। उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे थे ,1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्दसिंह का राज्य लौटाया नहीं , कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया। राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु हुई थी। 

आज raja mahendra pratap singh azad hind fauj , उनके नाम से चलती संस्था raja mahendra pratap university और raja mahendra pratap secretary की जानकारी बताने वाले है।  गोविन्दसिंह की संतान न होने पर अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे गये। रानी साहबकुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी।  राजा हरनारायणसिंह अंग्रेजों के भक्त थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने मुरसान के राजा घनष्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। था। 

नाम Raja Mahendra Pratap
जन्म 1 दिसम्बर 1886
जन्म भूमि मुरसान, उत्तर प्रदेश
अभिभावक राजा बहादुर घनश्याम सिंह
नागरिकता  भारतीय 
प्रसिद्धि  सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक
मृत्यु 29 अप्रैल, 1979

Raja Mahendra Pratap Biography In Hindi –

 महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने। हाथरस राज्य का वृन्दावन में विशाल महल है उसमें ही महेन्द्र प्रताप का षैशव काल बीता। बड़ी सुख सुविधाएँ मिली थी। राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था। राजा घनश्याम सिंह जी के तीन पुत्र थे ,दत्तप्रसाद सिंह, बल्देव सिंह और खड़गसिंह, जिनमें सबसे बड़े दत्तप्रसाद सिंह राजा घनश्याम सिंह के उपरान्त मुरसान की गद्दी पर बैठे और बल्देव सिंह बल्देवगढ़ की जागीर के मालिक बन गए। खड़गसिंह जो सबसे छोटे थे वही हमारे चरित नायक राजा महेन्द्र प्रताप जी हैं।

मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंड़गसिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था, मानो खड़ग उनके व्यक्तित्व में साकार प्रताप बनकर ही एकीभूत हो गई हो। कुँवर बल्देव सिंह का राजा साहब (महेन्द्र प्रताप जी से) बहुत घनिष्ठ स्नेह था और राजा साहब भी उन्हें सदा बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। उम्र में सबसे छोटे होने के कारण राजा साहब अपने बड़े भाई को ‘बड़े दादाजी’ और कुँवर बल्देवसिंह जी को ‘छोटे दादाजी’ कहकर संबोधित किया करते थे।

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राजा महेन्द्र प्रताप का बचपन –

जब राजा साहब केवल तीन वर्ष के ही थे, तभी उन्हें हाथरस नरेश राजा हरिनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था, किन्तु राजा साहब 7-8 वर्ष की अवस्था तक मुरसान में ही रहे। इसका कारण यह था कि राजा घनश्यामसिंह को यह डर था कि कहीं राजा हरिनारायण सिंह की विशाल सम्पत्ति पर लालच की दृष्टि रखने वाले लोभियों द्वारा बालक का कोई अनिष्ट न हो जाए।

राजा महेन्द्र प्रताप का विद्यार्थी जीवन –

Raja Mahendra Pratap साहब पहले कुछ दिन तक अलीगढ़ के गवर्नमेन्ट स्कूल में और फिर अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। यही कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। राजा साहब को अलीगढ़ में पढ़ने सर सैयद अहमद ख़ाँ के आग्रह पर भेजा गया था, क्योंकि राजा साहब के पिताजी राजा घनश्याम सिंह की सैयद साहब से व्यक्तिगत मित्रता थी। इस संस्था की स्थापना के लिए राजा बहादुर ने यथेष्ट दान भी दिया था।

उससे एक पक्का कमरा बनवाया गया, जिस पर आज भी राजा बहादुर घनश्याम सिंह का नाम लिखा हुआ है। राजा साहब स्वयं हिन्दू वातावरण में पले परन्तु एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। इसका एक सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम धर्म और मुसलमान बन्धुओं का निकट सम्पर्क उन्हें मिला और एक विशिष्ट वर्ग के (राजकुमारों की श्रेणी के) व्यक्ति होने के कारण तब उनसे मिलना और उनके सम्पर्क में आना सभी हिन्दू मुस्लिम विद्यार्थी एक गौरव की बात मानते थे। 

इसका परिणाम यह हुआ कि राजा साहब का मुस्लिम वातावरण तथा मुसलमान धर्म की अच्छाइयों से सहज ही परिचय हो गया और धार्मिक संकीर्णता की भावना से वह सहज में ही ऊँचे उठ गए। बाद में जब राजा साहब देश को छोड़ कर विदेशों में स्वतंत्रता का अलख जगाने गये, तब मुसलमान बादशाहों से तथा मुस्लिम देशों की जनता से उनका हार्दिक भाईचारा हर जगह स्वयं बन गया। हमारी राय से राजा साहब के व्यक्तित्व की यह विशेषता उन्हें इस शिक्षा संस्थान की ही देन है।

