Kasturba Biography In Hindi In Hindi Me Janakari - Thebiohindi

Kasturba Biography In Hindi – कस्तूरबा गांधी की जीवनी

हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज Kasturba Biography In Hindi में,महात्मा गांधीजी के धर्म पत्नी यानि  कस्तूरबा गाँधी का जीवन परिचय देने वाले है। 

कस्तूरबा गांधी को सब गांधीजी की पत्नी के रुप में जानते हैं। दरअसल वह गांधी जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिनकी उपलब्धियों के आगे कस्तूरबा गांधी के सभी प्रयास ढक गए। आज हम ,kasturba gandhi information में जिस व्यक्ति के नाम से, kasturba gandhi poshan sahay yojna ,kasturba gandhi kanya vidyalaya और kasturba gandhi road rajkot नाम दिया गया उस महा मानव कस्तूरबा गांधी के जन्म से मौत तक की सभी बाते बताने वाले है। 

कस्तूरबा गांधी देश के प्रति निष्ठावान और समर्पित रहने वाले व्यक्तित्व की एक प्रभावशाली महिला थीं। वह अपनी निर्भीकता के लिए पहचानी जाती हैं। कस्तूरबा गांधी पर कविता भी लिखी गयी है उसका भी जिक्र हम करने वाले है। कस्तूरबा गांधी की माता का नाम व्रजकुंवरबा कपाड़िया था। तो चलिए कस्तूरबा गांधी के बारे में जानकारी बताना शुरू करते है। 

Kasturba Biography In Hindi –

 नाम

  कस्तूरबा गाँधी

 जन्म

  11 अप्रैल सन् 1869,

 जन्म स्थान

 पोरबंदर, ( काठियावाड़ )

 पिता

 गोकुलदास कपाडि़या, 

 पति

  महात्मा गाँधी

kasturba gandhi son

 हरिलाल, manilal gandhi , रामदास, देवदास

 आंदोलन

 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

 मृत्यु 

 22 फ़रवरी सन् 1944,

 मृत्यु स्थान

 आगा ख़ाँ महल, ( पूना )

कस्तूरबा का जीवन परिचय – Kasturba Biography

कस्तूरबा गांधी ने न सिर्फ एक आदर्श पत्नी की तरह अपने पति गांधी जी के सभी अहिंसक प्रयासों में बखूबी साथ दिया, बल्कि उन्होंने देश की आजादी के लिए एक वीरांगना की तरह लड़ाई लड़ी थी। इस दौरान उन्हें कई बार जेल की कड़ी सजा भी भुगतनी पड़ी। कस्तूरबा गांधी, आजादी के आंदोलन के दौरान महिलाओं की रोल मॉडल साबित हुईं।

आइए जानते हैं कस्तूरबा गांधी जी के प्रेरणात्मक जीवन के बारे में-स्तूरबा कस्तूरबा गांधी जी को वैसे तो सभी गांधी जी की पत्नी के रुप में जानते हैं। दरअसल, गांधी जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिनकी उपलब्धियों के आगे कस्तूरबा गांधी के सभी प्रयास ढक गए, लेकिन कस्तूरबा गांधी देश के प्रति निष्ठावान और समर्पित रहने वाले व्यक्तित्व की एक प्रभावशाली महिला थीं, जो कि अपनी निर्भीकता के लिए पहचानी जाती हैं।

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कस्तूरबा का जन्म – Kasturba Gandhi Born 

कई लोग अक्सर पूछते है की कस्तूरबा गांधी का जन्म कब हुआ था तो उन्हें बतादे की 11 अप्रैल 1869 के दिन पोरबंदर में उनका जन्म हुआ था। गाँधीजी से कस्तूरबा 6 मास बड़ी थीं। kasturba gandhi father name गोकुलदास मकनजी था । कस्तूरबा गोकुलदासजी की तीसरी संतान थीं। 

कस्तूरबा की शादी – Kasturba Marriage

जब वे महज 13 साल की थी, उस दौरान उनके पिता ने प्रचलित बाल विवाह प्रथा के तहत उनका विवाह अपने सबसे अच्छे दोस्त कर्मचंद गांधी के बेटे और आजादी के महानायक कहलाने वाले महात्मा गांधी जी से साल 1882 में कर दिया था कस्तूरबा की शादी तो हो गई थी, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के  अनपढ़ थीं, उन्हें ठीक तरह से अक्षरों का ज्ञान तक नहीं था। दरअसल उस वक्त लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था।

महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी विवाह दिनांक May 1883 है। शादी के वक़्त दोनों की उम्र काफी कम थी और वे दोनों ही काफी कम पढ़े लिखे थे। शादी के वक़्त कस्तूरबा गांधी अनपढ़ थीं और उन्हे ठीक से अक्षरों का ज्ञान भी नहीं था कस्तूरबा गांधी को साक्षर बनाने का जिम्मा खुद महात्मा गांधी ने लिया और उन्होने कस्तूरबा गांधी को आधारभूत शिक्षा, जैसे लिखना और पढ़ना सिखाया। हालांकि कस्तूरबा घरेलू जिम्मेदारियों के कारण ज्यादा नहीं पढ़ पाईं।

कस्तूरबा शादी के बाद – Kasturba Biography

कस्तूरबा और महात्मा गांधी जी के पहले बेटे, हरिलाल का जन्म 1888 में हुआ था। यह वही वर्ष था जब महात्मा गांधी लंदन में वकालत की पढ़ाई करने गए थे। वकालत करके लौटने के बाद गांधी जी को 1892 में पुत्रप्राप्ति हुई, जिनका नाम मणिलाल रखा गया। 1897 में गांधी दम्पति के तीसरे बेटे रामदास का जन्म हुआ। तीन बेटों के जन्म के बाद कस्तूरबा एक माँ के पात्र में थीं और घरेलू कार्यकाजों में पूरी तरह से रम गईं थीं। वहीं दूसरी ओर गांधी जी के दौर की यह शुरुआत ही थी।

1888 में गांधी जी के पहले बेटे के जन्म के कारण कस्तूरबा उनके साथ लंदन तो नहीं जा पाईं थीं। पर जब 1897 में महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत का अभ्यास करने का निर्णय लिया, तब कस्तूरबा ने उनका परस्पर साथ दिया। गौरतलब है कि गांधी दम्पति को उनके चौथे पुत्र की प्राप्ति 1900 में हुई, जिनका नाम देवदास रखा गया।

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कस्तूरबा का गृहस्थी जीवन और बच्चे – Kasturba Gandhi Children

शादी के करीब 6 साल बाद साल 1888 में कस्तूरबा गांधी ने अपने सबसे बड़े बेटे हरिलाल को जन्म दिया। हालांकि इस दौरान गांधी जी अपनी लॉ पढ़ाई के लिए लंदन गए हुए थे, जिसके चलते कस्तूरबा गांधी ने अकेले ही अपने बेटे की परिवरिश की। इसके बाद जब गांधी जी वापस अपनी भारत लौटे तब 1892 में उन्हें मणिलाल नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई। फिर इसके बाद महात्मा गांधी जी को अपनी वकालत की प्रैक्टिस के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा,

लेकिन इस बार वे अपने साथ कस्तूरबा गांधी जी को भी ले गए। इस दौरान कस्तूरबा गांधी ने एक आदर्श पत्नी की तरह अपने पति का हर कदम पर साथ दिया। फिर इसके 5 साल बाद 1897 में कस्तूरबा ने अपने तीसरे बेटे रामदास को जन्म दिया और सन् 1900 में कस्तूरबा ने अपनी चौथी संतान देवदास को जन्म दिया।

आजादी की लड़ाई में कस्तूरबा गांधी की भूमिका-

कस्तूरबा गांधी जी ने भी भारत की आजादी का सपना देखा था और इसी के चलते उन्होंने तमाम घरेलू जिम्मेंदारियों के बाबजूद भी महात्मा गांधी जी द्धारा पराधीनता की बेड़ियों से स्वाधीनता पाने के लिए चलाए गए आंदोलनों में अपनी बढ़चढ़ भूमिका निभाई। वहीं स्वतंत्रता आंदोलनों के दौरान जब-जब गांधी जी जेल गए कस्तूरबा गांधी ने अपने महान और नेतृत्व गुणों का परिचय दिया और लोगों को प्रोत्साहित कर उनके अंदर आजादी पाने की अलख जगाने का काम किया।

