Biography oF Samudragupta In Hindi - समुद्र्गुप्त की जीवनी हिंदी में

Samudragupta Biography In Hindi – समुद्र्गुप्त की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Samudragupta Biography In Hindi में आपको गुप्त राजवंश के महान राजा समुद्रगुप्त का जीवन परिचय से ज्ञात कराने वाले है। 

इस महान राजा  को गुप्त राजवंश के चौथे महान राजा माने जाते है , चन्द्रगुप्त पहले के दूसरे अधिकारी पाटलिपुत्र समुद्रगुप्त के साम्राज्य की राजधानी मानी जाती है । वे वैश्विक इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक एवं सम्राट कहा जाता है। आज samudragupta history in hindi में आपको samudragupta wife , samudragupta son name और samudragupta achievements से सबंधित जानकारी देने वाले है। ऐसा कह सकते है की आज हम समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन की कहानी बताने वाले है 

समुद्रगुप्त का शासनकाल भारत के लिये सोने का ( स्वर्णयुग ) की शुरूआत कही जाती है ,और समुद्रगुप्त को गुप्त राजवंश का महान राजा माना जाता है। समुद्रगुप्त को एक महान शासक, वीर योद्धा माना जाता है और तो और समुद्रगुप्त को कला के संरक्षक भी माना जाता है । उनका नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है। Samudragupta का नाम समुद्र की चर्चा करते हुए और अपने विजय अभियान की वजह से रखा गया था और उसका अर्थ होता है।”महासागर”। समुद्रगुप्त के बहुत भाई थे, फिर भी उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा के देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था ।

Samudragupta Biography In Hindi –

नाम

समुद्रगुप्त

उपनाम

तनत्रीकमन्दका

पिता

चन्द्रगुप्त प्रथम

माता

कुमारादेवी

पुत्र

चंद्रगुप्त द्वितीय

पत्नी

दत्तदेवी

समुद्र्गुप्त की जीवनी – 

चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद, उनकी राजगादी के लिये संघर्ष हुआ जिसमें समुद्रगुप्त एक प्रबल दावेदार बन कर उभरे। कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने राज्य पर अपना शासन करने के लिये अपने प्रतिद्वंद्वी अग्रज राजकुमार काछा को युद्ध में हराया था समुद्रगुप्त का नाम सम्राट अशोक के साथ जोड़ा जा रहा है माना की वो दोनो एक-दूसरे के बहुत ही करीब थे । और वो एक अपने विजय अभियान के लिये जाने जाते थे और दूसरे अपने धुन के लिये जाने जाते थे। समुद्र्गुप्त को भारत के महान शासक जाता हे समुद्र्गुप्त ने अपने जीवन काल के दौरान कभी भी हार नहीं मानी थी । वि.एस स्मिथ के द्वारा उन्हें भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी गई थी। 

समुद्रगुप्त का शासनकाल –

चंद्रगुप्त को मगध राज्य के महान राजा और गुप्त वंश के पहले शासक माने जाते है उन्होने एक लिछावी राजकुमारी, कुमारिदेवी के साथ उन्होंने विवाह कर लिया था और उनकी वजह से उन्हे गंगा नदी के तटीय जगहो पर एक पकड़ मिला जो उत्तर भारतीय वाणिज्य का मुख्य स्रोत माना गया था। उन्होंने लगभग दस वर्षों तक एक प्रशिक्षु के रूप में बेटे के साथ उत्तर-मध्य भारत में शासन किया और उन्की राजधानी पाटलिपुत्र, भारत का बिहार राज्य, जो आज कल पटना के नाम से जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद ,समुद्रगुप्त ने राज्य शासन संभाला था और उन्होने शायद पूरे भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद ही आराम ग्रहण किया था

समुद्रगुप्त का शासनकाल, एक विशाल सैन्य अभियान के रूप में वर्णित किया। हुवा माना जाता है शासन शुरू करने के साथ उन्होने मध्य भारत में रोहिलखंड और पद्मावती के पड़ोसी राज्यों पर हमला किया। उन्होंने बंगाल और नेपाल के कुछ राज्यों के पर विजय प्राप्त की और असम राज्य को शुल्क देने के लिये विवश किया। उन्होंने कुछ आदिवासी राज्य मल्वास, यौधेयस, अर्जुनायस, अभीरस और मधुरस को अपने राज्य में विलय कर लिया। अफगानिस्तान, मध्य एशिया और पूर्वी ईरान के शासक, खुशानक और सकस भी साम्राज्य में शामिल कर लिये गए।

इनके बारे में भी जानिए :- दुर्गाबाई देशमुख की जीवनी

समुद्रगुप्त का वैवाहिक गठबंधन –

राजा समुद्रगुप्त के शासनकाल की सबसे अच्छी घटना वकटका राजा रुद्रसेन दूसरे की और पश्चिमी क्षत्रपों के रूप में शक राजवंश के जरिये सदियों से शासन करते आये थे और जो काठियावाड़ के सौराष्ट्र की प्रायद्वीप के पराजय के साथ अपने वैवाहिक गठबंधन में बंधा था। लग्न के गठजोड़ गुप्तों की परदेशी नीति में एक मुख्य अच्छा स्थान रखा है । समुद्रगुप्त के गुप्तो ने लिछवियो से लग्न गठबंधन कर बिहार में समुद्रगुप्त ने अपनी स्थिति को मजबूत किया था। 

समुद्रगुप्त ने पड़ोसी राज्यों से उपहार स्वीकार कर लिये थे। एक ही उद्देश्य के साथ, चन्द्रगुप्त द्वितीय नागा राजकुमारी कुबेर्नगा से शादी की और वकटका राजा से शादी में अपनी बेटी, प्रभावती, रुद्र शिवसेना द्वितीय दे दी है।यह समुद्रगुप्त का एक रणनीतिक स्थिति पर अपना राज जमा लिया था जो वकटका राजा के अधीनस्थ गठबंधन सुरक्षित रूप वकटका गठबंधन कूटनीति के मास्टर स्ट्रोक था।

यह रुद्र शिवसेना जवान मारे गए और उसके बेटे की उम्र के लिए आया था, जब तक उसकी विधवा शासनकाल में उल्लेखनीय है डेक्कन के अलग अलग राजवंशों की भी गुप्ता शाही परिवार में उन्होंने विवाह कर लिया था । समुद्रगुप्त गुप्त, इस तरह अपने डोमेन के दक्षिण में मैत्रीपूर्ण संबंधों की भी रचना की है यह भी चन्द्रगुप्ता दूसरे के दक्षिण-पश्चिम की ओर विस्तार के लिए कमरे की तलाश के लिए पसंद करते हैं समुद्रगुप्त के दक्षिणी रोमांच का नवीनीकरण नहीं किया है कि इसका मतलब है।

समुद्रगुप्त गुप्त वंश का उत्तराधिकारी – Samudragupta Gupta Dynasty

चंद्रगुप्त पहले के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर विराज मान हुवा था । चंद्रगुप्त के अपने पुत्र थे। पर गुण और साहस में समुद्रगुप्त सबसे उत्तम था। लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना दूसरा अधिकारी चुना था। 

और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा – ‘तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।’ इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।

सम्राट समुद्रगुप्त के गुण और चरित्र –

सम्राट समुद्रगुप्त के वैयक्तिक गुणों और चरित्र के बारे मे प्रयाग की प्रशस्ति में बड़े अच्छे और सुंदर पाये जाते हैं। इसे महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण ने तैयार किया था। हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त का चरित्र इस प्रकार का था ‘उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था।

वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों की बुद्धि विभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे ‘कविराज’ की उपाधि दी गई थी। ऐसा कौन सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था। सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था। परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था।

  • समुद्रगुप्त का सूत्र

समुद्रगुप्त के इतिहास का सबसे अच्छा स्रोत, वर्तमान इलाहाबाद की बाजु में, कौसम्भि में पहाड़ो में शिलालेखों में से एक बहुत ही अच्छा शिलालेख है। इस शिलालेख में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का विवरण दिया गया है। इस शिलालेख पर लिखा है, “जिसका खूबसूरत शरीर, युद्ध के कुल्हाड़ियों, तीरों, भाले, बरछी, तलवारें, शूल के घावों की सुंदरता से भरा हुआ है।

यह शिलालेख भारत के राजनीतिक भूगोल की वजह से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें विभिन्न राजाओं और लोगों का नाम अंकित है, जोकि चौथी शताब्दी के शुरूआत में भारत में मौजुद थे। इसमें समुद्रगुप्त के जित के अभियान पर लिखा गया है और तो और उसके लेखक हरिसेना को माना गया हुवा है जो समुद्रगुप्त के दरबार के सबसे महत्वपूर्ण महान कवि माने जाते थे । समुद्रगुप्त जहाँ उत्तर भारत के एक महान शासक एवं दक्षिण में उनकी पहुँच को स्वयं दक्षिण के राजा भी बराबर नहीं कर पाते थे ।

  • समुद्रगुप्त का सिक्का –

समुद्रगुप्त का ज्यादा उसे और शिलालेख के जरिये जारी किए गए उनके सिक्कों के माध्यम से समुद्रगुप्त के बारे में जाना जाता है। और इस आठ अलग अलग प्रकार के थे और सभी को शुद्ध सोने का बना दिया गया था । अपने विजय अभियान उसे सोने और भी कुषाण के साथ अपने परिचित से सिक्का बनाने विशेषज्ञता लाया।

बहुत ही शांति के रूप से, समुद्रगुप्त गुप्ता की मौद्रिक प्रणाली का पिता माना जाता है। समुद्रगुप्त ने बताया और कहा कि सिक्कों की अलग अलग प्रकार की शरुआत की थी । वे मानक प्रकार, आर्चर प्रकार, बैटल एक्स प्रकार, प्रकार, टाइगर कातिलों का प्रकार, राजा और रानी के प्रकार और वीणा प्लेयर प्रकार के रूप में जाने जायेगे वो तकनीकी और मूर्तिकला की चालाकी के लिए एक अच्छी गुणवत्ता का प्रदर्शन करते हुए सिक्कों की कम से कम तीन प्रकार की शरुआत की थी

1. आर्चर प्रकार, 2.लड़ाई-कुल्हाड़ी और 3. टाइगर प्रकार – मार्शल कवच में समुद्रगुप्त का प्रतिनिधित्व कीया था जैसे विशेषणों वीरता,घातक लड़ाई-कुल्हाड़ी,बाघ असर coins of samudragupta, उसकी एक कुशल योद्धा जा रहा है साबित होते हैं। सिक्कों की समुद्रगुप्त के प्रकार वह प्रदर्शन किया बलिदान और उसके कई जीत और दर्शाता है।

इनके बारे में भी जानिए :- शांति स्वरूप भटनागर की जीवनी

समुद्रगुप्त और सिंहल से सम्बन्ध – (achievements of samudragupta)

समुद्रगुप्त के इतिहास की बहुत सारी बातो का भी उदभव किया हुवा है । इस समय में सीलोन का महान राजा मेघवर्ण था। और राजा मेघवर्णशासन के काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे। वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था। जब वे अपने देश को वापिस चले गए  तो समुद्रगुप्त ने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की। मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए।

इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा। समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने ‘बौधिवृक्ष’ के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया। जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का वैदिक धर्म और परोपकार –

समुद्रगुप्त को ब्राह्मण धर्म के ऊपर से धारक था । लेकिन धर्म के कारण अपनी सेवाओं को इलाहाबाद के शिलालेख और उसके लिए ‘धर्म-बंधु’ की योग्यता शीर्षक का उल्लेख है। लेकिन उन्होंने कहा कि अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं था। उनका बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को संरक्षण और महेंद्र के अनुरोध की स्वीकृति, बोधगया में एक बौद्ध मठ का निर्माण करने के सीलोन के राजा कथन से वह अन्य धर्मों का उन्होंने साबित किया था ।

उसे (परिवहन) मकर (मगरमच्छ) के साथ मिलकर लक्ष्मी और गंगा के आंकड़े असर अन्य सिक्कों के साथ सिक्कों का समुद्रगुप्त को प्रकार ब्राह्मण धर्मों में अपने विश्वास में गवाही देने के लिए दिया गया था । समुद्रगुप्त धर्म की सच्ची भावना आत्मसात किया था और उस कारण के लिए, वह इलाहाबाद शिलालेख में (करुणा से भरा हुआ) के रूप में वर्णित किया गया है। उन्होंने कहा, ‘गायों के हजारों के कई सैकड़ों के दाता के रूप में’ वर्णित किया गया है।

Samudragupta Victory – (समुद्रगुप्त की विजय)

समुद्रगुप्त ने उत्तर और दक्षिण के अपना साम्राज्य ज़माने के लिये रणनीतिक योजनाओं को अपनाया। दूर के अभियानों को अपना ने से पहले, उसने पहले पड़ोसी राज्यों को अपने अधीन करने का निणर्य किया किया था ।समुद्रगुप्त के आक्रमणों में तीन अलग-अलग चरण देखने को मिलते है, मतलब आर्यावर्त में उनका पहला अभियान, दक्षिणापथ में समुद्रगुप्तका अभियान और आर्यावर्त में उसका दूसरा अभियान मन ।

उनके आक्रमणों और विजय के अलावा, समुद्रगुप्त ने भी अटाविका या वन राज्यों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने गुप्त साम्राज्य के मोर्चे पर स्थित राज्यों के साथ राजनयिक संबंध भी स्थापित किए थे उन्होंने , अंत में, दूर की विदेशी शक्तियों के साथ राजनीतिक वार्ता का आदान-प्रदान किया। पुरे उत्तर भारत में उनके सबसे अच्छे पहले अभियान में, समुद्रगुप्त ने तीन राजाओं को हराया और उन तीनो राजा ओ का साम्राज्य छीन लिया।

और वे थे, अच्युता नागा, नागा सेना और गणपति नागा। ये नागा राजा शायद गुप्तों के खिलाफ एकजुट होकर काम करते थे और समुद्रगुप्त के लिए खतरे का एक स्रोत थे। उन्होंने क्रमशः अहिच्छत्र, पद्मावती, और मथुरा के राज्यों में शासन किया। उनके साथ पहली मुठभेड़ में गुप्त सम्राट ने उसे दिखने के लिए विवश किया था । और वह उत्तर में उनके सेकंड अभियान में था, कि कुछ नए इंसान के साथ ये राजा पूरी तरह से समाप्त हो गए थे। तीन उत्तरी शक्तियों पर अपनी विजय के बाद, समुद्रगुप्त ने दक्खन में अपना अभियान शुरू किया। अपने दक्षिणी अभियानों के दौरान उन्होंने बारह राजकुमारों के रूप में कई विनम्रता दिखाई। 

समुद्रगुप्त का मथुरा पर विजय –

समुद्रगुप्त की विजय का वर्णन में जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने कब्जे में ले लिया था और मथुरा के राजा गणपति नाग को समुद्रगुप्त हराया था। उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था,जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है। इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है। वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था। समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।

राजा समुद्रगुप्त के विरोधी राजाओं के उलेख से पता चलता है गंगा-यमुना को आखिर कार दोआब ‘अंतर्वेदी’ विषय के नाम से पहचाना जात है । स्कन्दगुप्त के शाशन काल में अंतर्वेदी का शासक ‘शर्वनाग’ था ऐसा उल्लेख किया गया है । इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे। सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो।

समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया। दिग्विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया। यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये। इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते है।

इनके बारे में भी जानिए :- जयंत विष्णु नार्लीकर की जीवनी

समुद्रगुप्त की अधीनता –

उनके पश्यात समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेवअपनी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। ये सब कर देकर, आज्ञाओं का पालन कर, प्रणाम कर, तथा राजदरबार में उपस्थित होकर सम्राट समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकृत करते थे। इस प्रकार करद बनकर रहले वाले प्रत्यन्त राज्यों के नाम हैं। 

समतट या दक्षिण-पूर्वी बंगाल –

  • कामरूप या असम
  • नेपाल
  • डवाक या असम का नोगाँव प्रदेश
  • कर्तृपुर या कुमायूँ और गढ़वाल के पार्वत्य प्रदेश।
  • निःसन्देह ये सब गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त या सीमा प्रदेश में स्थित राज्य थे।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार –

समुद्रगुप्त का प्रत्यक्ष प्रशासन साम्राज्य कि तरह व्यापक था। और यहाँ पर शायद पूरा उत्तर भारत शामिल था। उनके पश्यात यहाँ पर पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपुताना, सिंध, गुजरात और उड़ीसा गुप्त साम्राज्य भी शामिल नहीं थे। उसके बावजूद भी यहाँ का साम्राज्य विशाल था। पूर्व में, यह ब्रह्मपुत्र नदी के रूप में दूर तक विस्तारित था।

दक्षिण में, यह नर्मदा नदी को छू गया। उत्तर में, यह हिमालय तक पहुँच गया। ठीक ही इतिहासकार वीए स्मिथ ने समुद्रगुप्त के क्षेत्र और शक्ति कहने की सीमा को भी बताया है समुद्रगुप्त की चौथी शताब्दी की सरकार के बहुत ही अच्छे प्रभुत्व इस तरह भारत के सबसे अहम् आबादी वाले और उपजाऊ देशों में शामिल था।

यह पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में जमुना और चंबल तक फैला हुआ था। उत्तर में हिमालय के पैर से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक। ऐसे विस्तृत सीमाओं से पुरे, असम और गंगा के डेल्टा के साथ हिमालय और दक्षिणी ढलानों पर राजपुताना और मालवा की मुक्त जनजातियों के गठबंधन के समर्थन के बंधन द्वारा साम्राज्य से जुड़े थे।

दक्षिण को सम्राट की सेनाओं द्वारा उखाड़ फेंका गया था और अपनी अदम्य ताकत को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया था। इस प्रकार परिभाषित किया गया साम्राज्य अब तक का सबसे बड़ा था जो कि अशोक के छह शताब्दियों पहले के दिनों से भारत में देखा गया था और इसका अधिकार स्वाभाविक रूप से समुद्रगुप्त को विदेशी शक्तियों के सम्मान के लिए मिला था। 

Samrat Samudragupta History Hindi – 

Samudragupta का विदेशी शक्तियों से संबंध –

समुद्रगुप्त ने सिर्फ गुप्त साम्राज्य की सरहद पर अपनी सीमावर्ती राज्यों की और गणराज्यों को अपने वश में कर लिया, और तो और साम्राज्य के बाहर की फोरेन का साम्राज्य के मन में भी भय पैदा कर दिया। पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की शक्तियों के साथ-साथ दक्षिण में जैसे सिम्हाला या सीलोन के साम्राज्य ने गुप्त सम्राट को विभिन्न तरीकों से उनके सम्मान का भुगतान किया।

इलाहाबाद स्तंभ शिलालेख ऐसी सेवाओं को संदर्भित करता है जैसे व्यक्तिगत संबंध, मासिक सेवा के लिए युवतियों के उपहार और भेंट समुद्रगुप्त के बहुत करीब संबंधों के प्राप्त करने की भी अपील की, इंपीरियल गुप्ता गरुड़ सील को आकर्सन करते हुए, उनके लिए अपने देश के रूप में मैत्रीपूर्ण देशों पर शासन करने की गारंटी का संकेत दिया। Samudragupta ने अपनी इच्छाओं को दोस्ताना तरीके से स्वीकार किया।

उन फोरेन की ताकत के बीच जो दोस्ती जैसे संबंधों की दिष्या में आते थे, काबुल घाटी में बाद के कुषाण शासक थे, जो अब भी खुद को दैवपुत्र-शाही-शाहानुशाही के रूप में स्टाइल करना जारी रखते थे। सुदूर उत्तर-पश्चिम में शक शासक भी थे जिन्होंने Samudragupta का पक्ष लिया था।