प्रेम महाविद्यालय की स्थापना –

राजा साहब अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रेम विद्यालय को दान करना चाहते थे, परन्तु महामना मालवीय जी के यह समझाने पर कि यह पुश्तैनी रियासत है, आप सब दान नहीं दे सकते, राजा साहब ने अपनी आधी सम्पत्ति (पांच गांव और दो महल) विद्यालय को दान कर दिये। उनकी नी माताओं के निवास के लिए विद्यालय को दान दी गई सम्पत्ति में से ही राजा साहब ने 10,000 रुपये देकर अपनी ही केलाकुंज को विद्यालय से पुन: ख़रीदा और वहाँ माताओं के रहने की व्यवस्था की। एक ट्रस्ट बनाकर सन 1909 में विद्यालय के लिए सम्पत्ति की रजिस्ट्री करा दी गई और महारानी विक्टोरिया के जन्म दिन पर इस विद्यालय को शुरू किया गया।

मुरसान राज्य –

मुरसान राज्य के संस्थापक नन्दराम सिंह अपने परदादा माखनसिंह की तरह असीम साहसिक तथा रणनीति और राजनीति में पारंगत थे। औरंगज़ेब को नन्दराम सिंह ने अपने कारनामों से इतना आतंकित कर दिया, जिससे मुग़ल दरबार में नन्दराम सिंह को फ़ौजदार की उपाधि देकर संतोष की साँस ली। नन्दराम सिंह ने पहली बार मुरसान का इलाका भी अपने अधिकार में कर लिया और वे एक रियासतदार के रूप में प्रसिद्ध हुए।

इनके चौदह पुत्र थे, जिनमें से जलकरन सिंह, खुशालसिंह, जैसिंह, भोजसिंह, चूरामन, जसवन्तसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह इन आठ पुत्रों के नाम ही ज्ञात हो सके हैं। पहले जलकरनसिंह और उनकी मृत्यु के बाद खुशालसिंह नन्दराम सिंह के उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने अपने पिता की उपस्थिति में ही मुरसान में सुदृढ़ क़िला बनवाया और पिता के उपार्जित इलाके में भी वृद्धि की थी। 

सआदतुल्ला से बहुत सा इलाका छीन कर मथुरा, अलीगढ़, हाथरस के अंतवर्ती प्रदेश को भी इन्होंने अपने राज्य में मिला लिया, घोड़े और तोपों की संख्या में भी वृद्धि की। शेष भाइयों में से चूरामन, जसवंतसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह ने क्रमश: तोछीगढ़, बहरामगढ़ी, श्रीनगर और हरमपुर में अपना अधिकार स्थापित किया। नन्दराम सिंह ने अपनी आंखों से ही अपनी संतति के हाथों अपने राज्य-वैभव की वृद्धि होती देखी। यह 40 वर्ष राज्य करके सन 1695 ई. में स्वर्ग सिधारे थे। 

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राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी प्रेम महाविद्यालय की स्थापना –

24 मई, 1909 को राजा महेन्द्र प्रताप ने वृन्दावन में अपने महल में ही प्रेम महाविद्यालय की न सिर्फ़ स्थापना की, बल्कि अपने पांच गांव भी (जिनकी आमदनी सब खर्च काटकर लगभग 33 हज़ार रुपए प्रति वर्ष होती थी) इस संस्थान को भेंट कर दी थी। ये पॉलिटेक्निक की शिक्षा देने वाला संस्थान था. राजा महेन्द्र प्रताप ने इस संस्था का अवैतनिक सेक्रेटरी तथा गवर्नर रहकर इसका संचालन किया और कुछ समय तक विद्यार्थियों को विज्ञान आदि विषय पढ़ाए। इस महाविद्यालय के मक़सद का उल्लेख लेखक नन्द कुमार देव शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रेम पुजारी: राजा महेन्द्र प्रताप सिंह’ में काफ़ी बेहतर ढंग से किया है. ये पुस्तक 1980 में हिन्दी साहित्य कार्यालय, कलकत्ता से प्रकाशित हुई है। 