 गांधी जी के अहिंसक आंदोलन के दौरान उनके साथ जाती थीं और लोगों को सफाई, शिक्षा और अनुशासन आदि के महत्व को समझाती थी। उस दौरान जब महिलाओं को सिर्फ घर की चार दीवारों में ही कैद कर रखा जाता था, उस दौर में कस्तूरबा गांधी महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करती थी।

यही नहीं स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ‘बा’ को भी इस दौरान कई बार क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के लिए जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी, लेकिन वे कभी भी पीछे नहीं हटी और वीरांगनाओं की तरह देश की आजादी के खातिर लड़ती रहीं।

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कस्तूरबा और गांधीजी का रिस्ता – Kasturba Biography

आपको जानकर हैरानी होगी कि शादी के बाद गांधीजी एकदम पति वाली भूमिका में आ गए थे और बा पर तमाम तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए थे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में अपने जीवन के तमाम तरह के प्रयोगों के बारे में लिखा है।  जिसमे देसी उपचारों से लेकर ब्रह्मचर्य तक के उनके प्रयोग शामिल हैं। इसी किताब में गांधीजी ने अपने बाल विवाह के बारे में भी कई दिलचस्प कहानियां लिखी हैं। 

 उनकी कस्तूरबा से पहले भी 2 लड़कियों से सगाई हो चुकी थी, वो भी केवल 7 साल की उम्र तक, लेकिन दोनों ही लड़कियों की कम उम्र में ही मौत हो गयी। शायद गांधीजी की किस्मत में कस्तूरबा ही लिखी थीं। Kasturba Biography – गांधीजी पत्नी के लिए कस्तूरबाई लिखा करते थे, जब वो घर में आईं, तो दोनों ही एक दूसरे से काफी शरमाते और डरते थे। धीरे धीरे दोनों बालक आपस में घुल मिल गए। 

लेकिन गांधीजी को अचानक ये लगने लगा था कि अगर वो एक स्त्रीवाद में यकीन करते हैं तो उनकी पत्नी को भी एक एकपति व्रत का पालन करना चाहिए। इसलिए गांधीजी ने अब पत्नी पर तमाम तरह के प्रतिबन्ध थोपने की कोशिश की, जैसे कहीं भी बिना अनुमति के न जाये, वो कहाँ जा रही है ये उनको पता ही होना चाहिए ।

कस्तूरबा और गांधीजी बिच झगड़ा – Kasturba Biography

 उनके सारे प्रतिबंध मानने के लिए उनकी पत्नी कोई वयस्क तो थीं नहीं जो उस वक़्त प्रचलित पति परमेश्वर वाली अवधारणा मानतीं। वो तो इसे कैद मानतीं और गांधीजी की कई बातों को नकार देतीं, दोनों में इससे झगड़ा भी होता।  हालाँकि ये सारी बातें गांधीजी ने खुद बताई हैं कि वो कैसे थे। साथ ही उन्होंने ये भी लिखा है कि कोई ये न सोचें कि ऐसी घटनाओं से हमारे रिश्ते ख़राब हो जाते थे। वो तो उस उम्र की सहज सोच और भावनाएं थीं।

कस्तूरबा निरक्षर थीं और विवाह के वक़्त वो खुद हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। उनकी दिली ख्वाहिश थी की वो अपनी पत्नी को पढ़ाएं लेकिन दिन में वो पढाई करवा नहीं सकते थे। क्योंकि घरवालों के सामने काठियावाड में पत्नी से बात तक करना मुश्किल था और रात में वो पत्नी से प्रेम वार्ता में ही व्यस्त हो जाते थे।

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राजनैतिक दौर और आंदोलन में कस्तूरबा की भूमिका –

कस्तूरबा गांधी भले ही घरेलू संसार में अत्यधिक समय तक रहीं हों, लेकिन वे गांधी जी के विचारों से काफी ज्यादा प्रभावित थीं और उनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ देतीं थीं। गौरतलब है कि गांधी जी जहां अपनी राजनीतिक व्यस्तता के कारण अपने पुत्रों को समय नहीं दे पा रहे थे, वहीं कस्तूरबा ने डोर के दोनों ही सिरों को बड़ी बारीकी से पकड़ा हुआ था।