समुद्रगुप्त का भारतवर्ष पर एकाधिकार –

समुद्रगुप्त का शाशन काल भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नाम के जित की खुशी के लिए विख्यात माना जाता ना है Samudragupta ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था।

उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में ‘प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है।

समुद्रगुप्त का अश्वमेध यज्ञ –

पुरे भारत में अबाधित राज किया था और बहुत बड़ी जित को ख़त्म कर के Samudragupta ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजान किया और यज्ञ में विराज मान हुई थे । शिलालेखों में उसे ‘चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता’ और ‘अनेकाश्वमेधयाजी’ कहा गया है।Samudragupta ने अश्वमेधो में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही उलेख नहीं किया बल्की इस अवसर से बेनिफिट लेकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था।

प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कई सिक्कों में अश्वमेध यज्ञ का भी चित्र बताया गया है। samudragupta coins अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किया गया था। Samudragupta के सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, और वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है  ‘राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्य राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है। 

इनके बारे में भी जानिए :- नरेंद्र मोदी की जीवनी

Samudragupta का प्रशस्ति गायन –

भारत के दक्षिण एवंम पश्चिम के बहुत से राजा Samudragupta के अस्तित्व में थे, और उसे बहुत ही अच्छे भेट पहुंचाकर उन्हें खुश रखते थे। और ऐसे तीन महान राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है।ये ‘देवपुत्र हिशाहानुशाहि’, ‘शक-मुरुण्ड’ और ‘शैहलक’ हैं। दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है। शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है,

जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था। पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे। सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है। इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा Samudragupta का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।

समुद्रगुप्त का एक अनुमान –

Samudragupta ने बिना भरोशा किये भारतीय हिस्टरी के सबसे महान राजा में से एक है समुद्रगुप्त ने एक सैनिक,और योद्धा संस्कृति के संरक्षक के रूप में, वह भारत के शासकों के बीच प्रतिष्ठित है। कुछ लोग उन्हें गुप्त वंश का सबसे बड़ा सम्राट मानते हैं। समुद्रगुप्त की महानता भारत के एकीकरण के लिए एक योद्धा के रूप में Samudraguptaकी साहसी भूमिका में थी। इस संबंध में, उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य samudragupta maurya की भूमिका को दोहराया।

वह भारत के उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से पर एक शाही सत्ता के राजनीतिक आधिपत्य को स्थापित करने में सफल रहे। अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण में,  जबकि उन्होंने ऊपरी भारत के अधिकांश हिस्सों को अपने प्रत्यक्ष प्रशासन के तहत एक ठोस राजनीतिक इकाई में परिवर्तित कर दिया, उन्होंने दक्खन, सीमांत राज्यों और जनजातीय क्षेत्रों को अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ के साथ उन पर एक निश्चित प्रभाव के साथ रखा।

समुद्रगुप्त भारत के नेपोलियन –

उपाधियां की बात करे तो समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता था। कला इतिहासकार और स्मिथ ने उनकी जित के लिए भारत के नेपोलियन के रूप में संदर्भित किया है। माना की कई अलग इतिहासकार इस तथ्य को कोय नहीं मानते थे, लेकिन नेपोलियन की तरह वह कभी पराजित नहीं हुये न ही निर्वासन या जेल में गये थे। उन्होंने 380 ईस्वी से अपनी मृत्यु तक गुप्त राजवंश पर शासन किया। 

समुद्रगुप्त की मुत्यु –

महाराजा समुद्रगुप्त की मृत्यु कब हुई ? और samudragupta death को लेकर कोय ज्ञात जानकारी मिलती नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता हे की उनकी शासनावधि ल. 335/350-380 तक की माने जाती है उन्होंने 380 ईस्वी से अपनी मृत्यु तक गुप्त राजवंश पर शासन किया।

Samudragupta Facts –

  • गुप्त काल को स्वर्ण युग क्यों कहते हैं ?
  • भारतीय के इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग माना गया है क्यों की गुप्तकाल में भारतीय विज्ञान से लेकर साहित्य, स्थापत्य तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में नये प्रतिमानों की स्थापना की गई जिससे यह काल भारतीय इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के रूप में जाना गया।
  • समुद्रगुप्त का शासनकाल भारत के लिये सोने का ( स्वर्णयुग ) की शुरूआत कही जाती है
  • समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेवअपनी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। 
  • यूरोप का समुद्रगुप्त कौन था (who was samudragupta) बहरहाल समुद्रगुप्त के पराक्रम और विजय अभियानों के कारण कुछ लोग उनकी तुलना नेपोलियन से करते हैं और इसी आधार पर नेपोलियन को यूरोप का समुद्रगुप्त कहा जा सकता है। 

इनके बारे में भी जानिए :- जेम्स वाट की जीवनी हिंदी में

Samudragupta Question –

1 .गुप्त वंस के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कोन थे ?

पूर्ववर्ती चन्द्रगुप्त प्रथम  ,उत्तरवर्ती चन्द्रगुप्त द्वितीय या रामगुप्त है। 

2 .भारतीय इतिहास में कौन सा काल स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है ?

भारतीय इतिहास में गुप्त काल को स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है

3 .समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का मुख्य उद्देश्य क्या था ?

समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का मुख्य उद्देश्य भारत में राष्ट्रीय एकता की स्थापना करना था। 

4 .समुद्रगुप्त ने कब तक शासन किया ?

समुद्रगुप्त ने करिबन (राज 335/350-380)

5 .गुप्त वंश का अन्तिम शासक कौन था ?

कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।

6 .गुप्त वंश के बाद कौन सा वंश आया ?

गुप्तों के पतन के बाद हूण, मौखरि, मैत्रक, पुष्यभूति और गौड का शाशन आया। 

7 .कौन सा ग्रंथ गुप्त काल में रचा गया ?

हितोपदेश व पंचतंत्र की रचना भी गुप्त काल में हुई है

8 .दक्षिण में समुद्रगुप्त की नीति क्या थी ?

उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया

9 .समुद्रगुप्त ने कलिंग पर कब आक्रमण किया था ?

समुद्रगुप्त ने कलिंग पर 350 – 418 ई. में आक्रमण किया था

10.गुप्त काल का सबसे प्रसिद्ध वेद कौन था ?

इतिहास का सर्वप्रमुख स्त्रोतअभिलेख है। जिसे ‘प्रयाग-प्रशस्ति’ कहा जाता है।

11 .गुप्त काल की सबसे प्रसिद्ध स्त्री शासिका कौन थी  ?

गुप्त काल की सबसे प्रसिद्ध स्त्री शासिका प्रभावती गुप्त थी

12 .समुद्रगुप्त का दूसरा नाम क्या था ?

समुद्रगुप्त का दूसरा नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है

13 .समुद्र्गुप्त के माता -पिता का नाम क्या था ?

समुद्र्गुप्त के पिता का नाम चन्द्रगुप्त प्रथम था और माता का नाम कुमारादेवी था

14 .समुद्रगुप्त का दरबारी कवि कौन था ?

समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिसेन था

15 .समुद्रगुप्त का पुत्र कौन है ?

समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय था

16 .समुद्रगुप्त की पत्नी कौन है ?

समुद्रगुप्त की पत्नी दत्तदेवी थी

17 .समुद्र्गुप्त का घराना क्या था ?

समुद्र्गुप्त का घराना गुप्त राजवंश था। 

Conclusion –

आपको मेरा Samudragupta Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये samudragupta father और samudragupta empire map से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Read More >>

Nepolian Bona Part Biography In Hindi - नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

Nepolian Bona Part Biography In Hindi | नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Nepolian bona part Biography In Hindi में विश्व के महान सेनापति पूरी दुनिया में एकछत्र शासन स्थापित करने वाले नेपोलियन बोनापार्ट सम्राट की जीवनी बताने वाले है। 

18 मई 1804 से 6 अप्रैल 1814 तक सम्राट रहने वाला नेपोलियोनि दि बोनापार्टे 11 नवम्बर 1799 से 18 मई 1804 तक फ्रान्स की क्रान्ति में प्रथम कांसल के रूप में शासक रहे थे। उसकी कार्य कुशलता इस तरह की थी कि पूरी दुनिया आज भी उन्हें उनके अद्भुत युद्ध कौशल के लिए याद करती है ,उनकी युद्धकौशल का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विरोधी उनकी ख्याति से इतना घबरा गए कि उन्हें मारने के लिए ज़हर दे दिया था। आज nepolian bona part in hindi history में आपको nepolian bona part quotes in hindi , what did napoleon do ? और napoleon bonaparte french revolution की कहानी बताने वाले है।

आज हम बात कर रहे है विश्व के महान विजेताओं में से एक नेपोलियन बोनापार्ट की ,आज हम आपको Nepolian bona part history in hindi बताते है। nepolian bona part thoughts बहुत ऊँचे हुआ करते थे उन्होंने एक विचार करलिया था की उनका शाशन पुरे विस्व पर चले सके तो चलिए उस महान व्यक्ति के व्यक्तित्व से आप सबको रूबरू करवाते है। 

Nepolian Bona Part Biography In Hindi –

नाम

नेपोलियन बोनापार्ट

जन्म

15 अगस्त 1769

जन्म स्थान

कोर्सिका के अजियाको में

पिता

कार्लो बोनापार्ट

माता

लेटीजिए रमोलिनो

विवाह

जोसेफीन , मैरी लुईस

पत्नि

जोसेफीन , मैरी लुईस

मृत्यु

1821

मृत्यु का कारण 

पेट का कैंसर

नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी –

 nepolian bona part date of birth15 अगस्त 1799 केको कोर्सिका के अजियाको में हुआ था।

नेपोलियन फ्रैजस, फ्रांस में उतरा, जहां उन्होंने फ्रांसीसी निर्देशिका, फ्रांस के अलोकप्रिय शासी निकाय को उखाड़ने में मदद की।

उन्हें नए स्थापित फ्रांसीसी वाणिज्य दूतावास में पहली कांसुल का नाम दिया गया था।

1800 में, उन्होंने अपनी सेना का नेतृत्व इटली में किया, जहां उन्होंने ऑस्ट्रियाई लोगों को हराया

और इटली को फ्रांसीसी नियंत्रण में लाया।

nepolian bona part ने फ्रेंच और रोमन कैथोलिक के बीच सद्भाव बहाल किया।

शिक्षा के पुनर्गठन के माध्यम से फ्रांस में सुधार की स्थिति, बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना की थी।

नेपोलियन संहिता को शुरू करने से फ्रांस के कानूनी प्रणाली में सुधार किया।

नेपोलियन ने सरकार को केंद्रीकृत करके क्रांति के बाद फ्रांस की स्थिरता को बहाल करने,

बैंकिंग प्रणाली जैसे सुधार संस्थानों और विज्ञान और कला का समर्थन करने के लिए काम किया।

Nepolian bona part photo
Nepolian bona part photo

इसे भी पढ़े :- सम्राट हर्षवर्धन की जीवनी

Nepolian Bona Part कौन था – 

नेपोलियन बोनापार्ट कौन था ? नेपोलियन शासन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक नेपोलियन संहिता थी, जो एक यूरोपीय कानून में नागरिक कानून प्रणाली के साथ स्थापित होने वाला पहला कानूनी कोड था। नेपोलियन संहिता यूरोपीय सीमाओं से परे देशों को प्रभावित करती थी क्योंकि नेपोलियन युद्धों के दौरान और बाद में बनाए गए कई देशों के कानूनों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा था।

nepolian bona part संहिता, कानूनों और लोगों के साथ विवाह, नागरिक अधिकार, अभिभावक-बच्चे के रिश्तों, संपत्ति और स्वामित्व सहित, विवाह के माध्यम से विरासत, अन्य अधिकारों के साथ निपटा। नेपोलियन ने यह भी आग्रह किया कि यूरोप के क्षेत्रों में यहूदी को भूमि और संपत्ति के मालिक होने और आज़ादी से पूजा करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

यद्यपि यह रूढ़िवादी चर्च से निंदा करता था, उनका मानना ​​था कि धार्मिक स्वतंत्रता एक यहूदी आबादी को फ़्रांसिसी-नियंत्रित क्षेत्रों में आकर्षित करेगी, इस प्रकार यहूदियों के साथ फ्रेंच समाज को एकजुट करेगा। हालांकि 1805 में, ब्रिटिश सेना ने फ्रांसीसी नौसेना की ताकत को नष्ट कर दिया, नेपोलियन ऑस्ट्रेलित्ज़ के युद्ध में ऑस्ट्रिया और रूस को हराकर सक्षम था। 

नेपोलियन बोनापार्ट ने ब्रिटिश और प्रशियाई सेनाओं को हराया –

1806 में, उसकी सेना ने प्रशियाई सेना को नष्ट कर दिया जून 1807 में, रूसी नेता अलेक्जेंडर ने टिसिल में शांति बनाकर नेपोलियन को पश्चिम और मध्य यूरोप के पुनर्गठन के लिए स्वतंत्र बनाया था।इंग्लैंड को चोट पहुंचाने के प्रयास में, उन्होंने कॉन्टिनेंटल सिस्टम की शुरुआत की, जिसने यूरोपीय व्यापार से यूरोपीय महाद्वीपीय बंदरगाहों को अवरुद्ध किया, और अधिकतर यूरोपीय शक्तियों को निराश किया।

मित्र देशों ने अक्टूबर 1813 में लेपज़िग की लड़ाई में नेपोलियन की सेना को हराया, और नेपोलियन को एक छोटे द्वीप में एल्बा, को निर्वासित किया गया। वह फ्रांस में वापस जाने और सत्ता को फिर से स्थापित करने से पहले केवल तीन सौ दिन पहले ही रहे। 1815 में, वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन के शासन का विरोध करने के लिए यूरोपीय शक्तियों ने एक साथ शामिल हो गए।

18 जून 1815 को, neponline को ब्रिटिश और प्रशियाई सेनाओं ने हराया था, नेपोलियन को तीन दिन बाद ही पद छोड़ना पड़ा। नेपोलियन ने बाद में 3 जुलाई को ब्रिटिशों को आत्मसमर्पण किया और सेंट हेलेना के द्वीप पर निर्वासन में भेजा गया, जहां उनका कैंसर 5 मई, 1821 को हुआ।

Nepolian bona part image
Nepolian bona part image

नेपोलियन बोनापार्ट का जीवन परिचय – Nepolian Bona Part Kon Tha

15 अगस्त को कोर्सिका के अजियाको में नेपोलियन का जन्म हुआ था। कब्जे वाले फ्रांसीसी बलों ने द्वीप को चलाने के लिए इसे एक साल पहले जेनोआ से हासिल किया था। हालांकि स्थानीय मानकों से दूर, नेपोलियन के माता-पिता अमीर नहीं थे, और कुलीन वंश के उनके जोरदार दावे जांच के लिए खड़े नहीं हो पाए।

उनकी मां लेटिजिया और nepolian bona part father कार्लो कोर्सिका के पूंजीपति वर्ग का हिस्सा थे। एक बार फ्रांसीसी कब्जे के लिए कोर्सीकन के प्रतिरोध में शामिल होने के बाद, कार्लो ने फ्रांसीसी के साथ व्यक्तिगत शांति बना ली थी जब नेता पासक्वाले पाओली को भागने के लिए मजबूर किया गया था और शाही अदालत का मूल्यांकनकर्ता बन गया था। नेपोलियन के जन्म के संदर्भ में उनके उल्लेखनीय भविष्य पर संकेत दिया गया है।

नेपोलियन बोनापार्ट की शिक्षा –

वृद्ध नौ, नेपोलियन फ्रांस में स्कूल के लिए रवाना हुए। वह एक बाहरी व्यक्ति था, अपने नए घर के रीति-रिवाजों और परंपराओं में उलझा हुआ था।हमेशा सेना के लिए किस्मत में, नेपोलियन को पहले शिक्षित किया गया था, संक्षेप में, ऑटुन में, फिर पेरिस में सैन्य अकादमी में अंतिम वर्ष से पहले बेरेन में पांच साल। उन्होंने सितंबर 1785 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसमें 58 की संख्या में 42 वें स्थान पर थे।

यह तब था जब वह पेरिस में थे कि नेपोलियन के पिता की मृत्यु हो गई, जिससे परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। अभी तक 16 नहीं, और यहां तक ​​कि सबसे बड़े बेटे भी नहीं थे, फिर भी यह नेपोलियन था जिसने परिवार के प्रमुख के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। वृद्ध नौ, नेपोलियन फ्रांस में स्कूल के लिए रवाना हुए। वह एक बाहरी व्यक्ति था, अपने नए घर के रीति-रिवाजों और परंपराओं में उलझा हुआ था।

Nepolian bona part image hd
Nepolian bona part image hd

इसे भी पढ़े :- विलियम मॉरिस का जीवन परिचय

नेपोलियन बोनापार्ट का करियर- (Napoleon Bonaparte’s Career)

बाल्यवस्था में ही nepolian bona part family के भरण पोषण का उत्तरदायित्व कोमल कंधों पर आने के कारण उसे वातावरण की जटिलता अनुसार व्यवहार करने की कुशलता मिल थी। फ्रेंच क्रांति में उसका प्रवेश युगांतरकारी घटनाओं का संकेत दे रहा था। फ्रांस के विभिन्न वर्गों से संपर्क स्थापित करने में कोई संकोच या हिचकिचाहट नहीं थी।

उसने जैकोबिन दल में प्रवेश किया था। 20 जून के तुइलरिए के अधिकार के अवसर पर उसे घटनाओं से प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। फ्रांस के राजतंत्र की दुर्दशा का उसे पूर्ण ज्ञान हो गया था। यहीं से नैपोलियन के विशाल व्यक्तित्व का आविर्भाव हुआ। nepolian bona part के उदय तक फ्रेंच क्रांति पूर्ण अराजकता में परिवर्तित हो चुकी थी। जैकोबिन और गिरंडिस्ट दलों की प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य के परिणाम स्वरूप ही  ‘आतंक का शासन’ संचालित किया गया था। 

जिसमें एक एक करके सभी क्रांतिकारी यहाँ तक कि स्वयं राब्सपियर भी मार डाला था।

1793 में टूलान के घेरे में नैपोलियन को प्रथम बार अपना शौर्य एवं कलाप्रदर्शन का अवसर मिला था।

डाइरेक्टरी का एक प्रमुख शासक बैरास उसकी प्रतिभा से आकर्षित हो उठा।

 1795 में जब भीड़ कंर्वेशन को हुई थी।  तो डाइरेक्टरी द्वारा विशेष रूप से आयुक्त होने पर नैपोलियन ने कुशलतापूर्वक कंवेंशन की रक्षा की और संविधान को होने दिया। इन सफलताओं ने सारे फ्रांस का ध्यान नैपोलियन की ओर आकृष्ट किया।डाइरेक्टरी ने उसे इटली के अभियान का नेतृत्व दिया। 2 मार्च 1796 एक सप्ताह में उसने जोज़ेफीन से विवाह किया और  अपनी सेना सहित इटली में प्रवेश किया।

नेपोलियन बोनापार्ट राजा कैसे बने – (How did napoleon bonaparte become king)

आपको पता है की नेपोलियन बोनापार्ट ने 1904 में खुद को कहां का सम्राट घोषित किया ? नेपोलियन 16 साल का हुआ तब सेना के उच्च विभाग में नियुक्ति के लिए नेपोलियन का साक्षात्कार लिया गया जिसमे उनेक उत्तर सुनकर परीक्षक चकित रह गये | अब उन्हें तोपखाने की सेना में द्वितीय लेफ्टिनेट के पद मिल गया जिसमे आय भी थोड़ी ज्यादा थी | 1796 में उन्हें इटली की फ्रेंच सेना का कमांडर बना दिया गया