हिंदुत्ववादियों से महेंद्र प्रताप का वैचारिक संघर्ष –

Raja Mahendra Pratap हमेशा जनसंघ और हिन्दुत्व के ख़िलाफ़ रहे. 1957 लोकसभा चुनाव में मथुरा से जनसंघ के नेता अटल बिहारी को उन्होंने ज़बर्दस्त पटखनी दी. इस चुनाव में राजा महेन्द्र प्रताप आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर मैदान में थे। बावजूद 40.68 फ़ीसदी वोट उनको मिले. वहीं 29.57 फ़ीसदी वोट पाकर कांग्रेस के दिगम्बर सिंह दूसरे स्थान पर थे, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी 10.09 फ़ीसदी वोट पाकर चौथे स्थान पर. कुल उम्मीदवारों की संख्या 5 थी। दिलचस्प बात ये है कि राजा महेन्द्र प्रताप खुद को पीटर पीर प्रताप कहलाना ज़्यादा पसंद किया. अपनी आत्मकथा में अपनी तस्वीर के नीचे उन्होंने अपना यही नाम लिखा है। 

raja mahendra pratap ने हमेशा से हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ज़ोर दिया. उन्होंने एक पत्र में हिन्दू मुसलमानों के झगड़े पर कुछ इस प्रकार सवाल उठाया- ‘झगड़ा है, फ़साद है, बल्कि युद्ध हो रहा है. किनमें? हिन्दू और मुसलमानों में. एक ही मिल्लत के दो बाजुओं में और सर सैय्यद अहमद के कथनानुसार एक ही चेहरे की दो आंखों में! देखिए जब आंखें अंधी हो जाती हैं , या अपना फ़र्ज़ अदा नहीं करतीं तो अपने ही पैरों को किसी पत्थर से ठुकवा देती हैं और जब बीमारी का दौरा होता है तो अवगुणकारी चीज़ों को खाने को मन करता है. आज हिन्दुस्तानी मिल्लत अवश्य बीमार है। 

इसके शरीर में बाहरी रोग घुस गया है ,ऐसी अवस्था में हम ठोकरें खाएं या आत्मघात करने पर उतारू हो जाएं तो अचंभे की क्या बात है? अगर हम अपने ही हाथ से अपना खून करना नहीं चाहते तो हमको हर समय यह याद रखना चाहिए कि हम बीमार हैं, हमको हमारा रोग दबाए हुए है और यह रोग सब प्रकार से हमको मिटा देने की चेष्टा कर रहा है। वह बीमारी आज तक बनी हुई है! वरना राजा महेंद्र प्रताप और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को एक दूसरे के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश न हो रही होती। 

स्वतंत्रता सेनानी की भावना –

राजा साहब जब विद्यार्थी थे, उनमें जहाँ सब धर्मों के प्रति सहज अनुराग जगा वहाँ शिक्षा द्वारा जैसे-जैसे बुद्धि के कपाट खुले वैसे-वैसे ही अंग्रेज़ों की साम्राज्य लिप्सा के प्रति उनके मन में क्षोभ और विद्रोह भी भड़का। वृन्दावन के राज महल में प्रचलित ठाकुर दयाराम की वीरता के किस्से बड़े बूढ़ों से सुनकर जहाँ उनकी छाती फूलती थी, वहाँ जिस अन्याय और नीचता से गोरों ने उनका राज्य हड़प लिया था, उसे सुनकर उनका हृदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता था और वह उनसे टक्कर लेने के मंसूबे बाँधा करते थे। जैसे-जैसे उनकी बुद्धि विकसित होती गई, वैसे अंग्रेज़ों के प्रति इनका विरोध भी मन ही मन तीव्र होता चला गया।

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अंग्रेज़ पुलिस कप्तान से मुलाकात –

राजा साहब जब अलीगढ़ में विद्यार्थी थे, उनके छोटे भाई दादा (बीच के भाई) कुँवर बल्देव सिंह प्राय: उनसे मिलने अलीगढ़ आते रहते थे। एक दिन वह उन्हें अपने साथ अलीगढ़ के अंग्रेज़ पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मिलाने ले गए। उस समय राजा साहब 19 या 20 वर्ष के नवयुवक थे। जब पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मुलाकात हुई, तो कुँवर बल्देव सिंह ने उसे सलाम किया परन्तु राजा साहब ने ऐसा न करके उससे केवल हाथ मिलाया।