कस्तूरबा गांधी एक अच्छी कार्यकर्ता होने के साथ साथ एक अच्छी माँ बनने के लिए भी एड़ी चोटी लगाकर प्रयत्न कर रहीं थीं। दक्षिण अफ्रीका से ही महात्मा गांधी ने अपने आंदोलन का आधार बनाया था, और यहाँ पर कस्तूरबा ने उनका बखूबी साथ दिया था। कस्तूरबा गांधी अन्य सभी कार्यकर्ताओं की तरह ही अनशन और भूख हड़ताल करके सरकार की नाक में दम कर देतीं थीं।

गौरतलब है कि सन 1913 में पहली बार उन्हे भारतीय मजदूरों की दक्षिण अफ्रीका में स्थिति के बारे में सवाल खड़े करने पर जेल में डाल दिया गया था। तीन महीने की मिली इस सजा के दौरान इस बात का बारीकी से ध्यान रखा गया था कि यह सजा कड़ी हो और कस्तूरबा दुबारा आवाज उठाने की हिम्मत न करें, लेकिन कस्तूरबा को डराने की कोशिश पूर्णतः नाकाम रही।

कस्तूरबा गांधीजी को अपना आदर्श मानती थी –

  • कस्तूरबा गांधी जी अपने पति महात्मा गांधी जी को अपना आदर्श मानती थी और वे उनसे इतना अधिक प्रभावित थीं कि बाद में उन्होंने भी अपने जीवन को गांधी जी की तरह बिल्कुल साधारण बना लिया था।
  •  गांधी जी पहले कोई भी काम खुद करते थे, इसके बाद वे किसी और से करने के लिए कहते थे। वहीं उनके इस स्वभाव से कस्तूरबा गांधी जी काफी प्रसन्न रहती थीं और उनसे सीखती थी।
  •  कस्तूरबा गांधी और महात्मा गांधी जी से जुड़ा हुआ एक काफी चर्चित प्रसंग भी है। दरअसल, जब कस्तूरबा बीमार रहने लगीं थी, तब गांधी जी ने उनसे नमक छोड़ने के लिए कहा।
  •  कस्तूरबा ने पहले तो नमक के बिना खाना बेस्वाद लगने का तर्क दिया, लेकिन जब गांधी जी को उन्होंने खुद नमक छोड़ते हुए देखा तो वे काफी प्रभावित हुईं।
  • उन्होंने नमक छोड़ दिया एवं अपना जीवन भी गांधी जी तरह जीना शुरु दिया। वे उन्हें अपना प्रेरणास्त्रोत मानती थीं।

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” बा ” की कार्यक्षमता और कर्मठता के बापू भी दीवाने थे –

Kasturba Biography – जब कस्तूरबा गांधी अपने पति गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रीका में साथ रह रहीं थी, उस दौरान गांधी जी ने कस्तूरबा गांधी के अंदर छिपी सामाजिक, राजनैतिक क्षमता का अंदाजा लगाया और तभी उन्हें उनकी देशभक्ति का एहसास हुआ। वहीं जिस तरह कस्तूरबा गांधी अपने घर का कामकाज करने में निपुण थीं और एक आदर्श मां की तरह बच्चों का पालन -पोषण करती थीं।

 गांधी जी के सभी का्मों में हाथ बंटाती थी और स्वतंत्रता आंदोलन में भी एक वीरांगना की तरह लड़ती थी, साथ ही गांधी जी के आश्रमों की भी देखभाल करती थी और सत्याग्राहियों की सेवा भी पूरे मनोभाव से करती थीं। इसी वजह से उन्हें लोग ‘बा’ कहकर भी पुकाते थे। गांधी जी ने कस्तूबा जी की कर्मठता से अत्याधिक प्रभावित हुए और फिर उन्होंने आजादी की लड़ाई में कस्तूरबा गांधी को महिलाओं की रोल मॉडल के तौर पर पेश किया। 

 वे आजादी की लड़ाई में महिलाओं के जोड़ने का महत्व जानते थे। वहीं कस्तूरबा गांधी जी ने भी उस दौरान आजादी की लड़ाई में उनके अंदर जोश भरने का काम किया। महिलाओं को उनके महत्व को बताया। कस्तूरबा गांधी ने बहुत सी महिलाओं को प्रेरित किया और स्वतंत्रता आंदोलन को नया आयाम प्रदान किया।