जहा उन्होंने आस्ट्रिया एव उसके मित्र राष्ट्रों को शान्ति कायम करने के लिए विवश किया | 1788 में उन्होंने ओटोमन द्वारा शाषित मिश्र को जीत लिया था |अब फ़्रांस एक नये संकट से झुझ रहा था जब आस्ट्रिया व् रूस , ब्रिटन के साथ मैत्री कर चुके थे | उधर तरफ नेपोलियन पेरिस लौट आ ये थे जहा सरकार संकट में थी |1799 में nepolian bona part को उनको फ़्रांस का वाणिज्यदूत चुना गया और 1804 में नेपोलियन को फ़्रांस का सम्राट घोषित किया गया। 

अब सरकार में आते ही नेपोलियन ने सरकार के केन्द्रीकरण , बैंक ऑफ़ फ्रांस के निर्माण , रोमन कैथोलिक धर्म की पुन: प्रतिष्ठा और कोड नेपोलियन की सहायता से कानून व्यस्व्स्था को दुरुस्त किया था| 1800 में नेपोलियन ने आस्ट्रिया को पराजित कर दिया था | उन्होंने एक जनरल यूरोपीयन शान्ति समझौता किया जिससे पुरे महाद्वीप पर फ्रेच सत्ता स्थापित हो गयी थी |

Images for nepolian bona part
Images for nepolian bona part

इसे भी पढ़े :- रॉबर्ट बर्न्स की जीवनी परिचय

Nepolian Bona Part Marriage – (नेपोलियन बोनापार्ट का विवाह)

नेपोलियन ने अपनी प्रथम पत्नी ‘जोसेफ़िन’ के निस्संतान रहने पर ऑस्ट्रिया के सम्राट की पुत्री ‘मैरी लुईस’ से दूसरा विवाह किया। जिससे उसे संतान प्राप्त हुई थी और पिता बन सका।

नेपोलियन बोनापार्ट ने कितने युद्ध किये थे – (How many wars did napoleon bonaparte)

nepolian bona part जब तक सत्ता में रहा युजिन रहारा यूरोप त्रस्त था। इन युद्धों को सम्मिलित रूप से नेपोलियन के युद्ध कहा जाता है। 1803 से लेकर 1819 तक कोई साठ युद्ध उसने लड़े थे जिसमें से सात में उसकी पराजय अपने अन्तिम दिनों में। इन युद्धों के फलस्वरूप यूरोपीय सेनाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। परम्परागत रूप से इन युद्धों को 1972 में फ्रांसीसी क्रांति के समय शुरू हुए क्रांतिकारी युद्धों की शृंखला में ही रखा जाता है। आरम्भ में फ्रांस की शक्ति बड़ी तेजी से बढ़ी और नैपोलियन ने यूरोप का अधिकांश भाग अपने अधिकार में कर लिया। 1892 में रूस पर आक्रमण करने के बाद फ्रांस का बड़ी तेजी से पतन हुआ।

फ्रांस और इंग्लैण्ड का युद्ध – (nepolian bona part war of France and England)

मई 1803 में फ्रांस और इंग्लैण्ड में परस्पर युद्ध छिड़ गया।

नेपोलियन ने इटली के पीडमांड राज्य को फ्रांस में सम्मिलित कर लिया।

हालैण्ड को अपने अधिकार में करके वहां के एण्टवर्प बंदरगाह को जल सेना के लिए विस्तृत करना प्रारंभ कर दिया।

उसके ये कार्य इंग्लैण्ड के हितों के विरूद्ध थे, इसलिए 18 मई 1803 को इंग्लैण्ड ने फ्रांस के विरूद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

Nepolian Bona Part
Nepolian Bona Part

ट्रफलगार युद्ध –

21 अक्टूबर 1805 को फ्रांस और स्पेन की संयुक्त जल सेना और नेलसन के नेतृत्व वाली अंग्रेज जलसेना के मध्य ट्रफलगार के समीप समुद्र में भयंकर युद्ध हुआ। इसे ट्रफलगार का युद्ध कहते हैं।  यद्यपि इस युद्ध में नेलसन वीरगति को प्राप्त हुआ, पर इंग्लैण्ड की जलसेना ने फ्रांस और स्पेन की संयुक्त जल सेना को ट्रफलगार के युद्ध में परास्त कर दिया। फ्रांस की इस पराजय से नेपोलियन द्वारा समुद्र की ओर से इंग्लैण्ड पर आक्रमण करने का भय समाप्त हो गया।

इसे भी पढ़े :- राणा सांगा की जीवनी

फ्रांस और आस्ट्रिया के बिच युद्ध – (War between France and Australia)

nepolian bona part ने मेक के सेनापतित्व में आस्ट्रिया की सेना पर आक्रमण कर उसे 20 अक्टूबर 1805 के उल्म के युद्ध में परास्त कर दिया। इस विजय के बाद नेपालियन ने वियना पर अधिकार कर लिया। आस्ट्रिया का शासक फ्रांसिस द्वितीय वियना छोड़कर पूर्व की ओर चला गया।

नेपोलियन बोनापार्ट
नेपोलियन बोनापार्ट

ऑस्टरलिट्ज युद्ध – (Austerlitz war)

नेपोलियन ने रूस और आस्ट्रिया की संयुक्त सेनाओं को अक्टूबर 1805 को आस्टरलिट्ज के युद्ध में परास्त कर दिया।

यह विजय नेपोलियन की महत्वपूर्ण विजयों में से थी।

रूस ने इस पराजय के बाद अपनी सेनाएँ पीछे हटा लीं और आस्ट्रिया ने नेपोलियन के साथ

26 दिसम्बर 1805 ई. को प्रेसवर्ग की संधि कर ली। 

फ्रांस और रूस के बिच युद्ध – (War between France and Russia)

नेपोलियन के विरूद्ध जो तीसरा गुट (थर्ड कोलिएशन) निर्मित हुआ था उसमें अब इंग्लैण्ड और रूस ही शेष बचे थे,

बाकी सदस्य देश नेपोलियन के हाथों परास्त हो चुके थे। नेपोलियन रूस की ओर आगे बढ़ा था।

8 जनवरी 1807 को आइलो नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ।

14 जून 1807 को फ्रीडलैण्ड के युद्ध में नेपोलियन ने रूस को परास्त कर दिया।

पराजय के बाद रूस के सम्राट जार एलेक्जेंडर ने नीमेन नदी में शाही नाव में नेपोलियन से भेंट की।

इस अवसर पर नेपोलियन ने अपने आकर्षक प्रभावशाली व्यक्तित्व और मधुर शिष्टाचार से जार को प्रसन्न कर लिया।

अंत में टिलसिट नगर में फ्रांस, रूस और प्रशास के प्रतिनिधियों में टिलसिट की संधि हो गई।

नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी
नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

Nepolian Bona Part की हार कब हुई –

नेपोलियन बोनापार्ट ने 60 युद्धों में भाग लिया जिसमें से केवल सात में हार का सामना किया। जो उनके पतन के समय थे।

वर्ष 1812 में नेपोलियन द्वारा रूस पर आक्रमण के पश्चात फ़्रांसीसी प्रभुत्व का तेजी से पतन हो गया।

1894 मे नेपोलियन की हार और 1895 में वाटरलू के युद्ध में पूर्ण रूप से हार गये।

इसे भी पढ़े :-राजा महेन्द्र प्रताप की जीवनी

नेपोलियन बोनापार्ट की मृत्यु – 

फ़्रांस के सम्राट nepolian bona part की मौत को लेकर तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं।

लेकिन अधिकांश इतिहासकार ये मानते हैं कि उनकी मौत का कारण पेट का कैंसर था।

वॉटरलू की लड़ाई में हार जाने के बाद नेपोलियन को 1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप निर्वासित कर दिया गया था।

जहाँ 52 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। 

लेकिन सन 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके पाया कि उसमें आर्सनिक नामक ज़हर था।

ये कहा गया कि संभवत सेन्ट हैलेना के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने फ़्रांस के काउंट के

साथ मिलकर नेपोलियन की हत्या की साज़िश रची।

फिर अमरीकी वैज्ञानिकों ने बिल्कुल ही अलग व्याख्या की थी।

उन्होंने कहा कि नेपोलियन की बीमारी का जो उपचार किया गया उसी ने उन्हें मार दिया। 

उन्हें नियमित रूप से पोटेशियम टार्ट्रेट नामक ज़हरीला नमक दिया जाता था।

जिससे वो उलटी कर सकें और ऐनिमा लगाया जाता था। 

इससे उनमें पोटेशियम की कमी हो गई जो कि दिल के लिए घातक होती है।

नेपोलियन को उनकी आंतों की सफ़ाई के लिए 600 मिलिग्राम मरक्यूरिक क्लोराइड दिया गया।

और दो दिन बाद nepolian bona part death हो गई। 

Nepolian Bona Part Video – (नेपोलियन बोनापार्ट वीडियो)

Nepolian Bona Part Facts – नेपोलियन बोनापार्ट के रोचक तथ्य

  • नेपोलियन का जन्म 15 अगस्त को कोर्सिका के अजियाको में हुआ था। 
  • पेरिस में सैन्य अकादमी में  सितंबर 1785 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसमें 58 की संख्या में 42 वें स्थान पर थे।
  • नेपोलियन बोनापार्ट ने 60 युद्धों में भाग लिया जिसमें से केवल सात में हार का सामना किया था। 
  • 1812 में नेपोलियन द्वारा रूस पर आक्रमण के पश्चात फ़्रांसीसी प्रभुत्व का तेजी से पतन हो गया। 
  • मेक के सेनापतित्व में आस्ट्रिया की सेना पर आक्रमण कर
  • उसे 20 अक्टूबर 1805 के उल्म के युद्ध में परास्त कर दिया।
  • 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके कहाकी उसमें आर्सनिक नामक ज़हर था। 
  • नेपोलियन रूस की और 8 जनवरी 1807 को आइलो नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में
  • भीषण लड़ाई हुई एव रूस को परास्त कर दिया।
  • पेरिस में सैन्य अकादमी में अंतिम वर्ष से पहले बेरेन में पांच साल नेपोलियन ने सितंबर 1785 में स्नातक  हुए थे। 
  • नेपोलियन को उनकी आंतों की सफ़ाई के लिए 600 मिलिग्राम मरक्यूरिक क्लोराइड दिया गया था। 
  • वॉटरलू की लड़ाई में हार जाने के बाद नेपोलियन 1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप निर्वासित किया।
  • जहाँ 52 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। 
Nepolian Bona Part Biography
Nepolian Bona Part Biography

इसे भी पढ़े :- भक्त सूरदास की जीवनी

Nepolian Bona Part FAQ – (नेपोलियन बोनापार्ट प्रश्न)

1. nepolian bona part kahan parajit hua ?

1894 मे नेपोलियन की हार और 1895 में वाटरलू के युद्ध में पूर्ण रूप से हार गये।

2 .नेपोलियम बोनापार्ट के माता-पिता कौन है ?

नेपोलियम बोनापार्ट के पिता का नाम कार्लो और माता का नाम लेटिजिया है। 

3 .नेपोलियम बोनापार्ट को फ़्रांस का सम्राट कब घोषित किया था ?

nepolian bona part को  1804 में फ़्रांस का सम्राट घोषित किया गया। 

4 .नेपोलियम बोनापार्ट ने कितने युद्ध लड़े थे?

राजा नेपोलियम बोनापार्ट ने करीबन 60 युद्ध लडे थे। 

5 .नेपोलियम बोनापार्ट ने 60 युद्धों में से कितने युद्ध हार गया था ?

60 युद्धों में 7 युद्ध में नेपोलियम बोनापार्ट को पराजय का सामना करना पड़ा था। 

6 .सन 2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल के परीक्षण में क्या पाया गया है ?

2001 में फ़्रांसीसी विशेषज्ञों ने नेपोलियन के बाल का परीक्षण करके पाया कि उसमें आर्सनिक ज़हर था। 

7 .नेपोलियम बोनापार्ट ने कब रूस को परास्त किया था ?

14 जून 1807 को फ्रीडलैण्ड के युद्ध में नेपोलियन ने रूस को परास्त कर दिया।

8 .नेपोलियम बोनापार्ट ने अंतिम युद्ध कौनसा लड़ा था ?

अंतिम वॉटरलू की लड़ाई लड़ी ,उसमे नेपोलियम को हार का सामना करना पड़ा था। 

9 .नेपोलियम बोनापार्ट की वाइफ कौन थी ?

 जोसेफ़िन’ और ‘मैरी लुईस’ नेपोलियन की पत्नी थी। 

10 .नेपोलियम बोनापार्ट का अवसान कब हुवा था ?

1821 में सेन्ट हैलेना द्वीप पर  नेपोलियन की 52 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई। 

11 .नेपोलियम बोनापार्ट का जन्म कब और कहा हुवा था ?

15 अगस्त 1769 कोर्सिका के अजियाको में नेपोलियन का जन्म हुआ था।

Conclusion –

इसे भी पढ़े :- चाँद बीबी की जीवनी

नेपोलियन बोनापार्ट के अनमोल विचार, नेपोलियन बोनापार्ट का इतिहास, नेपोलियन बोनापार्ट के उदय के कारण और नेपोलियन के पतन का कारण की विस्तृत चर्चा हमने बताई है। 

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल napoleon bonaparte biography In Hindi पूरी तरह से समज आ गया होगा और बहुत पसंद भी आया होगा । इस लेख के जरिये  हमने how did napoleon die ? ,who was napoleon bonaparte और empress josephine से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

Read More >>

Biography of Rana Ratan Singh in Hindi - राणा रतन सिंह की जीवनी हिंदी में

Rana Ratan Singh Biography In Hindi | राणा रतन सिंह की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे आर्टिकल में आपका स्वागत है ,आज हम Rana Ratan Singh Biography In Hindi में गुहिल वंश चित्तौड़गढ़ के महान प्रतापी महाराजा जो अपनी राजपूताना बहादुरी के लिए पहचाने जाने वाले राणा रतनसिंह का जीवन परिचय बताने वाले है।

तेरहवीं शताब्दी की शुरुआती वर्षो में चित्तौर की राजगद्दी सँभालने वाले बप्पा रावल के गुहिलौत वंश के अंतिम शासक और रावल समरसिंह के पुत्र रावल रत्नसिंह थे। उनका राज्याभिषेक 1301ई० में मानाजाता है। गुहिल वंश के वंशज रतनसिंह के वंश की शाखा रावल से सम्बंधित है , उन्होंने चित्रकूट के किले पर राज कीया था वह अब चित्तौड़गढ़ कहजता है ,रतन सिंह अपनी राजपूताना बहादुरी से पुरे विस्व  प्रसिद्ध हुए है।

आज हम Maharana ratan singh wife पद्मिनी ,rana ratan singh son name और rana ratan singh family tree से जुडी सभी माहिती से आपको महितगार कराने वाले है। राणा रतनसिंह के शासनकाल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखी गई कविता ‘पद्मावती’ में मिलती है। मोहम्मद जायसी ने ये कविता सन् 1540 में लिखी थी। राजस्थान के महान प्रतापी राजा राणा रतन सिंह के कितने पुत्र थे ? रतन सिंह का खेड़ा किसे कहते है जैसे कई सवालों के जवाब आज की पोस्ट में सबको मेवाड़ का इतिहास बताने वाले है। 

Rana Ratan Singh Biography In Hindi –

नाम रावल रतन सिंह
जन्म 13 वीं सदी के मध्य (मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत के अनुसार)
जन्म स्थान चित्तौड़, (वर्तमान में चित्तौड़गढ़) राजस्थान
पिता समरसिह
पत्नी रानी पद्मिनी
धार्मिक मान्यता हिन्दू धर्म 
राजधानी चित्तौड़गढ़
राजघराना राजपूत (चित्तोड़ का इतिहास)
वंश  गुहिलौत राजवंश
मृत्यु 14 वीं शताब्दी (1303) के प्रारम्भ में (मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत के अनुसार)

राणा रतन सिंह की जीवनी –

रावल रतन सिंह का जन्म 13वी सदी के अंत में हुआ था ,उनकी जन्म तारीख इतिहास में कही उपलब्ध नही है , रतनसिंह राजपूतो की रावल वंश के वंशज थे। जिन्होंने चित्रकूट किले (चित्तोडगढ) पर शासन किया था , रतनसिंह ने 1302 ई. में अपने पिता समरसिंह के स्थान पर गद्दी सम्भाली , जो मेवाड़ के गुहिल वंश के वंशज थे , रतनसिंह को राजा बने मुश्किल से एक वर्ष भी नही हुआ कि अलाउदीन ने चित्तोड़ पर चढाई कर दी , और तो और वह घेरा से सुल्तान ने 6 महीने तक इनके किले पर अधिकार जमाया था।

इसके बारे में भी जानिए :- कृष्ण देव राय की जीवनी

राणा रतनसिंह का प्रारंभिक जीवन –

छ महीने तक घेरा करने के बाद सुल्तान ने दुर्ग पर अधिकार तो कर लिया ,लेकिन इस जीत के बाद एक ही दिन में 30 हजार हिन्दुओ को बंदी बनाकर उनका संहार किया गया | जिया बर्नी तारीखे फिरोजशाही में लिकता है कि 4 महीने में मुस्लिम सेना को भारी नुकसान पहुचा था। अपने पिता समर सिंह की मुत्यु के बाद रतन सिंह ने राजगद्दी पर 1302 सीई. में अपने राज्य की भागदौड़ अपने हाथ लेली और उस पर उन्होंने 1303 सीई तक शासन किया था।  1303 सीई में दिल्ली सल्तनत के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने उन्हें पराजित कर उनकी गद्दी पर कब्जा कर लिया था। 

रानी पद्मिनी से विवाह – Ratan Singh

रावल समरसिंह के बाद रावल रतन सिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रावल रतन सिंह का विवाह रानी पद्मिनी के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी के रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। रतन सिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी थी। 

अलाउद्दीन ख़िलज़ी और पद्मिनी –

राणा रतन सिंह का इतिहास देखे तो उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रतनसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि हमारे साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहते हे , रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।”

रतनसिंह ख़िलज़ी का यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि मेरे खातिर चित्तोड़ के किसी भी सैनिक का रक्त नहीं बहाना चाहिए ,रानी को अपनी नहीं पूरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।

इसके बारे में भी जानिए :- नेपोलियन बोनापार्ट की जीवनी

ख़िलजी और रतन सिंह की लड़ाई –

Rana rawal ratan singh जयपुर में हिस्ट्री के प्रोफेसर राजेंद्र सिंह खंगरोट बताते हैं कि ‘ अलाउद्दीन ख़िलजी और Maharawal ratan singh के टकराव को अलग करके नहीं देखा जा सकता ये सत्ता के लिए संघर्ष था जिसकी शुरुआत मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच साल 1191 में होती है। जयगढ़, आमेर और सवाई मान सिंह पर किताब लिख चुके खंगरोट ने कहा, ”तुर्कों और राजपूतों के बीच टकराव के बाद दिल्ली सल्तनत और राजपूतों के बीच संघर्ष शुरू होता है। इनके बाद ग़ुलाम से शहंशाह बने लोगों ने राजपुताना में पैर फैलाने की कोशिश की थी। 