बाद में जब बातचीत का सिलसिला चला तो राजा साहब ने पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट को किसी प्रसंग में यह भी हवाला दिया कि हमारे दादा अंग्रेज़ों से लड़े थे। यह सुनकर सुपरिन्टेन्डेन्ट कुछ समय के लिए सन्न रह गया और कुछ मिनटों तक विचार-मग्न रहा। जब बाद में बातचीत का प्रसंग बदला तब वह सामान्य स्थिति में आ सका। इस प्रकार निर्भीकतापूर्वक अपनी स्पष्ट बात कह देने की आदत राजा साहब में बचपन से ही रही।

राजा महेन्द्र प्रताप का विवाह –

राजा साहब के बड़े भाई कुँवर बल्देव सिंह जी की शादी फरीदकोट में बड़ी शान से हुई थी और उसे देखकर उनके मन में भी यह गुप्त लालसा जाग उठी थी कि मेरा विवाह भी ऐसी ही शान और तड़क-भड़क से हो राजा साहब के विद्यार्थी जीवन में ही सन 1901 में जब वह केवल 14 वर्ष के थे, यह अवसर भी आ गया। जींद नरेश महाराज रणवीरसिंह जी की छोटी बहिन बलवीर कौर से उनकी सगाई बड़े समारोह से वृन्दावन में पक्की हो गई और विवाह की तैयारी होने लगी थी। 

परन्तु इसी बीच एक महान् दुर्घटना घट गई। जिस दिन राजा साहब का तेल चढ़ा था, उसी दिन दुर्भाग्य से मथुरा वृन्दावन मार्ग पर स्थित जयसिंहपुरा वाली कोठी में उनके पूज्य पिता राजा बहादुर घनश्यामसिंह जी का स्वर्गवास हो गया। इस दुर्घटना के कारण विवाह को भी स्थगित करने का भी विचार होने लगा, किन्तु अन्त में यही तय हुआ कि क्योंकि राजा महेन्द्र प्रताप गोद आ गये हैं, अत: देहरी बदल जाने के कारण अब विवाह नहीं रोका जा सकता था। 

रेल गाड़ियों में गई बारात –

राजा महेन्द्र प्रताप जी का विवाह जींद में बड़ी शान से हुआ। दो स्पेशल रेल गाड़ियों में बारात मथुरा स्टेशन से जींद गई। इस विवाह पर जींद नरेश ने तीन लाख पिचहत्तर हज़ार (3,75,000) रुपये व्यय किए थे। यह उस सस्ते युग का व्यय है, जब 1 रुपये का 1 मन गेहूँ आता था। विवाह में इतना अधिक दहेज आया था कि वृन्दावन के महल का विशाल आँगन उससे खचाखच भर गया। दहेज का बहुत सा सामान महाराज ने इष्ट मित्रों और जनता को बांट दिया। विवाह के समय राजा साहब की आयु केवल 14 वर्ष की थी और उनकी महारानी उनसे तीन वर्ष बड़ी थीं। इस छोटी अवस्था में भी महाराज में दानवृत्ति और त्यागवृत्ति विद्यमान थी। वह राज्याधिकार प्राप्त होने पर भी यथावत बनी रही, वरन् कहना चाहिए कि उनमें परोपकार की भावना निरंतर विकसित होती रही थी।

राजा महेन्द्र प्रताप का  9- 9- 9 का चक्कर –

सन 1914 से पहले तुर्की संसार के चार बड़े साम्राज्यों में से एक था, परन्तु सन 1912 में ही उसके विघटन के लक्षण प्रकट होने लगे। बुल्गारिया और ग्रीस से तुर्की का युद्ध राजा साहब के ठीक होने के बाद ही प्रारम्भ हो गया था। अलीगढ़ के कुछ मुस्लिम छात्रों के साथ डॉक्टर अंसारी वहाँ तुर्की के घायलों की सेवा करने के लिए गये हुए थे। राजा साहब ने जब यह सुना तो आप भी तुरन्त घायलों की सेवा करने के लिए 9 दिन की यात्रा करके तुर्की जा पहुँचे। कोन्सटेण्टीनोपिल पहुँच कर आपने जब तुर्की में प्रवेश करना चाहा तो आप रोक दिये गए। कठिनाई से आपको कुछ समय वहाँ ठहरने की आज्ञा मिली थी ।

डॉक्टर अंसारी के दल को वहाँ आपने खोजा, परन्तु वह युद्ध मोर्चे पर जा चुका था, इसलिए आपने स्वयं ही वहाँ के एक अधिकारी को अपनी सेवाएं प्रस्तुत कीं थी। उसने आपको गौर से देखा और नाम पूछा तो आपने उसे महेन्द्र प्रताप सिन्हा नाम बतला दिया। चेष्टा करने पर भी वह अधिकारी स्वयं इस नाम का उच्चारण नहीं कर सका तो उसने पूछा ‘परन्तु यह मुस्लिम नाम तो नहीं है। उसका यह उत्तर सुनकर राजा साहब फिर वहाँ नहीं ठहरे। उन्हें वहाँ रहते हुए पूरे नौ दिन हो चुके थे।