कस्तूरबा गांधी की मृत्यु – Kasturba Gandhi Death 

Kasturba Biography – कस्तूरबा गांधी अपने जीवन के आखिरी दिनों में काफी बीमार रहने लगीं थी। 1942 में गांधी जी के ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान जब गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया था। उस दौरान कस्तूरबा गांधी ने मुंबई के शिवाजी पार्क में खुद भाषण देने का फैसला लिया। दरअसल पहले वहां गांधी जी भाषण देने वाले थे। लेकिन कस्तूरबा गांधी जी के पार्क में पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। 

उस दौरान वे बीमार थी और इसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता चला गया। साल 1944 में उन्हें दो बार हार्ट अटैक भी पड़ा और फिर फरवरी, 1944 में बा इस दुनिया को अलविदा कहकर हमेशा के लिए चलीं गईं। मरते वक्त kasturba gandhi age 74 वर्ष थी। कस्तूरबा गांधी ने उस दौरान स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बनीं, जिस दौरान महिलाओं को घर से बाहर निकलने तक की इजाजत नहीं थी।

कस्तूरबा गांधी जी का अपना एक अलग दृष्टिकोण था, उन्हें आज़ादी का मोल, पता था। उन्होंने हर क़दम पर अपने पति मोहनदास करमचंद गाँधी का साथ निभाया था। वहीं ‘बा’ जैसा आत्मबलिदान वाला व्यक्तित्व अगर गांधी जी के साथ नहीं होता तो शायद गांधी जी के सारे अहिंसक प्रयास इतने कारगर नहीं होते। 

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Kasturba Gandhi Histori in Hindi Video –

Kasturba Gandhi Facts – 

  • कम उम्र में शादी होने के बाद भी कस्तूरबा अपनी जवाबदारियो से नहीं भागी। अपने कर्तव्यो का पालन करती रही, और अपने समाज की सेवा  की कस्तूरबा महिलाओ की प्रेरणास्त्रोत है।
  • स्वतंत्रता के दिनों में महिलाओ को महत्त्व नहीं दिया जाता था।  उस वक्त महात्मा गांधीजी ने कस्तूरबा को समाजसेवा करने से नहीं रोका था। 
  • कस्तूरबा गांधी जी के त्याग, बलिदान और समर्पिण को हमेशा याद किया जाता रहेगा। क्योकि कस्तूरबा वह महिला थी जिसने जीवन भर अपने पति का साथ दिया था। 
  • शादी के करीब 6 साल बाद साल 1888 में कस्तूरबा गांधी ने अपने सबसे बड़े बेटे हरिलाल को जन्म दिया।

Kasturba Gandhi Questions – Kasturba Biography

1 .mahaatma gaandhee aur kastooraba gaandhee vivaah bandhan mein kis varsh bandhe the ?

महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी का विवाह May 1883 में हुआ था। 

2 .kastooraba gaandhee kee mrtyu kis jel mein huee ?

74 वर्ष की आयु में पूना के कारागार में कस्तूरबा गांधी की मृत्यु हुई थी। 

3 .kastooraba gaandhee kee mrtyu kab huee ?

1944 की साल में  कस्तूरबा गांधी की मृत्यु जेल में हुई थी। 

4 .kastooraba gaandhee ka shiksha mein yogadaan ?

कस्तूरबा गांधी शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 

5 .kastooraba gaandhee ke maata pita ka naam ?

कस्तूरबा के पिता गोकुलदास मकंन जी और उनकी माता का नाम ब्रजकुंवर कपाडिया था।

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Conclusion –

आपको मेरा यह आर्टिकल Kasturba Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज और पसंद आया होगा। इस लेख के जरिये  हमने kasturba gandhi mother name और kasturba gandhi cause of death से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Dadabhai Naoroji Biography In Hindi - Thebiohindi

Dadabhai Naoroji Biography In Hindi – दादाभाई नौरोजी का जीवन परिचय

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Dadabhai Naoroji Biography In Hindi बताएँगे। भारत का “ग्रैंड ओल्ड मेन ” और स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने वाले दादाभाई नौरोजी का जीवन परिचय से वाकिफ करने वाले है। 

दादाभाई एक महान स्वतंत्रता संग्रामी और एक अच्छे शिक्षक थे। जिन्हें वास्तुकार के रूप में देखा जाता है। कपास के व्यापारी और एक प्रारंभिक भारतीय राजनीतिक और सामाजिक नेता थे। आज dadabhai naoroji contribution ,dadabhai naoroji famous book और dadabhai naoroji religion की जानकारी से ज्ञात करेंगे। दादाभाई एक पारसी थे। तो चलिए दादा भाई नौरोजी हिस्ट्री बताना शुरू करते है। 