कुत्तुबुद्दीन ऐबक अजमेर में सक्रिय रहे. इल्तुत्मिश जालौर, रणथंभौर में सक्रिय रहे , बल्बन ने मेवाड़ में कोशिश की, लेकिन कुछ ख़ास नहीं कर सके। उन्होंने कहा कि संघर्ष पहले से चल रहा था और फिर ख़िलजी आए जिनका कार्यकाल रहा 1290 से 1320 के बीच. ख़िलजी इन सब में सबसे महत्वाकांक्षी माने जाते हैं। चित्तौड़ के बारे में साल 1310 का ज़िक्र फ़ारसी दस्तावेज़ों में मिलता है जिनमें साफ़ इशारा मिलता है कि ख़िलजी को ताक़त चाहिए थी और चित्तौड़ पर हमला राजनीतिक कारणों की वजह से किया गया था। 

ऐतिहासिक उल्लेख –

Rana Ratna singh अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहास लेखक की स्थिति से न तो ‘तारीखे अलाई’ में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र ख़ाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा ‘मसनवी खिज्र ख़ाँ’ में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत ‘पद्मावत की रचना की हुई है।

70 वर्ष पश्चात् सन् 1610 में ‘पद्मावत’ के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। गौरीशंकर हीराचंद ओझा का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फ़रिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यही है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रतनसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी थी। 

इसके बारे में भी जानिए :- सम्राट हर्षवर्धन की जीवनी

राजा रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी का युद्ध –

चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन ख़िलज़ी की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने अमीर खुसरव के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर और ‘पद्मावत की कथा’ के आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपम सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है। 28 जनवरी, 1303 ई. को अलाउद्दीन ख़िलज़ी का चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार हो गया था । राणा रतन सिंह युद्ध में शहीद हुआ और उसकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया।

क़िले पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर ‘ख़िज़्राबाद’ रखा और ख़िज़्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया। चित्तौड़ को पुन स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने ख़िज़्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया। 

चित्तोडगढ की घेराबंदी –

Raja Rawal ratan singh history in hindi देखे तो 28 जनवरी 1303 को अलाउदीन की विशाल सेना चित्तोड़ की ओर कुच करने निकली। किले के नजदीक पहुचते ही बेडच और गम्भीरी नदी के बीच उन्होंने अपना डेरा डाला था ,अलाउदीन की सेना ने चित्तोडगढ किले को चारो तरफ से घेर लिया। अलाउदीन खुद चितोडी पहाडी के नजदीक सब पर निगरानी रख रहा था। करीब 6 से 8 महीन तक घेराबंदी चलती रही। खुसरो ने अपनी किताबो में लिखा है कि दो बार आक्रमण करने में खिलजी की सेना असफल रही थी। 

जब बरसात के दो महीनों में खिलजी की सेना किले के नजदीक पहुच गयी लेकिन आगे नही बढ़ सकी थी ,तब अलाउदीन ने किले को पत्थरों के प्रहार से गिराने का हुक्म दिया था। 26 अगस्त 1303 को आखिरकार अलाउदीन किले में प्रवेश करने में सफल रहा था ,जीत के बाद खिलजी ने चित्तोडगढ की जनता के सामूहिक नरसंहार का आदेश दिया था। 

इसके बारे में भी जानिए :- विलियम मॉरिस का जीवन परिचय

Ratan Singh Death (राणा रतनसिंह की मृत्यु)

जायसी द्वारा लिखी गई ‘पद्मावती’ के अनुसार रतन सिंह को वीरगति अलाउद्दीन खिलजी के हाथों मिली थी. जो उस समय दिल्ली की राजगद्दी का सुल्तान था , किताब के मुताबिक राजा रतन सिंह के राज्य दरवारियों में राघव चेतन नाम का संगीतिज्ञ था ,एक दिन रतन सिंह को राघव चेतन के काला जादू करने की सच्चाई पता चली तो उन्होंने राघव को गधे पर बैठाकर पूरे राज्य में घुमाया ,अपनी इस बेइज्जती से गुस्साए राघव ने दिल्ली के सुलतान के जरिये बदला लेने की साजिश रची थी। 

राघव ने अपने गलत मंसूबों को कामयाब करने के पद्मावती के सौन्दर्य के बारे में खिलजी को बताया ,पद्मावती की सुंदरता का गुणगान सुन खिलजी ने उन्हें हासिल करने की ठान ली थी। रानी पद्मावती को पाने के लिए खिलजी ने सबसे पहले दोस्ती करने का तरीका रतन सिंह पर आजमाया और रतन सिंह के सामने उनकी पत्नी पद्मावती को देखने की अपनी ख्वाहिश भी बताई थी। रतन सिंह ने भी खिलजी की इस ख्वाहिश को मान लिया और रानी पद्मावती के चेहरे की छवि को आईने के जरिए खिलजी को दिखा दिया। हालांकि रानी पद्मावती रतन सिंह के इस फैसले से नाखुश थी। 

रानी पद्मावती का आत्मदाह – Padmavati story hindi

  • चित्तौड़गढ़ का इतिहास  देखे  तो एक पत्नी का धर्म निभाते हुए उन्होंने
  • रतन सिंह की ये बात अपनी कुछ शर्तों के साथ मान ली थी।
  • वहीं रानी की खूबसूरती की झलक देखकर खिलजी ने उनको पाने के लिए।
  • अपने सैनिकों की मदद से राजा रावल को उन्हीं के महल से तुरंत अगवा कर लिया था।
  • जिसके बाद राजा रतन सिंह को किसी तरह  सिपाहियों ने खिलजी की कैद से मुक्त करवाया था। 
  • खिलजी ने रतन सिंह के उनकी कैद से आजाद होने के बाद
  • रतन सिंह के किले पर हमलाकर किले को चारों ओर से घेर लिया था। 
  • किले को बाहर से कब्जा करने के कारण कोई भी चीज ना तो
  • किले से बाहर जा सकती थी ना ही किले के अंदर आ सकती थी।
  • वहीं धीरे-धीरे किले में रखा हुआ खाने का सामान भी खत्म होने लगा था।
  • अपने किले में बिगड़ते हुए हालातों को देखते हुए।
  • रतन सिंह ने किले से बाहर निकल बहादुरी से खिलजी से लड़ाई का फैसला किया।
  • रावल रतन सिंह का इतिहास देखे तो राणा रतन सिंह का युद्ध अंतिम था। 
  • वहीं जब खिलजी ने युद्ध में राजा को हरा दिया तो उनकी पत्नी रानी पद्मावती ने
  • अपने राज्यों की कई औरतों समेत जौहर (आत्मदाह) किया था। 

Rana Ratan Singh History in Hindi Video –

Rawal Ratan Singh Biography in Hindi

Rana Ratan Singh Facts

  • इतिहासकारों शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर
  • और ‘पद्मावत की कथा’ के  आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के
  • आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपम सौन्दर्य के
  • प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है।
  • राणा रतनसिंह के शासनकाल के बारे में ज्यादा जानकारी मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा
  • लिखी गई कविता ‘पद्मावती’ में मिलती है
  • अलाउद्दीन ख़िलज़ी राणा रतनसिंह की महारानी  पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा था। 
  • उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी थी।
  • राजा रतनसिंह वीरगति होने के बाद उस की स्वरुपवान रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के
  • साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी थी।  

इसके बारे में भी जानिए :- रॉबर्ट बर्न्स की जीवनी परिचय

राणा रतनसिंह के प्रश्न –

1 .अलाउद्दीन खिलजी को किसने मारा था ?

अलाउद्दीन के नाजायज संबंध थे वह मलिक काफूर ने ही खिलजी को जहर देकर मार दिया था। 

2 .मेवाड़ का शासक कौन था ?

राजा रतन सिंह राजस्थान मेवाड़ के राजा थे जिन्हे गुहिल वंश

की रावल शाखा के अंतिम शासक कहे जाते है। 

3 .रतन सिंह के पिता का नाम क्या था ?

राजा रतन सिंह के पिताजी का नाम समरसिह था। 

4 .रतन सिंह की पत्नी का क्या नाम था ?  

रतन सिंह  का नाम पद्मिनी और उन्हें ने स्वयंवर में रानी पद्मिनी से शादी की थी। 

5 .राजा रतन सिंह की कितनी पत्नियां थीं ?

राजा रतन सिंह की पंद्रह पत्नी थी। 

Conclusion –

आपको मेरा Rana Ratan Singh Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने Ratan singh jodha, राणा रतन सिंह वाइफ और

Rana ratan singh son से सम्बंधित जानकारी दी है।

कोई अभिनेता या जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।

तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास रतन सिंह राजपूत की जानकारी या

Raja ratan singh history in hindi की कोई जानकारी हैं।

या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है।

तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद

Read More >>

Biography of Maharaja Surajmal in Hindi - महाराजा सूरजमल की जीवनी

Maharaja Surajmal Biography In Hindi – महाराजा सूरजमल की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है ,आज हम Maharaja Surajmal Biography In Hindi में सबको भरतपुर के स्थापक और शाषक महाराजा सूरजमल का जीवन परिचय बताने वाले है। 

भरतपुर में उपस्थित लोहागढ़ किला देश का एकमात्र किला है, जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद्य रहा है । अपने पिता बदनसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा सूरजमल जाट 1756 ई. में भरतपुर राज्य का शासक बने थे। कुशाग्र बुद्धि और राजनैतिक कुशलता से उन्हें लोग जाटो के प्लेटों कहकर जानते थे। भरतपुर रियासत को स्थापित करने वाले महाराजा सूरजमल की गिनती भारत के सबसे शक्तिशाली शासक में हुआ करती थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1707 को हुआ था। 

आज हम महाराजा सूरजमल की कथा में maharaja surajmal institute ,maharaja surajmal height and weight और maharaja surajmal gotra से सम्बंधित जानकारी लेके आपको बताने की कोशिश करेंगे। ऐसा कहे तो कुछ गलत नहीं है की महाराजा सूरजमल का उपनाम प्लेटों था। महाराजा सूरजमल की वंशावली से जुडी सभी रोचक जानकारी और तथ्य बहुत चर्चित हुए है , महान राजा महाराजा सूरजमल शायरी बहुत पसंद थी ,तो चलिए शुरू करते है राजा की जीवन की कहानी बताते है। 

Maharaja Surajmal Biography In Hindi –

नाम  सूरजमल
जन्म  13 फरवरी 1707
पिता  बदन सिंह
माता  महारानी देवकी
पत्नी  महारानी किशोरी देवी
संतान  जवाहर सिंह,  नाहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह,  रंजीत सिंह
शासनावधि  1755 – 1763 AD
राज्याभिषेक  डीग, 22 May 1755

महाराजा सूरजमल की जीवनी –

महाराजा सूरजमल का जन्म maharaja surajmal birthday 13 फरवरी 1707 में हुआ था, यह इतिहास की वही तारीख है, जिस दिन हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम सबसे पहले आता है। महाराजा सूरजमल राजा बदनसिंह के बेटे थे। महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे। अट्ठारवीं शताब्दी को महाराजा सूरजमल का इतिहास की सबसे अस्थिर, उथल-पुथल से भरी और डांवाडोल शताब्दी माना जाता है। इस शताब्दी के जिस रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ,चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था वो महाराजा सूरजमल थे।

इसके बारे में भी जानिए :- माइकल जैक्सन की जीवनी

महाराजा सूरजमल का प्रारंभिक जीवन  –

महाराजा सूरजमल अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक थे। महाराजा सूरजमल की सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे। मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया। महाराजा सूरजमल ने नजीबुद्दोला द्वारा अहमद शाह अब्दाली के सहयोग से भारत को मजहबी राष्ट्र बनाने को कोशिश को भी फैल कर दिया था। Maharaja Surajmal in hindi  में बतादे की अफगान सरदार असंद खान, मीर बख्शी, सलावत खां आदि को पराजित किया। 1757 में अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पहुच गया और उनकी सेना ने ब्रज के तीर्थ को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया था । 

उसको बचाने के लिए सिर्फ महाराजा सूरजमल ही आगे आये और उनके सैनिको ने बलिदान दिया। इसके बाद में अब्दाली वापस लौट गया। जब सदाशिव राव भाऊ अहमद शाह अब्दाली को पराजित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ रहा था, तभी खुद पेशवा बालाजी बाजीराव ने भाऊ को सुझाव दिया उत्तर भारत में मुख शक्ति के रूप में उभर रहे महाराजा सूरजमल का सम्मान कर उनके सुझाव पर ध्यान दिया जाए। परंतु भाऊ ने युद्ध सम्बन्धी इस सुझाव पर कोई ध्यान नही दिया और अब्दाली के हाथों पराजित हो गए थे। 

दिल्ली की लूट का खजाना –

सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे। Maharaja Surajmal के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी। यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे थे ।

सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया। मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है। 

महाराजा सूरजमल की दिल्ली लूट –

महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन् ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है।  इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया था। 

इसके बारे में भी जानिए :- राणा कुंभा का जीवन परिचय

मराठों की गतिविधियाँ –

जब ब्रज और उसके आस पास महाराजा सूरजमल का साम्राज्य था।

उसी समय मराठा पेशवाओं की सैनिक गतिविधियाँ भी तेज़ हो गयीं।

पेशवाओं की शक्ति का विस्तार दक्षिण से दिल्ली तक हो गया था।

और मुग़ल शासक भी भयभीत था।

ऐसे समय में सूरजमल को मुग़लों के साथ साथ मराठों से भी

अपने राज्य की रक्षा और अधिकार के लिए लड़ना पड़ा।

उसकी शक्ति धीरे धीरे क्षीण हो रही थी। 

Maharaj Surajmal की उदारता –

14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई थी । मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती थी | Maharaja Surajmal ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। 

जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें।

जाटवंश –

कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में ‘डांगे’ भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरयाणा में ‘दांगी’ भी उन्हीं की शाखा है। मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है। 

Maharaja Surajmal के जन्म से जुड़ा लोकगीत –

‘आखा’ गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी ,

धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी ,

भइयन को राख्यो राजी, और चाकी चहुं दिस नौबत बाजी। 

वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे।

महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे।

सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की

वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे। 

सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी। 

इसके बारे में भी जानिए :- तात्या टोपे की जीवनी

अब्दाली के आक्रमण –

उस समय अहमदशाह अब्दाली ने देश पर हमला कर दिया था। 

मराठों ने उधर ध्यान नहीं दिया वे जाटों और राजपूतों से लड़कर कमज़ोर होते रहे।

मराठों ने जहाँ ख़ुद को कमज़ोर किया वहीं राजपूतों को भी कमज़ोर किया। 

और अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण करने का मौक़ा दे दिया ।

लूट के बाद का ब्रज –

अब्दाली की लूटमार सन् 1756−57 में हुई थी।

किसी ने भी लुटेरों का विरोध नहीं किया।

लुटेरे आये और दिल्ली से आगरा तक के ही समृद्धिशाली राज्य को लूट कर चले गये। 

औरंगजेब के अत्याचारों से सहमा ब्रजमंड़ल लम्बे समय तक संभल नहीं पाया।

ऐसी परिस्थिति में मराठा सरदार चुप्पी लगा गये।

और सूरजमल अपने क़िले में छिपा रहा।

इसके बाद अब्दाली ने कई हमले किये, जिनमें वह हमेशा कामयाब रहा था। 

पानीपत की लड़ाई –

सन 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा। मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक़ लेकर मराठों और जाटों ने संधि की; लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए। वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को ख़त्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे। इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये थे। 

भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया। मराठा सरदार को अपनी ताक़त पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की। युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हज़ार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हज़ार थीं। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ।

उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये। उस युद्ध में सैनिक बहुत संख्या में मारे गये। भरतपुर के ‘मथुरेश’ कवि ने इस स्थिति पर दु:ख जताते हुए कहा है। होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की थी । पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रुषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी।

इसके बारे में भी जानिए :- बिरसा मुंडा का जीवन परिचय

महाराजा सूरजमल के शौर्य गाथाएं –

Maharaja Surajmal का जयपुर रियासत के महाराजा जयसिंह से अच्छा रिश्ता था. जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में रियासत के वारिश बनने को लेकर झगड़ा शुरु हो गया। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह को रियासत का अगला वारिस बनाना चाहते थे, जबकि उदयपुर रियासत के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह को राजा बनाने के पक्ष में थे। इस मतभेद की स्थिति में गद्दी को लेकर लड़ाई शुरु हो गई. मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई. लड़ाई यहां पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। 

माधोसिंह मराठों, राठोड़ों और उदयपुर के सिसोदिया राजाओं के साथ मिलकर वापस रणभूमि में आ गया. ऐसे माहौल में राजा सूरजमल अपने 10,000 सैनिकों को लेकर रणभूमि में ईश्वरी सिंह का साथ देने पहुंच गये। सूरजमल को युद्ध में दोनों हाथो में तलवार ले कर लड़ते देख राजपूत रानियों ने उनका परिचय पूछा तब सूर्यमल्ल मिश्र ने जवाब दिया था ‘नहीं जाटनी ने सही व्यर्थ प्रसव की पीर,और जन्मा उसके गर्भ से सूरजमल सा वीर’ .

जाटों का विस्तार –

पानीपत में अफ़ग़ानी पठानों और रूहेलों की जीत ज़रूर हुई ; लेकिन हानि मराठाओं से कम नहीं हुई। अहमदशाह अब्दाली अफ़ग़ानिस्तान लौट गया। रूहेले भी थके होने से प्रभावशाली क़दम उठाने में असमर्थ थे। पराजय से मराठों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी । हालांकि वे शीघ्र ही फिर से बलशाही हो गये थे, निजाम दक्षिणी शक्तियों का दमन करने के कारण उत्तर की ओर देखने की स्थिति में नहीं थे। यह परिस्थितियाँ सूरजमल को अपनी शक्ति विस्तृत करने के लिए अनुकूल लगी थी। पानीपत से बिना लड़े वापिस आने से उसकी शक्ति सुरक्षित थी।

सूरजमल ने मुग़लों की राजधानी आगरा को लूटा और अधिकार कर अपने राज्य में मिला लिया।  इसके बाद हरियाणा के बलूची शासक मुसब्बीख़ाँ पर हमला कर उसे हराया और कैद कर भरतपुर भेज दिया। उसकी राजधानी फर्रूखनगर को उसने अपने बड़े पुत्र जवाहर सिंह को सौंपा और उसे मेवाती क्षेत्र का स्वामी बना दिया। आगरा से लेकर दिल्ली के पास तक सूरजमल की तूती बोलने लगी। उसे अपने अधिकृत क्षेत्र की प्रभु−सत्ता को दिल्ली के मुग़ल सम्राट् से स्वीकृत कराना था। उस समय शक्तिहीन मुग़ल सम्राट का संरक्षक उसका शक्तिशाली रूहेला वज़ीर नजीबुद्धोला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था।  वह जाटों का कट्टर बैरी था। 

महाराजा सूरजमल दिल्ली विजय –

उसने मुग़ल सम्राट की ओर से जाट राजा की इस माँग को ठुकरा दिया। सूरजमल ने अपने अधिकार को स्वीकृत कराने के उद्देश्य से अपनी सेना को दिल्ली चलने का आदेश किया।  रूहेला वज़ीर भी जाटों का सामना करने की तैयारी करने लगा। उसने अहमदशाह अब्दाली और अन्य रूहेले सरदारों के पास संदेश भेजकर सहायतार्थ दिल्ली आने का निमन्त्रण भेजा।  फिर उसने चारों ओर के फाटक बंद करा कर उसकी समुचित रक्षा के लिए शाही सेना को तैनात कर दिया। जाट सेना ने दिल्ली पहुँच कर उसे चारों ओर से घेर लिया था 

इसके बारे में भी जानिए :- Jai Prakash Narayan का जन्म परिचय

महाराजा सूरजमल की मृत्यु – Maharaja Surajmal Death

रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था। जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी। सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी। जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा ज़माना पड़ा; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा।

उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी। Maharaja Surajmal  की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई। एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया।[3] महाराजा सूरजमल बलिदान दिवस सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) है । उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी। 

Maharaja Surajmal ka Itihas –

Maharaja Surajmal Fact –

  • सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि
  • सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है।
  • रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता,
  • सूझबूझ,चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था वो महाराजा सूरजमल थे। 
  • महाराजा सूरजमल की सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे।
  • मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया।
  • महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, 
  • उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया।

Maharaja Surajmal FAQ –

1 .महाराजा सूरजमल का उपनाम क्या था ?