रात्रि भर उनके होटल में मोर्चे पर आग उगलती तोपों की धांय-धांय की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। बन्दरगाह पर भी सब कमरे घायलों से पटे पड़े थे, परन्तु मुसलमान न होने के कारण वहाँ उनकी सेवा भावना का महत्त्व नहीं आँका गया। 9 दिन की वापसी की यात्रा करके पुन: वृन्दावन लौट आये। इस प्रकार तुर्की की इस यात्रा में उन्हें तीन 9 अर्थात् 27 दिन लगे थे ।

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राजा महेन्द्र प्रताप की मुत्यु – Raja Mahendra Pratap Death

राजा महेन्द्र प्रताप की मुत्यु सन 29 अप्रैल, 1979 में हुए थी राजा महेन्द्र प्रताप का जीवन-क्रम आरम्भ से ही जहाँ एक तूफान के समान निरंतर वेगवान था, वहीं वह आस्था, विश्वास और परोपकार की सुरभि से सुरभित भी रहा। मौलिक चिन्तन, दृढ़ निश्चय, अदम्य उत्साह और एक-एक क्षण के सदुपयोग की प्रबल उत्कंठा उनमें किशोरावस्था से ही अपने राज्याधिकार प्राप्ति काल में भी विद्यमान थी। प्राचीनता के प्रति श्रद्धा और ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखते हुए भी नवीन युग की नव चेतना को बचपन से ही उन्होंने आगे बढ़कर अपनाया। अन्ध विश्वासों के लिए उनके मन में कभी कोई मोह नहीं रहा और कदाचित किसी आतंक से डरना उनकी जन्मघुट्टी में ही नहीं था। बचपन से ही यह ऐसे दृढ़ निश्चयी थे कि एक बार जो बात मन में जम गई, उससे हटना या विचलित होना, वह जानते ही नहीं।

Raja Mahendra Pratap Video-

Raja Mahendra Pratap Fact –

  • राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था।
  • राजा महेन्द्र प्रताप की मुत्यु सन 29 अप्रैल, 1979 में हुए थी राजा महेन्द्र प्रताप का जीवन-क्रम आरम्भ से ही जहाँ एक तूफान के समान निरंतर वेगवान था। 
  • जब राजा महेन्द्र प्रताप सिह केवल तीन वर्ष के ही थे, तभी उन्हें हाथरस नरेश राजा हरिनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था। 
  • इनके चौदह पुत्र थे, जिनमें से जलकरन सिंह, खुशालसिंह, जैसिंह, भोजसिंह, चूरामन, जसवन्तसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह इन आठ पुत्रों के नाम ही ज्ञात हो सके हैं। 
  • उनके बाद उनके बेटे जलकरनसिंह और उनकी मृत्यु के बाद खुशालसिंह नन्दराम सिंह के उत्तराधिकारी हुए।

Raja Mahendra Pratap Questions –

1 .राजा महेंद्र प्रताप कौन थे ? उनका अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से क्या ताल्लुक़ है?

मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने वाले राजा महेंद्र प्रताप हाथरस के महाराजा थे उन्होंने  अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अपनी पढाई प्राप्त की हुई थी। 

2 .राजा महेन्द्र प्रताप का बचपन का नाम क्या था ?

राजा महेन्द्र प्रताप का बालयकाल का नाम खड़गसिंह था। मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंड़गसिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था

3 .राजा महेंद्र प्रताप के किस की स्थापना की थी ? 

24 मई, 1909 को राजा महेन्द्र प्रताप ने वृन्दावन में अपने महल में ही प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी। 

4 .राजा महेंद्र प्रताप की प्रसिद्धि क्या है ?

उन्होंने अपने जीवन में वह सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक कहे जाते थे। 

5 .राजा महेंद्र प्रताप की मौत कब हुई थी। 

29 अप्रैल, 1979 के दिन राजा महेंद्र प्रताप की मौत हुई थी। 

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निष्कर्ष – 

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल raja mahendra pratap singh biography in hindi आपको बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा और पसंद भी आया होगा । इस लेख के जरिये  हमने mahendra pratap singh cabinet minister और raja mahendra pratap family एव जाट राजा महेंद्र प्रताप से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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