1892 से 1895 के दौरान दादाभाई लिबरल पार्टी के सदस्य के तौर पर ब्रिटिश संसद के सदस्य रहे थे। ये पहले एशियाई थे, जो ब्रिटिश संसद के मेम्बर बने थे। नौरोजी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का रचियता कहा जाता है। इन्होने ए ओ हुम और दिन्शाव एदुल्जी के साथ मिल कर इस पार्टी को बनाया था। दादाभाई इस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन बार अध्यक्ष भी रहे थे। दादाभाई पहले भारतीय थे, जो कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए थे। 

Dadabhai Naoroji Biography In Hindi –

Name

 दादाभाई नवरोजी

 जन्म

 4 सितम्बर, 182

 जन्म स्थान

 बॉम्बे, भारत

Father

 नौरोजी पलंजी दोर्दी

 माता

 मानेक्बाई

 पत्नी

 गुलबाई

 राजनैतिक पार्टी

 लिबरल

 निवास

 लन्दन

 अन्य पार्टी

 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

 मृत्यु

 30 जून, 1917

दादाभाई नौरोजी का जन्म और बचपन

Dadabhai Naoroji  – दादा भाई नौरोजी जन्म दिवस 4 सितम्बर, 1825 और बॉम्बे में हुआ था। dadabhai naoroji family एक गरीब पारसी परिवार था। जब दादाभाई 4 साल के थे, तब इनके पिता नौरोजी पलंजी दोर्दी की मृत्यु हो गई थी।इनकी माता मानेक्बाई ने इनकी परवरिश की थी। पिता का हाथ उठने से, इस परिवार को बहुत सी आर्थिक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा था। इनकी माता अनपढ़ थी। 

उन्होंने अपने बेटे को अच्छी अंग्रेजी शिक्षा देने का वादा किया था। दादाभाई को अच्छी शिक्षा देने में उनकी माता का विशेष योगदान था। दादाभाई की शादी 11 साल की उम्र में, 7 साल की गुलबाई से हो गई थी। उस समय भारत में बाल विवाह का चलन था।  दादाभाई के 3 बच्चे थे, एक बेटा एवं और 2दो बेटीया थी। dadabhai naoroji nick name “ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया” और “भारत के अनौपचारिक राजदूत” था। 

दादाभाई की शुरुवाती शिक्षा ‘नेटिव एजुकेशन सोसायटी स्कूल’ से हुई थी। इसके बाद दादाभाई ने ‘एल्फिनस्टोन इंस्टिट्यूशन’ बॉम्बे से पढाई थी। जहाँ इन्होने दुनिया का साहित्य पढ़ा था। दादाभाई गणित एवं अंग्रेजी में बहुत अच्छे थे।  15 साल की उम्र में दादाभाई को क्लेयर’स के द्वारा स्कॉलरशीप मिली थी। 

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दादाभाई नौरोजी का करियर

Dadabhai Naoroji  – यहाँ से पढाई पूरी करने के बाद दादाभाई को यही पर हेड मास्टर बना दिया गया था। dadabhai naoroji ka ujala naat पारसी पुरोहित थे। इन्होने 1 अगस्त 1851 को ‘रहनुमाई मज्दायास्नी सभा’ का गठन किया था।  इसका उद्देश्य यह था कि पारसी धर्म को एक साथ इकट्टा किया जा सके। यह सोसायटी आज भी मुंबई में चलाई जा रही है। 

इन्होने 1853 में फोर्थनाईट पब्लिकेशन के तहत ‘रास्ट गोफ्तार’ बनाया था, जो आम आदमी की, पारसी अवधारणाओं को स्पष्ट करने में सहायक था। 1855 में 30 साल की उम्र में दादाभाई को एल्फिनस्टोन इंस्टिट्यूशन में गणित एवं फिलोसोफी का प्रोफेसर बना दिया गया था। ये पहले भारतीय थे। जो कॉलेज में प्रोफेसर बने थे। 