सूरजमल  को बृजराज की उपाधि दी गयी थी। 

2 .महाराजा सूरजमल की मृत्यु कब हुई ?

25 दिसंबर सन् 1763 रविवार के दिन महाराजा सूरजमल की मृत्यु हुई थी। 

3 .महाराजा सूरजमल का दूसरा नाम ?

सूरजमल का दूसरा नाम सूजन सिंह था। 

4 .महाराजा सूरजमल का बचपन का नाम ?

सूरजमल का बचपन का नाम सुजान सिंह था

5 .महाराजा सूरजमल का अन्य नाम क्या था ?

 सूरजमल का अन्य नाम सुजान सिंह ओर बृजराज भी कहते थे। 

इसके बारे में भी जानिए :- सम्राट हर्षवर्धन की जीवनी

Conclusion –

मेरा यह आर्टिकल maharaja surajmal history in hindi

बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा और पसंद भी आया होगा ।

इस लेख के जरिये  हमने maharaja surajmal family tree और

maharaja surajmal status से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है।

आप अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।
तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को दोस्तों के साथ शेयर जरूर करे। जय हिन्द ।

Read More >>

राणा कुंभा की जीवनी - Biography of Rana Kumbha In Hindi

Rana Kumbha Biography In Hindi | राणा कुंभा की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है , आज हम Rana Kumbha Biography In Hindi में मध्यकालीन भारत के महान  शासक महाराणा कुंभा का जीवन परिचय बताने वाले है। 

राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी। वह स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता हुआ करता था। आज राणा कुम्भा की वंशावली के साथ हम rana kumbha father name , rana kumbha son name और rana kumbha palace से सम्बंधित जानकारी से सबको वाकिफ कराने जा रहे है।  

महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां की बात करे तो मध्यकालीन भारत के शासकों में कुम्भा ने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका भी लिखी थी।  राणा कुम्भा की पत्नी का नाम मीराबाई था ,महाराणा कुंभा का जन्म 1423 ई. में राजस्थान मेवाड़ में हुआ था। महाराणा कुंभा की हत्या कब और किसने की ? और महाराणा कुंभा के कितने पुत्र थे / जैसे कई सवालों के जवाब आज हमारी पोस्ट में आपको देने वाले है तो चलिए शुरू करते है। 

Rana Kumbha Biography In Hindi –

नाम

राणा कुम्भा

पूरा नाम

कुम्भकर्ण सिंह

पिता

राणा मोकल , मेवाड़

माता

सौभाग्य देवी

पत्नी

मीराबाई

पुत्र

उदय सिंह, राणा रायमल

पुत्री

रमाबाई (वागीश्वरी)

शासनावधि

1433 – 1468

राज्याभिषेक

1433

मुत्यु

1473 ई

राणा कुंभा की जीवनी –

महाराणा कुम्भकर्ण महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन् 1437 से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया था ।

इसके बारे में भी जानिए :- सुशांत सिंह राजपूत की जीवनी

राणा कुंभा का प्रारंभिक जीवन –

राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। Maharana Kumbha in hindi देखे तो उन्होंने अनेक विजय भी प्राप्त किए थे ।

उसने डीडवाना की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया। किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे। 

राणा कुंभा की रचनाएँ –

संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। राणा कुम्भा नेे जिस कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया उसी है। इस दुर्ग में 1468 ई. को अपने पुत्र उदयसिंह प्रथम द्वारा हत्या का शिकार हुए | यह घटना मेवाड़ के लिए पित्रहन्ता कही जाती है तथा इसी घटना को मेवाड़ का प्रथम कलंक कहा जाता है।

राणा कुंभा का महल – Rana Kumbha Palace

महाराणा Rana Kumbha राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।

राणा कुंभा का युद्ध – War of Rana Kumbha

सारंगपुर का युद्ध (1364- 1382 ईस्वी) :

विद्रोही महपा को सुल्तान ने शरण दे दी | महाराणा कुम्भा ने उसे लोटाने की मांग की | सुल्तान ने महपा को देने से मना कर दिया अतः 1437 ई. में महाराणा कुम्भा ने एक विशाल सेना सहित मालवा पर आक्रमण कर दिया Rana Kumbha ने मंदसोर, जावरा को जीतता हुआ सारंगपुर पर चढ़ाई कर दी | इस युद्ध में सुल्तान महमूद खिलजी की हार हुई | सुल्तान को बंधी बना कर चित्तोडगढ लाया गया | वहा विजय के उपलक्ष्य में महाराणा ने पुरे गढ़ को सजाया | उदारता का परिचय देते हुए महाराणा ने सुल्तान को मुक्त कर दिया |

कुम्भलगढ़ पर आक्रमण :

महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए। 

सबसे पहले 1442 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।

मेवाड़ के सेनापति दीपसिंह को मार कर बाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया। 

इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु सेना ने चित्तौड़ को जीतना चाहा।

इस बात को सुनकर महाराणा बूँदी से चित्तौड़ वापस लौट आए।

जिससे महमूद की चित्तौड़-विजय की यह योजना सफल नहीं हो सकी।

और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया।

गागरौनपर आक्रमण (1443-44 .) :

मालवा के सुल्तान ने महाराणा कुम्भा की शक्ति को तोड़ना कठिन समझ कर मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गों पर अधिकार करने की चेष्टा की। अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया। गागरौन उस समय खींची चौहानों के अधिकार में था। मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड़ और मालवा के लिए इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व था। अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को घेर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया  और गागरौन पर खलजी का अधिकार हो गया। डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा था।

इसके बारे में भी जानिए :- भूषण कुमार की जीवनी हिंदी

मेवाड़-गुजरात संघर्ष – (1455 ई. से 1460 ई) –

नागौर की वजह से मेवाड़ और गुजरात में संघर्ष हुआ | नागौर के तत्कालीन शासक फिरोज खां की मृत्यु होने पर और उसके छोटे पुत्र मुजाहिद खां द्वारा नागौर पर अधिकार करने हेतु बड़े लड़के शम्सखां ने नागौर प्राप्त करने में महाराणा कुम्भा की सहायता माँगी थी। महाराणा कुम्भा ने अच्छा अवसर समझ मुजाहिद को वहाँ से हटा कर महाराणा ने शम्सखां को गद्दी पर बिठाया परंतु गद्दी पर बैठते ही शम्सखां अपने सारे वायदे भूल गया और उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया था ।

स्थिति की गंभीरता को समझ कर महाराणा कुम्भा ने शम्सखां को नागौर से निकाल कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। शम्सखां भाग कर गुजरात पहुँचा और अपनी लडकी की शादी सुल्तान से कर, गुजरात से सैनिक सहायता प्राप्त कर महाराणा की सेना के साथ युद्ध करने को बढ़ा, परंतु विजय का सेहरा मेवाड़ के सिर बंधा। मेवाड़-गुजरात संघर्ष का यह तत्कालीन कारण था। 1455 से 1460 ई. के बीच मेवाड़- में युद्ध खेला गया था। 

गुजरात संघर्ष के दौरान निम्नांकित युद्ध हुए –

नागौर युद्ध (1456 ) :

नागौर के पहले युद्ध में शम्सखां की सहायता के लिए भेजे गए।

गुजरात के सेनापति रायरामचंद्र व मलिक गिदई महाराणा महाराणा कुम्भा से हार गए थे।

इस हार का बदला लेने तथा शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बिठाने के लिए

1456 ई. में गुजरात का सुल्तान कुतुबुद्दीन सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ आया।

सुल्तान कुतुबुद्दीन का आक्रमण :

सिरोही के देवड़ा राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से प्रार्थना की कि वह आबू जीतकर सिरोही उसे दे दे। सुल्तान ने इसे स्वीकार कर लिया। आबू को महाराणा कुम्भा ने देवड़ा से जीता था। सुल्तान ने अपने सेनापति इमादुलमुल्क को आबू पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसकी पराजय हुई। इसके बाद सुल्तान ने कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई कर तीन दिन तक युद्ध किया।  बेले ने इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की पराजय बताई है किन्तु गौ. ही. ओझा, हरबिलास शारदा ने इस कथन को असत्य बताते हुए इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की जीत ही मानी है। उनका मानना है कि यदि सुल्तान जीत कर लौटता तो पुनः मालवा के साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करता। सुल्तान का दूसरा प्रयास भी असफल रहा।

नागौरविजय (1458) 

महाराणा कुम्भा ने 1458 ई. में नागौर पर आक्रमण किया जिसके प्रमुख कारण इस प्रकार है

  • 1. नागौर के हाकिम शम्सखां और मुसलमानों के द्वारा बहुत ज्यादा मात्र में गो-वध करना।
  • 2. शम्सखांने मालवा के सुल्तान के मेवाड़ पर आक्रमण के समय महाराणा के विरुद्ध सहायता की थी।
  • 3. शम्सखां ने किले की मरम्मत शुरू कर दी थी। अत: महाराणा ने नागौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

साहित्य प्रेमी –

स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण,

राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था।

कुम्भा ने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत

‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका भी लिखी थी ।

इसके बारे में भी जानिए :- दिव्या उन्नी की जीवनी

राणा कुंभा की कहानी – Story of Rana Kumbha

ये स्वयं महान विद्वान व कलाप्रेमी शासक थे. जिन्हें वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य की अनूठी समझ थी. इन्होने साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. कुम्भा ने चार नाटकों की रचना की तथा रसिक प्रिय व गीत गोविन्द पर टीकाएँ भी लिखी थी। हिन्दू सुरताण कुम्भकर्ण (कुम्भा) ने अपनी राजधानी में कई भवनों तथा नवीन इमारतों का निर्माण कराकर स्थापत्य कला को फिर से जीवित किया , राणा कुम्भा ने ही गुजरात विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया था, जिनके कारीगर अत्री व महेश थे। 

मेवाड़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में शुमार अचलगढ़, कुम्भलगढ़, सास बहू का मन्दिर तथा सूर्य मन्दिर का निर्माण भी कुम्भा के काल में हुआ, इन्होने उजड़े हुए बसन्तपुर नगर को फिर से आबाद भी किया. कुम्भा के पुत्र का नाम उदयसिंह था जिन्होंने इनकी हत्या की थी. इसके बाद सत्ता प्राप्त करने वाले मुख्य शासकों में राजमल, राणा सांगा, प्रताप, अमरसिंह व राजसिंह थे। 

राणा कुंभा का व्यक्तित्व और इतिहास –

भारत अति प्राचीन देश हैं, रियासतकालीन समय में यहाँ अलग अलग देशी राजाओं के रजवाड़े हुआ करते थे. कही पर देशी शासकों का शासन था तो कही विदेशी आक्रमणकारी शासन चला रहे थे.उस समय अधिकतर शासकों की यह महत्वकांक्षा रहती थी, कि उनका साम्राज्य सबसे बड़ा हो, सबसे बड़ी सेना भी उन्ही की हो. उसी समय मेवाड़ राजस्थान जो प्राचीन समय में राजपुताना कहलाता था। यहाँ एक से बढ़कर वीर पराक्रमी शासक हुए, जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से अंत तक लोहा लिया.मेवाड़ के शासकों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे लोक हितेषी थे, उनका लक्ष्य साम्राज्य विस्तार से अधिक जनता का सुख दुःख व उनकी भलाई था. ऐसे ही महान प्रतापी राणा कुम्भा थे। 

पन्द्रहवी सदी के इस राजपूत शासक के पिता महाराणा मोकलसिंह थे. इनका राज्य विस्तार डीडवाना, खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे , गुजरात, मालवा और दिल्ली तथा तथा राजस्थान का अधिकतर भूभाग था राणा कुम्भा’ ने संगीत, साहित्य, कला संस्कृति के क्षेत्र में जितना कार्य किया, उतना किसी समकालीन शासक ने नही किया था. मात्र 36 वर्षों के काल में इन्होनें मेवाड़ धरा में इतनी अनुपम स्थापत्य शैली को स्थापित किया, जिन्हें देखने के लिए हजारों सैलानी नित्य मेवाड़ आते हैं. चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़, विजय स्तम्भ जैसे सैकड़ों किले व मंदिर हैं जिन्हें “राणा कुम्भा” ने बनाया था. संगीत के क्षेत्र में इन्हें संगीतराज की उपाधि प्राप्त थी. महाराणा कुम्भा नाट्यशास्त्र, वीणावादन में भी दक्ष थे। 

राणा कुंभा की मुत्यु – Rana Kumbha Death

ऐसे वीर,प्रताभी महाराणा का अंत बहुत दुखद हुआ | 1468 ईस्वी में कुम्भा के पुत्र उदा ने राज्य पिपासा में महाराणा की हत्या कर डी अवम स्वयं सिहासन पर आरुढ़ हो गया मशहूर फॉरेन लेखक कर्नल टॉड ने लिखा है कि “महाराणा कुम्भा ने अपने राज्य को सुदृढ़ किलों द्वारा संपन्न बनाते हुए ख्याति अर्जित कर अपने नाम को चिर स्थायी कर दिया।” कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा को महान दानी और प्रजापालक बताया गया है उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा है। 

डॉ जी. शारदा ने उसे ‘महान शासक, महान सेनापति, महान निर्माता और महान विद्वान’ कहा है। प्रजाहित को ध्यान रखने के कारण प्रजा उसमें अत्यधिक विश्वास और श्रद्धा रखती थी। महाराणा कुम्भा संगीतकार,साहित्य प्रेमी , संगीताचार्य ,वास्तुकला का पुरोधा, नाट्यकला में कुशल , कवियों का शिरोमणि , अनेक ग्रंथो का रचियता, वेद, स्मृति, दर्शन, उपनिषद, व्याकरण आदि का विद्वान, संस्कृत आदि भाषाओँ का ज्ञाता, प्रजापालक, दानवीर, जैसे कई गुण सर्वतोन्मुखी गुण विद्यमान थे जो राणा सांगा में नहीं थे। 

Rana Kumbha की हत्या के बाद मेवाड़ –

Rana Kumbha की हत्या करने वाले उदा को कोई भी महाराणा के रूप में स्वीकार करने को तैयार नही था | अतः किसी भी तरह उदा को हटाने के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया था उदा और उसके भाइयो में आपसी रंजिस बढती चली गयी | और अंतत: रायमल ने राज सिहासन अपने अधिकार में कर लिया | इस बीच ऊदा मालवा के सुल्तान के पास सहायतार्थ पहुंचा। मालवा के सुल्तान गयासशाह ने मेवाड़ में अशांति करते हुए कई इलाके हथिया लिए किन्तु रायमल की सूझबूझ से उसके चितौड़ और मांडलगढ़ के आक्रमणों में सुल्तान की हार हुई इस प्रकार रायमल ने मेवाड़ की स्थिति को सुदृढ़ करना आरम्भ किया था। 

 मेवाड़ और सुदृढ़ करने के लिए जोधपुर के राठौड़ों व हाड़ाओं से मित्रता की, किन्तु इस बीच उसके पुत्रों में संघर्ष हो जाने और दो पुत्रों की मृत्यु होने तथा सांगा के मेवाड़ छोड़ कर चले जाने से उसका जीवन दुःखमय हो गया। इसी आघात के कारण रायमल की हालत बहुत बिघाड गयी हो गयी | जैसे ही पिता के अस्वस्त होने की खबर सांगा को लगी वह पुनः मेवाड़ आ गया अंतत: रायमल ने अपने पुत्र सांगा (संग्राम सिंह) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और कुछ ही दिनों बाद रायमल की मृत्यु हो गयी , जो उसकी (रायमल की) मृत्यु के बाद 1508 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। सांगा के मेवाड़ की सत्ता सँभालते ही मेवाड़ का उत्कर्षकाल पुनः प्रारंभ हो गया।

इसके बारे में भी जानिए :- साई पल्लवी की जीवनी

महाराणा कुंभा का इतिहास –

1433 ई.* इस वर्ष महाराणा कुम्भा का राज्याभिषेक हुवा (कर्नल जेम्स टॉड ने महाराणा कुम्भा के राज्याभिषेक का वर्ष 1418 ई. बताया है व उनकी पत्नी का नाम मीराबाई बताया है, जो कि सही नहीं है | मीराबाई तो महाराणा कुम्भा के 100 वर्ष बाद की थीं) महाराणा मोकल के मामा मारवाड़ के रणमल्ल थे रणमल्ल चित्तौड़ आए और चाचा व मेरा को मारने के लिए 500 सवारों के साथ निकले और कई जगह धावे बोले चाचा व मेरा अपने साथी राजपूतों के हाथों मारे गए इक्का (चाचा का बेटा) और महपा पंवार भागकर मांडू के सुल्तान महमूद की शरण में चले गए राघवदेव (महाराणा कुम्भा के काका) और रणमल्ल के बीच खटपट हो रही थी। 

रणमल्ल ने धोखे से राघवदेव की हत्या कर दी, जिसका हाल कुछ इस तरह है कि रणमल्ल ने राघवदेव को तोहफे में अंगरखा दिया, जिसकी दोनों बाहों के मुंह सीये हुए थे जब राघवदेव ने अंगरखा पहना तो उनके दोनों हाथ फँस गए, इतने में रणमल्ल ने तलवार से राघवदेव की हत्या कर दी Rana Kumbha ने जनकाचल पर्वत व आमृदाचल पर्वत पर विजय प्राप्त की1437 ई  महाराणा कुम्भा ने देवड़ा राजपूतों को पराजित कर आबू पर अधिकार किया 1437-38 ई.* महाराणा कुम्भा ने मांडलगढ़ पर हमला कर विजय प्राप्त की मांडलगढ़ पर हाडा राजपूतों के सहयोगियों का कब्जा था इन्हीं दिनों में महाराणा ने खटकड़ पर हमला कर विजय प्राप्त की कुछ दिन बाद जहांजपुर पर हमला किया | काफी मशक्कत के बाद महाराणा कुम्भा ने जहांजपुर पर विजय प्राप्त की थी। 

Rana Kumbha Video –

राणा कुंभा के रोचक तथ्य –

  • महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां की बात करे तो
  • मध्यकालीन भारत के शासकों में कुम्भा ने चार भाषाओं में चार नाटकों की रचना की थी।
  • उन्होंने जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ पर ‘रसिक प्रिया’ नामक टीका लिखी थी। 
  • राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी।
  • वह स्वयं एक अच्छा विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति
  • और साहित्य का ज्ञाता हुआ करता था।
  • महाराणा कुंभा ने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी,
  • खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया था।
  • दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया।
  • राणा कुम्भा द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़
  • जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं।
  • वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं।

Rana Kumbha FAQ –

1 .महाराणा कुंभा का जन्म कब हुआ ? 

1403 ई. में महाराणा कुम्भा का जन्म चित्तौड़ के महाराणा मोकल किल्ले में हुआ था। 

2 .महाराणा कुंभा के कितने पुत्र थे ?

कुंभा राणा के के दो पुत्र ऊदा सिंह और राणा रायमल और एक रमाबाई (वागीश्वरी) नाम की राजकुँवरी भी थी। 

3 .महाराणा कुंभा के पिता का नाम क्या था ?

महाराणा कुंभा के पिताजी का नाम महाराणा मोकल था। 

4 .महाराणा कुंभा के समय दिल्ली का शासक कौन था ?

राणा कुंभा के समय दिल्ली के राज्य पे मुहम्मद शाह का शाशन चला करता था। 

5 .महाराणा कुंभा के समय मालवा का सुल्तान कौन था ?

सुल्तान महमूद खिलजी महाराणा कुंभा के समय मालवा का राजा था। 

6 .महाराणा कुंभा की हत्या किसने की थी ?

1473 ई. में महाराणा कुंभा की हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी।

7 .महाराणा कुंभा ने कितने दुर्गों का निर्माण करवाया ?

मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों है ,उसमे से 32 दुर्ग अकेले कुंभा बनवाए थे ऐसा प्रमाण मिलता है। 

इसके बारे में भी जानिए :- निधि अग्रवाल की जीवनी 

Conclusion –

आपको मेरा Maharana kumbha history in hindi अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने rana kumbha family tree और rana kumbha wife से सम्बंधित जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य अभिनेता के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। 

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास Rana kumbha ka itihaas की जानकारी या Maharana kumbha ka jivan parichay की कोई जानकारी हैं, या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है। तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद 

1 .महाराणा कुम्भा की पत्नी का नाम क्या था ?

2 .महाराणा कुंभा की मृत्यु कैसे हुई ?

Read More >>

Biography of Madhav Rao Peshwa - माधव राव पेशवा की जीवनी

Madhav Rao Peshwa Biography In Hindi – माधव राव पेशवा की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Madhav Rao Peshwa Biography In Hindi मे  बहुत ही धार्मिक, निष्कपट, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व वाले माधव राव पेशवा जीवन परिचय बताने वाले है। 

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की भयानक हार के बाद पेशवा बनने वाले माधव राव बचपन से ही प्रतिभाशाली और जनकल्याण की भावना से ओत-प्रोत थे। वह एक सफल राजनीतिज्ञ कुशल व्यवस्थापक और दक्ष सेनानी भी रह चुके हैं। आज हम madhavrao peshwa death reason ,madhavrao peshwa son और madhavrao peshwa father की जानकारी बताने वाले है। माधवराव के अंदर उनके पाता बालाजी विश्वनाथ की दूरदर्शिता, बाजीराव की संलग्नता व नेतृत्वशक्ति के अलावा भरपूर क्षमता थी। 

पानीपत की पराजय से पीड़ित माधवराव का शासनकाल 11 वर्ष का रहा जिसमें से 2 वर्ष उनका गृह युद्ध में बीता और अंतिम वर्ष यक्ष्मा जैसे घातक रोग का सामना करते हुए व्यतीत हो गया। वह सिर्फ 8 वर्ष ही स्वतंत्र रूप से सक्रिय रहे फिरभी अपने साम्राज्य का विस्तार किया और अपनी शासन व्यवस्था को सुसंगठित किया. यही कारण है कि मराठा साम्राज्य के इतिहास में माधवराव को सबसे महान पेशवा कहा जाता है। 

Madhav Rao Peshwa Biography In Hindi –

 नाम  माधवराव
 अन्य नाम  श्रीमंत माधवराव बल्लाल पेशवा
 जन्म  14 फरवरी 1745
 जन्म स्थान  सवनूर, मराठा साम्राज्य (अब कर्नाटक में) भारत
 पिता  नानासाहेब पेशवा
 माता  गोपिकाबाई
 पत्नी  रमाबाई (सती प्रथा के दौरान वर्ष 1772 में मृत्यु)
 भाई  विश्वास राव, नारायण राव
 व्यवसाय  मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा 
 शासन काल  23 जून 1761 – 18 नवंबर 1772
 मृत्यु  18 नवंबर 1772
 मृत्यु कारण  तपेदिक की बीमारी
 आयु (मृत्यु के समय)  27 वर्ष
 मृत्यु स्थल  थूर, महाराष्ट्र
 समाधि स्थल  गणेश चिंतामणि मंदिर के पास, महाराष्ट्र के नजदीक थूर, महारा

माधव राव पेशवा का जन्म और प्रारंभिक जीवन –

Madhav Rao पेशवा का जन्म सन 1761 में हुआ था और इनके पिता का नाम बालाजी बाजीराव था. माधवराव इनके ज्येष्ठ पुत्र थे।  माधवराव ने सिर्फ 16 वर्ष की उम्र में ही पेशवा पद ग्रहण किया था।, पेशवा बनने के बाद शुरू के दिनों में माधवराव के चाचा रघुनाथ राव ही उसकी ओर से शासन करते थे. लेकिन उन्होंने बहुत जल्द शासनसूत्र अपने हाथों में ले लिया। 

अपने शासनकाल में उन्होंने पानीपत की हार के फलस्वरूप पेशवा की खोई सत्ता और प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित कर दिया. निजाम को दो बार हार का सामना करना पड़ा. उसने पेशवा की शक्ति को तोड़ने का हर संभव प्रयत्न किया था लेकिन उसे असफलता ही हाथ लगी थी।

इसके बारेमे भी जानिए :- बालाजी विश्वनाथ की जीवनी

माधव राव पेशवा पद की प्राप्ति –

‘पेशवा बालाजी बाजीराव’ (नाना साहब) ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही यह निर्णय कर दिया था कि उनके बाद अल्पवयस्क होने के बावजूद उनका बड़ा पुत्र ‘माधवराव’ ही पेशवा की गद्दी पर बैठेगा तथा उसके वयस्क होने तक उसका चाचा रघुनाथराव (राघोबा) पेशवा की ओर से राजकाज सँभालेगा। इसी निर्णय के अनुसार पेशवा बालाजी बाजीराव के निधन होने पर श्राद्धकार्य संपन्न हो जाने के बाद माधवराव को छत्रपति से मिलने के लिए सतारा ले जाया गया। वहीं 20 जुलाई 1761 को छत्रपति के द्वारा माधवराव को ‘पेशवा-पद’ के वस्त्र प्रदान किये गये। 

गृह कलह और इससे निराश –

सतारा से लौटने के बाद राघोबा ने अल्पवयस्क पेशवा के संरक्षक के रूप में शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। सखाराम बापू दीवान नियुक्त किये गये। पेशवा की माता गोपिकाबाई महान् पेशवा बाजीराव के समय से ही पेशवाई के विभिन्न कार्यों तथा संकटों को भी देखती आई थी तथा काफी अनुभव प्राप्त थी। उन्हें राघोबा द्वारा सारा अधिकार अपने हाथ में ले लिया जाना अच्छा नहीं लगाथा।

उन्हें पेशवा के भविष्य की चिंता होने लगी। उन्होंने राघोबा के एकाधिकार का विरोध करना आरंभ किया। इस प्रकार पूना के दरबार में गृह कलह आरंभ हुआ। सरदारों के दो पक्ष बन गये। एक गोपिकाबाई का समर्थक था और दूसरा राघोबा का। गोपिकाबाई के समर्थकों में प्रमुख थे– बाबूराव फड़णवीस, त्रिंबकराव पेठे, आनंदराव रस्ते, तात्या घोड़पड़े, गोपाल राव पटवर्धन, भवानराव प्रतिनिधि आदि।

रघुनाथराव के समर्थकों में प्रमुख थे सखाराम बापू, चिन्तो विट्ठल रायरीकर, महिपतराव चिटणिस, कृष्णराव पारसनीस, आबा पुरंदरे, विठ्ठल शिवदेव विंचूरकर, नारोशंकर राजबहादुर आदि। अनेक प्रमुख लोगों सहित आम जनता की स्वाभाविक सहानुभूति बालक पेशवा के प्रति थी और इसलिए जब राघोबा तथा सखाराम बापू को लगा कि उनका विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है। 

इसके बारेमे भी जानिए :- नाना साहब पेशवा की जीवनी

त्याग पत्र देने की धमकी – 

तो उन्होंने बालक पेशवा तथा गोपिकाबाई को विवश करने के उद्देश्य से अपने-अपने पदों से त्याग पत्र देने की धमकी देने लगे। उनका मानना था कि उनके बिना राजकार्य संभव ही नहीं हो पाएगा और तब मजबूरन गोपिकाबाई को झुकना पड़ेगा। परंतु गोपिकाबाई ने चतुराई का परिचय देते हुए इन दोनों को अलग ही रखते हुए इनके स्थानों पर बाबूराव फड़णवीस तथा त्रिंबकराव पेठे को नियुक्त कर देने की बात की।

इससे राघोबा अत्यंत क्रुद्ध होकर निजाम को पेशवा के विरुद्ध भड़काने लगा। इसके साथ ही अपनी स्वयं की सेना भी एकत्र करने लगा। अल्पवयस्क होने के बावजूद माधवराव में स्वाभाविक दूरदर्शिता थी और वे विवेक संपन्न थे। उन्होंने राघोबा को समझाने और प्रसन्न करने का प्रयत्न किया तथा इस बात के लिए भी राजी हो गये कि भविष्य में उनकी सलाह के अनुसार कार्य करेंगे।

परंतु, राघोबा स्वयं पेशवा पद पर आसीन होना चाहता था इसलिए उसने अनुचित माँगें रखीं। इस संदर्भ में गोविन्द सखाराम सरदेसाई ने लिखा है एक मास तक अनिश्चित रहने के बाद रघुनाथराव ने यह स्पष्ट माँग रखी कि पाँच महत्व साली गढ़ों सहित उसको 10 लाख वार्षिक आय की अलग जागीर दी जाय। पेशवा इस प्रकार की प्रतिद्वन्द्वी सत्ता को सहन करने के लिए कदापि तैयार न था। अतः उसने दृढ़ता के साथ इस माँग का विरोध किया।

राघोबा के द्वारा पेशवा का पराजय –

अपने मनोनुकूल पेशवा द्वारा माँग पूरी न किये जाने पर राघोबा ने अपनी निजी सेना तथा निजाम की सहायता लेकर युद्ध छेड़ दिया। 7 नवंबर 1762 ईस्वी को पुणे से 30 मील दूर दक्षिण-पूर्व में घोड़ नदी के किनारे युद्ध हुआ, परंतु निर्णय न हो पाया।पेशवा वहाँ से सेना हटाकर भीमा नदी के किनारे आलेगाँव चले गये। राघोबा ने निजाम की सेना के साथ पीछा करते हुए वहाँ पहुँचकर 12 नवंबर को अचानक पेश्वा पर आक्रमण किया, जिसके लिए पेशवा तैयार न हो पाये थे।

परिणामस्वरूप उनकी घोर पराजय हुई। इस गृहयुद्ध को लंबे समय तक न चलने देने के उत्तम उद्देश्य से पेशवा ने स्वयं राघोबा के शिविर में जाकर आत्मसमर्पण कर दिया। राघोबा ने ऊपर से यह दिखाया कि उसे पद या सत्ता का मोह नहीं है, परंतु गुप्त रूप से पेशवा तथा उनकी माता को एक प्रकार से नजरबंद कर दिया। दो हजार सैनिकों के एक रक्षादल को पेशवा पर कड़ी नजर रखने के लिए नियुक्त कर दिया।

इसी प्रकार गोपिकाबाई को भी शनिवारवाड़ा में ही कड़ी सुरक्षा में रखा गया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए राघोबा ने समस्त अनुभवी तथा पेशवा के विश्वसनीय कर्मचारियों को पद से हटाकर अपने लोगों को बहाल कर दिया। राघोबा की प्रतिहिंसा से बचने के लिए अनेक प्रमुख सरदार निजाम के यहाँ चले गये।[5] पुणे में दिनोंदिन राघोबा के प्रति असंतोष बढ़ता ही चला गया।

इसके बारेमे भी जानिए :- मिल्खा सिंह की जीवनी

Madhav Rao एक कुशल शासक बने –

माधवराव पेशवा ने बहुत छोटी उम्र में अपना पदभार संभाला था. उसकी अल्पावस्था का फायदा उठाने के उद्देश्य से निजाम ने महाराष्ट्र पर हमला बोल दिया था अब माधवराव के स्वार्थी चाचा रघुनाथराव ने उसे अपने अधीन रखने के उद्देश्य से मराठों के कट्टर शत्रु निजाम के साथ गठबंधन कर लिया था। रघुनाथराव ने निजाम के साथ मिलकर माधवराव को आलेगांव में परास्त कर 12 नवंबर 1762 में उसे बंदी बना लिया लेकिन माधवराव का विरोध में वह असफल रहा था। 

इसके बाद माधवराव पेशवा ने साल 1763 में राक्षसभुवन में निजाम को पूरी तरह परास्त किया. युद्ध क्षेत्र से लौटते ही Madhav Rao ने अपने चाचा के प्रभुत्व से अपने आप को मुक्त किया हैदरअली जिसके शौर्य से अंग्रेज सेनानायक भी आतंतिक हुए थे. माधवराव ने उसे भी चार अभियानों में परास्त किया था. पानीपत युद्ध से पहले की तरह ही मराठा साम्राज्य भारत में फिर से सर्वशक्तिशाली प्रमाणित हुआ था। 

निजाम का आक्रमण तथा Madhav Rao की पूर्ण सत्ता-प्राप्ति –

निजाम ने अपने भाई सलावतजंग को पदच्युत कर अपने समय के चतुर कूटनीतिज्ञ विट्ठल सुंदर को अपना दीवान बनाया था। विठ्ठल सुंदर ने जब देखा कि पानीपत की पराजय तथा उसके उपरांत गृहकलह के कारण मराठा राज्य निर्बल हो गया है तो उसने निजाम को पुणे पर आक्रमण करने का सुझाव दिया था । निजाम ने पेशवा को लिखा कि भीमा नदी के पूर्व का सारा प्रान्त तथा पहले उससे लिये गये उसके सभी किले उसको सौंप दिये जाएँ। जिन मराठा सरदारों की जागीर छीन ली गयी है वे उन्हें लौटा दी जाएँ।

उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति को दीवान बनाया जाए तथा पेशवा दरबार का सारा राजकाज उसकी सलाह से किया जाए।निजाम के द्वारा इस प्रकार के दुस्साहसपूर्ण तथा अपमानजनक कदम उठाये जाने की बातों से समस्त मराठा सरदारों में जागरूकता की लहर सी दौड़ गयी और इस राष्ट्र-संकट के समय सभी एकजुट हो गये थे। 

सखाराम बापू तथा अन्य सरदारों ने भी राघोबा के अत्याचारों से त्रस्त होकर हैदराबाद गये हुए समस्त अनुभवी पुराने सरदारों को समझा-बुझाकर वापस बुला लिया। अब तक नजरबंदी में रह रहे पेशवा माधवराव ने ऐसे समय में अपना अपमान भुलाकर अपने विवेक तथा दूरदर्शिता का पूरा परिचय दिया तथा निजाम का सामना करने को तैयार हो गये।

इसके बारेमे भी जानिए :- किरण बेदी की जीवनी हिंदी

करुणा जनक पत्र –

Madhav Rao ने अपनी माता को करुणाजनक पत्र लिखे जिनमें उसने स्थिति का स्पष्ट वर्णन किया तथा उसका मुकाबला करने के लिए सम्मिलित प्रयास की आवश्यकता पर जोर दिया।  उसके चाचा राघुनाथराव तथा सखाराम बापू दोनों ने पूर्ण हृदय से इसका नेतृत्व ग्ररहण करना स्वीकार कर लिया। एक विशाल सेना लेकर निजाम पुणे की ओर बढ़ा तथा मल्हारराव होलकर एवं दमाजी गायकवाड़ जैसे सेनानायकों के साथ मराठा सेना भी तैयार हुई।

हालाँकि यह सेना इतनी शक्तिशाली न हो पायी थी कि खुले मैदान में निजाम की सेना का सामना कर सके। अतः एक ओर निजाम पुणे की ओर बढ़ रहा था तो दूसरी ओर पेशवा राघोबा के साथ औरंगाबाद की ओर बढ़ रहे थे। दोनों ने दोनों के प्रदेशों में भयंकर लूटपाट की। पुणे के प्रमुख लोगों के साथ वहाँ की जनता को भी भागना पड़ा। निजाम की सेना ने पुणे को लूट लिया। पुणे की कुछ प्रमुख हस्तियों ने जिसमें नाना फडणवीस भी थे, लोहगढ़ के किले में शरण ली।

गोपिकाबाई को भी नारायणराव के साथ भागना पड़ा तथा उसने सिंहगढ़ में शरण ली। धीरे-धीरे निजाम के सभी मराठा सरदार उससे दूर होने लगे तथा पेशवा की शक्ति प्रबल होने लगी। राक्षसभुवन नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में जबरदस्त युद्ध हुआ तथा निजाम की बुरी तरह पराजय हुई। उसके दीवान विट्ठल सुंदर भी इस युद्ध में मारे गये।

प्रतिष्ठा बढ़ाई –

25 सितंबर 1763 ईस्वी को संधि हुई और निजाम को स्वार्थवश राघोबा ने जितने प्रदेश दे दिए थे, वे सभी (22 लाख आय के) प्रदेश निजाम ने पेशवा को समर्पित कर दिये। इस संधि को औरंगाबाद की संधि कहा जाता है। माधवराव की दूरदर्शिता तथा पराक्रम का इस युद्ध में पूरा परिचय मिला तथा मराठा सरदारों में उनकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी।

पानीपत की पराजय के कारण मराठों की खोयी हुई प्रतिष्ठा कुछ हद तक इस विजय से पुनः प्राप्त हो गयी। दो वर्षों से चल रहा गृह कलह एक प्रकार से समाप्त हो गया तथा पेशवा पूर्ण शक्ति-संपन्न होकर शासन सँभालने लगे। समस्त शासनाधिकार अपने हाथ में लेकर पेशवा ने योग्य सरदारों को पुनः उपयुक्त पदों पर बहाल किया। भवानराव पुनः प्रतिनिधि बनाये गये।

बालाजी जनार्दन भानु को फड़णवीस पद पर नियुक्त किया गया तथा पेशवा ने सभी सरदारों से उत्तम संबंध बना लिये। महादजी शिंदे को अपना सहयोगी बना लिया। इस समय मराठा राज्य के रंगमंच पर नयी उम्र की तीन विभूतियों का उदय हुआ। दोनों किसी प्रकार से पानीपत के युद्ध से बच निकले थे, अब एक त्रिमूर्ति बन गये जिसके ऊपर मराठा राष्ट्र का भविष्य निर्भर था।

इसके बारेमे भी जानिए :- बाल गंगाधर तिलक की जीवनी

Madhav Rao पेशवा पानीपत का तृतीय युद्ध –

पानीपत का तृतीय युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुआ। पानीपत की तीसरी लड़ाई (95.5 किमी) उत्तर में मराठा साम्राज्य और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली, दो भारतीय मुस्लिम राजा अफगान दोआब और अवध के नवाब सुजा -उद- दौला (दिल्ली के सहयोगी दलों) के एक गठबंधन के साथ अहमद शाह अब्दाली के एक उत्तरी अभियान बल के बीच पर 14 जनवरी 1761, पानीपत, के बारे में 60 मील की दूरी पर हुआ।

लड़ाई 18 वीं सदी में सबसे बड़े, लड़ाई में से एक माना जाता है और एक ही दिन में एक क्लासिक गठन दो सेनाओं के बीच लड़ाई की रिपोर्ट में मौत की शायद सबसे बड़ी संख्या है। मुग़ल राज का अंत ( 1680 -1770 ) में शुरु हो गया था, जब मुगलों के ज्यादातर भू भागों पर मराठाओं का आधिपत्य हो गया था। गुजरात और मालवा के बाद बाजी राव ने १७३७ में दिल्ली पर मुगलों को हराकर अपने अधीन कर लिया था और दक्षिण दिल्ली के ज्यादातर भागों पर अपने मराठाओं का राज था।

बाजी राव के पुत्र बाला जी बाजी राव ने बाद में पंजाब को भी जीतकर अपने अधीन करके मराठाओं की विजय पताका उत्तर भारत में फैला दी थी। पंजाब विजय ने1758 में अफगानिस्तान के दुर्रानी शासकों से टकराव को अनिवार्य कर दिया था। १७५९ में दुर्रानी शासक अहमद शाह अब्दाली ने कुछ पसतून कबीलो के सरदारों और भारत में अवध के नवाबों से मिलकर गंगा के दोआब क्षेत्र में मराठाओं से युद्ध के लिए सेना एकत्रित की।

तीसरा युद्ध –

इसमें रोहलिआ अफगान ने भी उसकी सहायता की। पानीपत का तीसरा युद्ध इस तरह सम्मिलित इस्लामिक सेना और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अवध के नवाब ने इसे इस्लामिक सेना का नाम दिया और बाकी मुसल्मानों को भी इस्लाम के नाम पर इकट्ठा किया। जबकि मराठा सेना ने अन्य हिन्दू राजाओं से सहायता की उम्मीद की 14 जनवरी 1761 को हुए इस युद्ध में भूखे ही युद्ध में पहुँचे मराठाओं को सुरवती विजय के बाद हार का मुख देखना पड़ा.

पेशवा Madhav Rao प्रथम (शासनकाल- 1761-1772 ) मराठा साम्राज्य के चौथे पूर्णाधिकार प्राप्त पेशवा थे। वे मराठा साम्राज्य के महानतम पेशवा के रूप में मान्य हैं। जिनके अल्पवयस्क होने के बावजूद अद्भुत दूरदर्शिता एवं संगठन-क्षमता के कारण पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की खोयी शक्ति एवं प्रतिष्ठा की पुनर्प्राप्ति संभव हो पायी।

11 वर्षों की अपनी अल्पकालीन शासनावधि में भी आरंभिक 2 वर्ष गृहकलह में तथा अंतिम वर्ष क्षय रोग की पीड़ा में गुजर जाने के बावजूद उन्होंने न केवल उत्तम शासन-प्रबंध स्थापित किया, बल्कि अपनी दूरदर्शिता से योग्य सरदारों को एकजुट कर तथा नाना फडणवीस एवं महादजी शिंदे दोनों का सहयोग लेकर मराठा साम्राज्य को भी सर्वोच्च विस्तार तक पहुँचा दिया।

इसके बारेमे भी जानिए :- लता मंगेशकर की जीवनी

माधव राव पेशवा का हैदरअली पर विजय –

पानीपत में मराठों की पराजय के बाद मैसूर में हैदरअली को अपना प्रभाव-विस्तार करने की स्वाभाविक छूट मिल गयी थी।  मैसूर और कर्नाटक पर सत्ता स्थापित करने से भी संतुष्ट नहीं हुआ। एक विशाल साम्राज्य का शासक होने का स्वप्न देखने लगा। उसने एक बड़ी सेना एकत्रित करके मराठऔ पर आक्रमण किया पेशवा माधवराव ने मराठा सेना का नेतृत्व कर हैदर अली को तीन बार प्रत्याक्रमण किया। 

1770 से 1772 के जुलाई तक चले तीसरे आक्रमण में आरंभिक 6 महीने तक स्वयं पेशवा अभियान में उपस्थित रहे। बाद में अस्वस्थ हो जाने के कारण त्रिम्बकराव पेठे को सेनानायक बनाकर पुणे वापस आ गये। 7 मार्च 1771 को मोती तालाब के युद्ध में हैदरअली पराजित हो गया। पेशवा की इच्छा हैदरअली को गद्दी से हटाकर पूर्व हिंदू राजा को राज्य सौंपने की थी, परंतु राघोबा ने पेशवा के अधिकार में कमी रखने के उद्देश्य से ऐसा न होने दिया |

हैदरअली निजाम की भाँति दक्षिण में मराठों का खुला दुश्मन था, रघुनाथराव ने यह प्रबन्ध किया कि अगर पेशवा उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध हो तो अन्त में हैदरअली को बराबर के जोड़ के रूप में छोड़ दिया जाय। किसी न किसी बहाने हैदरअली को सरल शर्तें देकर रघुनाथ राव ने युद्ध बन्द करने का प्रस्ताव किया। हैदरअली का पूर्णतया दमन करने की योजना कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गयी। 30 मार्च को हैदरअली के प्रतिनिधि मीर फैजुल्ला के द्वारा सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये गये।

उत्तर में पुन महान विजय –

पानीपत में पराजय के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में मराठा राज्य प्राय नष्ट ही हो गया था। दिल्ली, आगरा, दोआब, बुंदेलखंड, मालवा आदि स्थानों के छोटे-छोटे शासक मराठा सत्ता का पूरी तरह से अंत करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। माधवराव पेशवा ने उत्तर भारत के अपने खोये हुए राज्य पर पुन सत्ता स्थापित करने का पुरजोर प्रयत्न आरंभ किया। 1761 में जयपुर के राजा माधव सिंह को मल्हार राव होलकर के द्वारा परास्त करवा कर राजपूतों पर मराठों की धाक पुन जमादी ।

पेशवा ने महादजी शिंदे के मुख्य नायकत्व में तुकोजीराव होलकर तथा रामचंद्र गणेश के साथ विसाजी कृष्ण नामक दो सेनानायकों को भी उत्तर भारत भेजा। महादजी शिंदे की सूझबूझ तथा प्रबल पराक्रम के कारण जाट तथा रुहेलों का दमन हुआ, फर्रुखाबाद के नवाब बंगश तथा बुंदेलखंड के शासक तो परास्त हुए ही, महादजी ने अंग्रेजों के संरक्षण में इलाहाबाद में अपने दुर्दिन काट रहे मुगल बादशाह शाहआलम को भी मुक्त करा लिया था 

दिल्ली ले जाकर उन्हें पुन सिंहासनासीन करवा दिया। दिल्ली पर पुन मराठा शक्ति का प्रभुत्व कायम हुआ और इसके साथ ही महादजी का यशोसूर्य भी दिग-दिगंत में दीपित हो उठा। बादशाह शाहआलम ने महादजी को अनेक उपाधियों के अतिरिक्त वकील ए मुतलक की उपाधि भी प्रदान की जिसका अधिकार बादशाह से कुछ ही कम होता था। इस प्रकार पेशवा माधवराव की सूझबूझ दूरदर्शिता तथा संगठन क्षमता के कारण मराठा साम्राज्य अपने सर्वोच्च विस्तार तक पहुँच गया।

इसके बारेमे भी जानिए :- तानाजी की जीवनी

माधव राव पेश्वा रोग एवम मृत्यु –

अपने अल्पकालीन शासन में भी बड़े-बड़े कार्य करने वाले पेशवा माधवराव के अंतिम 2 वर्ष बड़े कष्टपूर्ण बीते। उन्हें क्षय रोग हो गया था, जिसके कारण वे पीड़ा से तड़पते हुए शैया पर ही पड़े रहते थे। कभी-कभी पीड़ा इतनी तीव्र हो जाती थी कि वे अपने सेवकों से अपना अंत कर देने को कहने लगते थे। परंतु इतनी पीड़ा झेलने के बावजूद उनकी समझ मंद नहीं पड़ी थी तथा वे अंतिम समय तक मराठा राज्य के उज्ज्वल भविष्य के लिए चिंतित रहे।

उन्होंने राघोबा को भी मुक्त करके अपने पास बुला कर अपने छोटे भाई नारायणराव को उन्हें सौंपते हुए उनकी रक्षा करने का वचन देने को कहा। राघोबा ने वचन दिया कि वे सदा उनकी सहायता तथा रक्षा करेंगे। पेशवा की साध्वी पत्नी रमाबाई पति परायणा थी तथा पेशवा की रुग्णावस्था में अधिकतर उनके निकट ही रहती थी। पेशवा की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें इष्टदेव भगवान् गणेश के चरणों में मृत्यु प्राप्त हो।

उनकी इच्छा के अनुरूप उन्हें थेऊर के मंदिर में ले जाया गया। वहीं से महीनों राजकार्य का भी संचालन होते रहा। 18 नवंबर 1772 ईस्वी को पेशवा माधवराव का निधन हो गया। उनकी पतिपरायणा पत्नी रमाबाई स्वेच्छापूर्वक, लोगों के काफी मना करने के बावजूद, सती हो गयी।

माधव राव पेशवा की कुछ बाते –

  • माधव राव 7 सितंबर 1769 को पुणे के पर्वती मंदिर से लौटते वक्त उनके चाचा ने माधवराव की हत्या करने की कोशिश की थी. लेकिन इस घटना में वे बाल-बाल बच गए थे। 

  • साल 1770 में माधवराव तीसरी बार हैदर अली को हराने की तैयारी में थे. लेकिन उस समय वे तपेदिक की बीमारी से पीड़ित थे।  इसलिए वे अपने महल में वापस आ गए। 

  • 18 नवंबर 1772 में गणेश चिंतामणि मंदिर में उनका निधन हो गया। 

  • उनको सबसे बड़ी सफलता उत्तरी भारत में मिली, जब साल 1771-72 में उनकी सेना ने मालवा और बुंदेलखंड पर फिर से अधिकार जमा लिया था। 

  • माधवराव पेशवा की मृत्यु के बाद 18वीं सदी के अंतिम तीन वर्षों के इतिहास में महादजी सिंधिया व नाना फडनवीस का वर्णन मिलता है. जिसमें से महादजी उत्तर भारत और नान फडनवीस दक्षिण भारत में प्रभावशाली रहे। 

  • धीरे-धीरे मराठा पेशवा सिर्फ नाम मात्र का अधिकारी रह गया और मराठा नेताओं में अपनी-अपनी शक्ति के लिए संघर्ष भी जारी रहा इस आपसी संघर्ष का पूरा लाभ अंग्रेजों ने ही उठाया। 

Madhav Rao Peshwa History Video –

Madhav Rao Peshwa Facts –

  • साल 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा साम्राज्य को बड़ी नुकसान का सामना करना पड़ा था। 
  • माधवराव के बड़े भाई विश्वासराव की मृत्यु पानीपत की तीसरी लड़ाई में चचेरे भाई के हाथों हुई थी। 
  • मराठा साम्राज्य और निजाम के बीच शुरुआती युद्ध में माधवराव अपने चाचा रघुनाथराव के साथ संघर्ष कर रहे थे. तब माधवराव पेशवा और रघुनाथराव राजसी थे। 
  • साल 1764 में माधवराव ने मैसूर साम्राज्य पर जीत हासिल कर हैदर अली सुल्तान को पराजित किया था। 
  • ब्रिटिश अधिकारी मास्टिन ने 3 दिसंबर 1767 को पुणे जाकर माधवराव के साथ मुलाकात की थी. जिसमें अंग्रेजों ने यहां अपनी सेना स्थापित करने की मांग रखी थी लेकिन माधवराव ने उन्हें अनुमति नहीं दी। 

इसके बारेमे भी जानिए :- बीरबल का जीवन परिचय

माधव राव पेशवा के कुछ प्रश्न –

1 .माधवराव पेशवा के कितने बच्चे थे ?

उनको कोई बच्चा नहीं था 

2 .माधवराव पेशवा की कितनी पत्नियाँ थीं ?

रमाबाई नाम की माधवराव की पत्नी थी जिन्होंने अपने पति के मौत के बाद उनके पीछे सती हुए थे।  

3 .क्या माधवराव पेशवा ने दो बार शादी की ?

नहीं Madhav Rao Peshwa एक ही शादी की थी उनकी पत्नी का नाम रमाबाई था 

4 .माधवराव पेशवा के पिता कौन हैं ? 

Balaji Baji Rao माधवराव पेशवा के पिता थे। 

5 .रमाबाई पेशवा की मृत्यु कब हुई ?

18 November 1772 के दिन रमाबाई पेशवा की मृत्यु हुई थी। 

निष्कर्ष – 

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Madhav Rao Peshwa Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने madhav rao peshwa and ramabai और ramabai peshwa death reason से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

Read More >>

Biography of Raja Ranjit Singh - राजा रणजीत सिंह की जीवनी

Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi | महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi में  पंजाब के सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह का जीवन परिचय देने वाले है। 

13 नवंबर 1780 को पाकिस्तान में महाराजा रणजीत सिंह का जन्म  हुआ था। वह पंजाब प्रांत के राजा और पंजाब को एकजुट रखने वाले साशक थे। उन्होंने लाहौर को राजधानी बनाके अपने साम्राज्य को अंग्रेजों से दूर रखा था। वह 19 वीं शताब्दी की शुरुआत में सत्ता में आए और उनका साम्राज्य 1799 से 1849 तक अस्तित्व में रहा था। 18 वीं शताब्दी के दौरान पंजाब में 12 सिख मिसल्स में से एक सुकरचकिया मिसल के कमांडर महा सिंह के बेटे के रूप में जन्मे- रणजीत सिंह ने अपने साहसी पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए एक और बड़ा नेता बन गए थे। रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान पंजाब को किस नाम से जाना जाता था। 

आज हम इस आर्टिकल में ranjit singh grandchildren ,ranjit singh wife और maharaja ranjit singh family की जानकारी बताने वाले है। महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के राजा थे तब महाराजा रणजीत सिंह और अंग्रेजो के बीच कौन सा दरिया सीमा का काम करता था तो आपको बतादे की सतलज  नदी दोनों राज्यों की सीमाओं को अलग करने का काम किया करती थी। तो चलिए महाराजा रणजीत सिंह की कहानी विस्तार से समजते है। और आप भी महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए

Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi

 नाम 

 महाराजा रणजीत सिंह

 जन्म

 13 नवंबर 1780

 जन्म स्थान

  गुजरांवाला, सुकरचकिया मसल

 पिता

 महा सिंह

 माता 

 राज कौर

 पत्नी

 मेहताब कौर

 उत्तराधिकारी

 खड़क सिंह

 उपलब्धि 

 सिख साम्राज्य के संस्थापक शेर-ए-पंजाब नाम से विख्यात

 मृत्यु

 27 जून 1839

 मृत्यु स्थान

 लाहौर, पंजाब

राजा रणजीत सिंह का जन्म और बचपन –

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म एक ऐसे समय में हुआ था जब पंजाब के अधिकांश हिस्सों में सिखों द्वारा एक कंफ़ेडरेट सरबत खालसा प्रणाली के तहत शासन किया गया था और इस क्षेत्र को गुटों के रूप में जाना जाता था. रणजीत जब 12 साल के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिसका पालन-पोषण उनकी मां राज कौर और बाद में उनकी सास सदा कौर ने किया था। 

महाराजा रणजीत सिंह 18 वर्ष की आयु में सुकेरचकिया मिसल के अधिपति के रूप में पदभार संभाला. मिसल अरबी शब्द है जिसका भावार्थ “दल” होता हैं. प्रत्येक दल का एक सरदार होता था। रणजीत सिंह महत्वाकांक्षी शासक और एक साहसी योद्धा थे उन्होंने सभी अन्य गुमराहों पर विजय प्राप्त करना शुरू कर दिया और भंगी मसल से लाहौर के विनाश ने सत्ता में अपने उदय के पहले महत्वपूर्ण कदम को चिह्नित किया था। 

अंततः रणजीत सिंह ने सतलज से झेलम तक मध्य पंजाब के क्षेत्र पर विजय प्राप्त की, अपने क्षेत्र का विस्तार किया और सिख साम्राज्य की स्थापना की. बहादुरी और साहस के कारण उन्होंने “शेर-ए-पंजाब” (“पंजाब का शेर”) का खिताब अर्जित किया।

Maharaja Ranjit Singh photo
Maharaja Ranjit Singh photo

इसके बारेमे भी पढ़िए :- पृथ्वीराज चौहान की जीवनी

Maharaja Ranjit Singh का प्रारंभिक जीवन – 

रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला, सुकरचकिया मसल (वर्तमान पाकिस्तान) में महा सिंह और उनकी पत्नी राज कौर के घर हुआ था. उनके पिता सुकरचकिया मसल के कमांडर थे. बचपन में रणजीत सिंह छोटी चेचक बीमारी से पीड़ित हो गए थे, जिसके परिणामस्वरूप वह एक आंख से देख नहीं पाते थे। 

जब वह 12 साल के थे तब उनके पिता महा सिंह की मृत्यु हो गयी थी, जिसके बाद उन्हें उनकी माँ ने पाला था. उनका विवाह 1796 में कन्हैया मसल के सरदार गुरबख्श सिंह संधू और सदा कौर की बेटी मेहताब कौर से हुआ था. जब वह 16 साल के थे. उनकी शादी के बाद उनकी सास ने भी उनके जीवन में सक्रिय रुचि लेना शुरू कर दिया था। 

रणजीत नाम कैसे पड़ा –

शुरू में उनका नाम बुद्ध सिंह था। कहा जाता है कि उनके पिता महा सिंह ने एक युद्ध में छत्तर सरदार को हराया था। महासिंह ने इस युद्ध में अपनी जीत के बाद बेटे का नाम रणजीत रख दिया जिसका मतलब विजेता होता है।

राजा रणजीत सिंह 10 साल की उम्र में युद्ध का पहला स्वाद 

रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला में हुआ था. उनके पिता का नाम महा सिंह और माता का नाम राज कौर था. चूंकि, उनके पिता सुकर चाकिया मिसल के मुखिया थे, जोकि उस समय का जाना माना संगठन था। इस कारण उनकी नन्हीं आंखों ने हमेशा वीरता की तस्वीरें देखी और उनके कानों ने साहस के किस्से सुने ,रणजीत सिंह को युद्ध का पहला स्वाद था, जब वह शायद दस साल के थे। 

असल में उस दौर में साहिब सिंह भांगी नामक एक शासक हुआ करता था, जिसका वास्ता गुजरात से था. उसने रणजीत सिंह के पिता को कमजोर जानकर उन पर हमला कर दिया. बाद में जब उसे कड़ी टक्कर मिली, तो उसने खुद को एक सोधरन के किले में कैद कर लिया. साथ ही वहां से महा सिंह की सेना पर वार करना शुरु कर दिया. चूंकि, उसके इरादे नेक नहीं थे।

इसलिए महा सिंह ने तय किया कि वह किसी भी कीमत पर उसे किले से निकाल कर रहेंगे और सबक सिखायेंगे, ताकि कोई और उसकी तरह दुस्साहस न कर सके. इसके लिए उन्होंने पूरे किले की घेराबंदी कर ली. महीनों तक वह अपने सैनिकों के साथ पड़े रहे, लेकिन साहिब सिंह भांगी को परास्त नहीं कर सके थे।

Images for Maharaja Ranjit Singh
Images for Maharaja Ranjit Singh

इसके बारेमे भी पढ़िए :- किरण बेदी की जीवनी हिंदी

पिता महा सिंह का स्वास्थ बिगड़ने लगा –

दूसरी तरफ उनका स्वास्थ्य भी तेजी से बिगड़ने लगा. इसकी खबर जब भांगी के दूसरे साथियों को मिली तो वह उसे बचाने के लिए वहां पहुंच गए. उन्हें लगा था कि महा सिंह बीमार है, इसलिए उन्हें हराना बहुत आसान होगा. एक हद तक वह सही भी थे, किन्तु उन्हें नहीं पता था कि महा सिंह के साथ उनका 10 साल का बेटा भी इस युद्ध का हिस्सा था, जोकि पिता की जगह खुद मोर्चा संभाल चुका था।  जैसे ही वह किले के पास पहुंचे, रणजीत सिंह ने अपने नेतृत्व में अपनी सेना को उन पर हमला करने का आदेश दिया। 

अंत में परिणाम यह रहा कि इस लड़ाई में उनके चलते ही महा सिंह की जीत हुई. हालांकि, महा सिंह इसके बाद ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सके और अगले दो वर्ष बाद 1792 में मृत्यु को प्यारे हो गए थे। पिता की मृत्यु के बाद उनकी सत्ता के राजपाट का सारा बोझ रणजीत सिंह के कंधों पर आ गया. हालांकि, वह उम्र में बहुत छोटे थे, इसलिए उनकी मां ने उनकी मदद की और उन्हें इसके लिए तैयार किया.बाद में 12 अप्रैल 1801 को वह आधिकारिक रुप में महाराजा की उपाधि से नवाजे गए। 

राजा रणजीत सिंह का शासनकाल –

रंजीत सिंह 18 साल की उम्र में सुकेरचकिया मसलक के अधिपति बन गए. सत्ता संभालने के बाद उन्होंने अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अभियान शुरू किए. उन्होंने अन्य गुमराहों की भरपाई करते हुए अपने विजय अभियान की शुरुआत की और 1799 में भंगी मसल से लाहौर पर कब्जा कर लिया और बाद में इसे अपनी राजधानी बनाया. फिर उन्होंने पंजाब के बाकी हिस्सों पर कब्जा कर लिया। 

1801 में उन्होंने सभी सिख गुटों को एक राज्य में एकजुट किया और 12 अप्रैल को बैसाखी के दिन “महाराजा” की उपाधि ग्रहण की. इस समय उनकी आयु मात्र 20 साल थी. फिर उन्होंने आगे अपने क्षेत्र का विस्तार किया. उन्होंने 1802 में भंगी मिस्ल शासक माई सुखन से अमृतसर के पवित्र शहर को जीत लिया. उन्होंने 1807 में अफगान प्रमुख कुतुब उद-दीन से कसूर पर कब्जा करके अपनी जीत जारी रखी। 

Maharaja Ranjit Singh का साम्राज्य –

वह 1809 में हिमालय के कम हिमालय में कांगड़ा के राजा संसार चंद की मदद करने के लिए गए थे. सेनाओं को हराने के बाद उन्होंने कांगड़ा को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया. 1813 में, महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर में एक बार्कज़े अफगान अभियान में शामिल हो गए, लेकिन बार्केज़ द्वारा धोखा दिया गया था. फिर भी वह अपदस्थ अफगान राजा के भाई शाह शोज को बचाने के लिए गया।

पेशावर के दक्षिण-पूर्व में सिंधु नदी पर अटॉक के किले पर कब्जा कर लिया था तब उन्होंने शाह शोजा पर प्रसिद्ध कोह-ए-नूर हीरे के साथ भाग लेने का दबाव डाला जो उनके कब्जे में था.उन्होंने अफगानों से लड़ने और उन्हें पंजाब से बाहर निकालने में कई साल बिताए. आखिरकार उन्होंने पेशावर सहित पश्तून क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और 1818 में मुल्तान प्रांत भी जीत लिया था। 

उसने इन विजय के साथ मुल्तान क्षेत्र में सौ वर्षों से अधिक के मुस्लिम शासन को समाप्त कर दिया. उन्होंने 1819 में कश्मीर पर कब्जा कर लिया।  रणजीत सिंह एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे, जिनका सभी धर्मों में बहुत सम्मान था. उनकी सेनाओं में सिख, मुस्लिम और हिंदू शामिल थे और उनके कमांडर भी विभिन्न धार्मिक समुदायों से आते थे। 1820 में उन्होंने पैदल सेना और तोपखाने को प्रशिक्षित करने के लिए कई यूरोपीय अधिकारियों का उपयोग करके अपनी सेना का आधुनिकीकरण करना शुरू किया. उत्तर-पश्चिम सीमांत में हुई विजय में आधुनिक सेना ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया।

इसके बारेमे भी पढ़िए :- भारतीय थल सेना की पूरी जानकारी हिंदी

राजा रणजीत सिंह का साम्राज्य विस्तार –

1830 के दशक तक अंग्रेज भारत में अपने क्षेत्रों का विस्तार करने लगे थे. वे सिंध प्रांत को अपने लिए रखने पर आमादा थे और रणजीत सिंह को उनकी योजनाओं को स्वीकार करने की कोशिश करते थे. यह रणजीत सिंह के लिए स्वीकार्य नहीं था और उन्होंने डोगरा कमांडर जोरावर सिंह के नेतृत्व में एक अभियान को अधिकृत किया जिसने अंततः 1834 में रणजीत सिंह के उत्तरी क्षेत्रों को लद्दाख में विस्तारित किया। 

1837 में सिखों और अफगानों के बीच आखिरी टकराव जमरूद की लड़ाई में हुआ था. सिख खैबर दर्रे को पार करने की ओर बढ़ रहे थे और अफगान सेनाओं ने जमरूद पर उनका सामना किया. अफ़गानों ने पेशावर पर आक्रमण करने वाले सिखों को वापस लेने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई और 1846 में सिख सेना को प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध में हराया गया. 1849 में द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के अंत तक पंजाब में अंग्रेजों ने सिख साम्राज्य का अंत कर दिया।

Maharaja ranjit singh photo download
Maharaja ranjit singh photo download

पंजाब के बाहर साम्राज्य विस्तार –

अपनी लाहौर विजय के बाद रणजीत सिंह ने अपने सिख साम्राज्य को विस्तार देना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने पंजाब के बाकी हिस्से के अलावा पंजाब से परे इलाके जैसे कश्मीर, हिमालय के इलाके और पोठोहार क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित किया। 1802 में उन्होंने अमृतसर को अपने साम्राज्य में मिला लिया। 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतबुद्दीन को हराया और कसूर पर कब्जा कर लिया।

1818 में मुल्तान और 1819 में कश्मीर सिख साम्राज्य का हिस्सा बन चुका था। अफगानों और सिखों के बीच 1813 और 1837 के बीच कई युद्ध हुए। 1837 में जमरुद का युद्ध उनके बीच आखिरी भिड़ंत थी। इस भिड़ंत में रणजीत सिंह के एक बेहतरीन सिपाहसालार हरि सिंह नलवा मारे गए थे। इस युद्ध में कुछ सामरिक कारणों से अफगानों को बढ़त हासिल हुई और उन्होंने काबुल पर वापस कब्जा कर लिया।

महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियां –

रणजीत सिंह ने कई विवाह किये थे. उनमें सिख, हिंदू और साथ ही मुस्लिम धर्म की पत्नियां थीं. उनकी कुछ पत्नियां के नाम मेहताब कौर, रानी राज कौर, रानी रतन कौर, रानी चंद कौर और रानी राज बंसो देवी थीं.उनके कई बच्चे भी थे जिनमें बेटे खड़क सिंह, ईशर सिंह, शेर सिंह, पशौरा सिंह और दलीप सिंह शामिल हैं. हालाँकि उन्होंने केवल खारक सिंह और दलीप सिंह को अपने जैविक पुत्र के रूप में स्वीकार किया था। 

उन्हें एक शानदार व्यक्तित्व वाले एक सक्षम और न्यायप्रिय शासक के रूप में याद किया जाता है।  उनका साम्राज्य धर्मनिरपेक्ष था जहां सभी धर्मों का सम्मान किया जाता था और उनकी धार्मिक मान्यताओं के कारण किसी के साथ भेदभाव नहीं किया था। उन्होंने हरमंदिर साहिब के सुनहरे सौंदर्यीकरण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। उनके साहस और वीरता के लिए उन्हें दुनिया भर में बहुत सम्मान दिया गया  इसीकारण उन्हें “शेर-ए-पंजाब” (“पंजाब का शेर”) के रूप में जाना जाता था। 

इसके बारेमे भी पढ़िए :- माधव राव पेशवा की जीवनी

रणजीत सिंह अफगानों के लिए काल बने –

महाराज बनते ही उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और अपने साम्राज्य का विस्तार शुरु कर दिया , उनके दौर में भारत में अफगानों ने अपना आतंक मचा रखा था।  वह तेजी से लूट-पाट करने में लगे थे , रणजीत सिंह ने उनका इलाज करते हुए उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उन्होंने उनके खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं. इसके परिणाम स्वरुप वह उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ने में सफल रहे। 

आगे बढ़ते हुए उन्होंने पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाया, जोकि उनकी बड़ी सफलता साबित हुआ. यह एक ऐसा क्षेत्र था, जहां पर उनसे पहले किसी गैर मुस्लिम ने राज नहीं किया था। वह यही नहीं रुके आगे बढ़ते हुए उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर तक अपनी विजय पताका लहराई.खुद को और ज्यादा मजबूत करते हुए उन्होंने एक विशेष सेना के गठन में अपनी अहम भूमिका अदा की, जिसे ‘सिख खालसा’ के नाम से जाना गया। 

कहा जाता है कि अपने शासन काल में उन्होंने पंजाब को एक समृद्ध और मजबूत राज्य बना दिया था , इतना मजबूत कि उनके जीते-जी अंग्रेज तक वहां कदम रखने से डरते रहे, आखिरकार उन्होंने मध्य पंजाब के क्षेत्र सतलुज से झेलम तक पर कब्जा कर, अपने क्षेत्र का विस्तार किया और सिख साम्राज्य की स्थापना की. उनकी बहादुरी और साहस के कारण उन्होंने “शेर-ए-पंजाब” कहा गया।

Maharaja ranjit singh ki photo
Maharaja ranjit singh ki photo

रणजीत सिंह सदा कौर की कुशलता से लाहौर के राजा बने –

मुश्किल घड़ी में Raja Ranjit Singh ने सदा कौर की सलाह ली थी।

मगर यह सदा कौर के लिए भी आसान नहीं था।

लेकिन बिना डरे सदा कौर ने रणजीत सिंह को कहा लाहौर पर हमला होगा। 

कौर ने रणजीत से पूछा कि आपके पास कितनी सेना है।

इस पर रणजीत सिंह ने बताया कि 3000 सैनिक तैयार है।

सदा कौर के पास इस दौरान 2000 सैनिकों की फौज थी। 

सदा कौर ने कहा कि 5000 की कुल फौज के साथ हम लाहौर पर हमला करेंगे। 

रणजीत सिंह डरे हुए थे और उन्हें पता था कि यदि युद्ध हुआ तो हार निश्‍चित है।

उन्होंने सदा कौर को कहा, माताजी हमारी सेना जैसे ही कूच करेगी हम पर आक्रमण हो जाएगा।

इसके बाद सदा कौर ने कहा कि नहीं हम अमृतसर जाएंगे।

सैनिकों को कहें कि वहां हम पवित्र सरोवर में स्नान करेंगे।

इसके बाद सेना सहित रणजीत और सदा कौर अमृतसर पहुंचे और डेरा डाला था। 

यह बात आग की तरह फैल गई. इसके बाद वहीं पर देर रात तक सदा कौर ने

रणजीत सिंह और सेना कमांडरों के साथ बैठक की और इसके तुरंत बाद सेना ने लाहौर की तरफ कूच किया।

लाहौर के दरवाजे पर पहुंची सेना को देख वहां मौजूद दोनों कबीलों के लड़ाकों ने

भागने में भलाई समझी. इसके बाद मुश्‍किल थी छेत सिंह के किले पर कब्जा करना। 

लाहौर के गेट रणजीत सिंह के ल‌िए खोला –

लाहौर के गेट जनता ने रणजीत सिंह के ल‌िए खोल दिए थे। सेना ने खुशी के चलते गोलियां चलाना शुरू कर दिया. इसके बाद सदा कौर ने किले के दरवाजे पर जाकर दरबान से कहा कि उन्हें छेत सिंह से अकेले में मिलना है. छेत सिंह ने उन्हें किले के अंदर आने को कहा. बेखौफ सदा कौर बिना सिपाहियों या हथियार के अकेली छेत सिंह से मिलने पहुंच गईं। वहां उन्होंने छेत सिंह से कहा कि दोनों कबीलों को हमारी सेना ने मार दिया है. मैं आपकी भलाई चाहती हूं, इसलिए आप किला छोड़ दें, आपकी जागीरें आपकी ही रहेंगी बस लाहौर रणजीत सिंह का होगा. ऐसा नहीं करने पर उन्हें मार दिया जाएगा. इसके दो घंटे बाद छेत सिंह ने किले की चाबियां रणजीत सिंह के हवाले कर दीं. इस तरह बिना एक बूंद खून बहाए सदा कौर ने रणजीत सिंह को लाहौर की गद्दी संभलवा दी। 

इसके बारेमे भी पढ़िए :- बालाजी विश्वनाथ की जीवनी

Maharaja Ranjit Singh आधुनिक सेना के हिमायती –

Raja Ranjit Singh आधुनिक सेना बनाना चाहते थे।

इसके लिए उनको पश्चिमी युद्ध कौशल और तरीकों को अपनाने से भी परहेज नहीं था।

उन्होंने अपनी सेना में कई यूरोपीय अधिकारियों को भी नियुक्त किया।

उनकी सेना को खालसा आर्मी के नाम से जाना जाता था।

 सेना में जहां हरि सिंह नलवा, प्राण सुख यादव, गुरमुख सिंह लांबा,

दीवान मोखम चंद और वीर सिंह ढिल्लो जैसे भारतीय जनरल थे।

फ्रांस के जीन फ्रैंकोइस अलार्ड और क्लाउड ऑगस्ट कोर्ट, इटली के जीन बापतिस्ते वेंचुरा और

पाओलो डी एविटेबाइल, अमेरिका के जोसिया हरलान और स्कॉट-आयरिश मूल के

अलेक्जेंडर गार्डनर जैसे सैन्य ऑफिसर भी शामिल थे। 

गार्डनर रणजीत सिंह के निधन के बाद भी सिख सेना में रहे।

सिख और अंग्रेजों के बीच पहले युद्ध के बाद गार्डनर कश्मीर के महाराजा की फौज में चले गए। 

और कथित रूप से अपने अंतिम दिन श्रीनगर में गुजारे।

फ्रेंच सिपाही जीन फ्रैंकॉइस अलार्ड भाड़े के सिपाही और अडवेंचर पसंद थे।

उन्होंने नेपोलियन की सेना में अपनी सेवा दी थी। 1822 में वह रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुए थे।

रणजीत सिंह की फौज में वह ड्रैगून और लांसर्स नाम की कोर के प्रभारी थे।

जिनको बाद में महाराज की सेना की यूरोपीय ऑफिसर कोर का लीडर बना दिया गया।

Maharaja ranjit singh hd pics
Maharaja ranjit singh hd pics

Maharaja Ranjit Singh Death – रणजीत सिंह का अवसान –

Raja Ranjit Singh की 27 जून 1839 को लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई।

वहीँ उनका अंतिम संस्कार किया गया और उनके अवशेष

पंजाब के लाहौर में Raja Ranjit Singh की समाधि में रखे गए। 

उनके उत्तराधिकारी के रूप में पुत्र खड़क सिंह स्वीकार किया गया।

लेकिन उनकी मृत्यु के 10 वर्ष के भीतर सिख साम्राज्य का अंत हो गया। 

उन्हें एक शानदार व्यक्तित्व वाले एक सक्षम और न्यायप्रिय शासक के रूप में याद किया जाता है.

उनका साम्राज्य धर्मनिरपेक्ष था जहां सभी धर्मों का सम्मान किया जाता था।

उनकी धार्मिक मान्यताओं के कारण किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। 

उन्होंने हरमंदिर साहिब के सुनहरे सौंदर्यीकरण में भी प्रमुख भूमिका निभाई।

उनके साहस और वीरता के लिए उन्हें दुनिया भर में बहुत सम्मान दिया गया था।

इसीकारण उन्हें “शेर-ए-पंजाब” (“पंजाब का शेर”) के रूप में जाना जाता था। 

इसके बारेमे भी पढ़िए :- नाना साहब पेशवा की जीवनी

सिख साम्राज्य का पतन –

दशकों के शासन के बाद रणजीत सिंह का 27 जून, 1839 को निधन हो गया।

उनके बाद सिख साम्राज्य की बागडोर खड़क सिंह के हाथ में आई।

Raja Ranjit Singh के मजबूत सिख साम्राज्य को संभालने में खड़क सिंह नाकाम रहे।

शासन की कमियों और आपसी लड़ाई की वजह से सिख साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।

सिख और अंग्रेजों के बीच हुए 1845 के युद्ध के बाद महान सिख साम्राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

Maharaja Ranjit Singh Biography Video –

Maharaja Ranjit Singh Interesting Facts –

  • महा सिंह और राज कौर के पुत्र रणजीत सिंह दस साल की उम्र से ही
  • घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, एवं अन्य युद्ध कौशल में पारंगत हो गये।
  • नन्ही उम्र में ही रणजीत सिंह अपने पिता महा सिंह के साथ
  • अलग-अलग सैनिक अभियानों में जाने लगे थे।
  • महाराजा रणजीत सिंह को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, वह अनपढ़ थे।
  • अपने पराक्रम से विरोधियों को धूल चटा देने वाले रणजीत सिंह पर 13 साल की
  • कोमल आयु में प्राण घातक हमला हुआ था।
  • हमला करने वाले हशमत खां को किशोर रणजीत सिंह नें खुद ही मौत की नींद सुला दिया।
  • राजा रणजीत सिंह का विवाह 16 वर्ष की आयु में महतबा कौर से हुआ था।
  • उनकी सास का नाम सदा कौर था। 
  • उनके राज में कभी किसी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया गया था।
  • रणजीत सिंह बड़े ही उदारवादी राजा थे, किसी राज्य को जीत कर भी वह अपने शत्रु को
  • बदले में कुछ ना कुछ जागीर दे दिया करते थे। 
  • वो महाराजा रणजीत सिंह ही थे जिन्होंने हरमंदिर साहिब यानि गोल्डन टेम्पल का जीर्णोधार करवाया था।
  • उन्होंने कई शादियाँ की, कुछ लोग मानते हैं कि उनकी 20 शादियाँ हुई थीं।
  • महाराजा रणजीत सिंह न गौ मांस खाते थे ना ही अपने दरबारियों को इसकी आज्ञा देते थे। 

इसके बारेमे भी पढ़िए :- मिल्खा सिंह की जीवनी

Maharaja Ranjit Singh Questions –

1 .महाराजा रणजीत सिंह बच्चे कितने थे ?

खड़क सिंह, ईशर सिंह, शेर सिंह, तारा सिंह, कश्मीरा सिंह,

पेशौरा सिंह, मुल्ताना सिंह और दलीप सिंह नाम के पुत्र थे। 

2 .Maharaja ranjit singh kahan ke raja the ?
 पंजाब के राजा महाराजा रणजीत सिंह थे। 
3 .महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
12 अप्रैल 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की थी। 
4 .महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी कौन थे ?
1801 में जन्म खड़क सिंह को रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी बनाया गया था। 
5 .महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु कैसे हुई थी ?
27 जून, 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मौत हुआ तब उनकी उम्र 59 साल थी । 

Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल maharaja ranjit singh history in hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने maharaja ranjit singh wife और महाराजा रणजीत सिंह और अंग्रेजी राज्य के मध्य कौन सी नदी सीमा का कार्य करती थी से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

Read More >>