1855 में ही दादाभाई ‘कामा एंड को’ कंपनी के पार्टनर बन गए। यह पहली भारतीय कंपनी थी। जो ब्रिटेन में स्थापित हुई थी। इसके काम के लिए दादाभाई लन्दन गए। दादाभाई लगन से वहाँ काम किया करते थे। लेकिन कंपनी के अनैतिक तरीके उन्हें पसंद नहीं आये और उन्होंने इस कंपनी में इस्तीफा दे दिया था। 1859 में खुद की कपास ट्रेडिंग फर्म बनाया जिसका नाम ‘नौरोजी एंड को’ रखा था। 

भारतीयों के उत्थान के लिए काम शुरू किया –

1860 के दशक की शुरूवात में, दादाभाई ने सक्रिय रूप से भारतीयों के उत्थान के लिए काम करना शुरू किया था।  वे भारत में ब्रिटिशों की प्रवासीय शासनविधि के सख्त खिलाफ थे। इन्होने ब्रिटिशों के सामने dadabhai naoroji drain theory प्रस्तुत की जिसमें बताया गया था। कि ब्रिटिश कैसे भारत का शोषण करते है। कैसे वो योजनाबद्ध तरीके से भारत के धन और संसाधनों में कमी ला रहे है। और देश को गरीब बना रहे है। 

इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद दादाभाई भारत वापस आ गए। 1874 में बरोदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड तृतीय के सरंक्षण में दादाभाई काम करने लगे। यहाँ से उनका सामाजिक जीवन शुरू हुआ। और वे महाराजा के दीवान बना दिए गए। 1885 – 1888 के बीच में मुंबई की विधान परिषद के सदस्य के रूप में दादा भाई नौरोजी के कार्य किया था। 

1886 में दादाभाई नौरोजी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। इसके अलावा दादाभाई 1893 एवं 1906 में भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। तीसरी बार 1906 में जब दादाभाई अध्यक्ष बने थे। तब उन्होंने पार्टी में उदारवादियों और चरमपंथियों के बीच एक विभाजन को रोका था। 1906 में दादाभाई ने ही सबके सामने कांग्रेस पार्टी के साथ स्वराज की मांग की थी। 

दादाभाई नौरोजी ब्रिटेन के संसद –

दादाभाई विरोध के लिए अहिंसावादी और संवैधानिक तरीकों पर विश्वास रखते थे। दादाभाई नवरोजी पहले एशियाई इंसान थे जो ब्रिटेन की संसद में चुनकर पहुंचे थे। 1892 में ब्रिटेन के संसद में एक भारतीय चुनकर पहुंचा। ये कैसे हुआ? इस ऐतिहासिक घटना का आज के दौर में क्या महत्व है? दादाभाई नौरोजी (1825-1917) की पहचान सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि वह ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचने वाले एशिया के पहले शख्स थे। 

महात्मा गांधी से पहले वो भारत के सबसे प्रमुख नेता थे। दुनिया भर में नौरोजी जातिवाद और साम्राज्यवाद के विरोधी की तरह भी जाने जाते थे। दुनिया भर में पैदा हुए कई नए संकटों के बीच दादाभाई को याद करना फिर ज़रूरी हो गया है. उनका जीवन इस बात का गवाह है कि कैसे प्रगतिशील राजनीतिक शक्ति इतिहास के काले अध्यायों में भी एक रोशनी की किरण की तरह है। 

नौरोजी का जन्म बॉम्बे के एक ग़रीब परिवार में हुआ था।  वह उस वक़्त फ़्री पब्लिक स्कूलिंग के नए प्रयोग का हिस्सा थे। दादा भाई नौरोजी के विचार थे। कि लोगों की सेवा ही उनके शिक्षा का नैतिक ऋण चुकाने का ज़रिया है। कम उम्र से ही उनका जुड़ाव प्रगतिशील विचारों से रहा था। 

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राजनैतिक सफर में दादाभाई नौरोजी का आगमन –

दादाभाई ने 1852 में भारतीय राजनीती में कदम रखा।  इन्होने दृढ़ता से 1853 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लीज नवीकरण का विरोध किया था। इस संबंध में दादाभाई ने ब्रिटिश सरकार को याचिकाएं भी भेजी थी।  लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी इस बात को नजरंदाज करते हुए, लीज को रिन्यू कर दिया था। दादाभाई नौरोजी का मानना था कि भारत में ब्रिटिश शासन, भारतीय लोगों की अज्ञानता की वजह से था। 

वयस्कों की शिक्षा के लिए दादाभाई ने ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ की स्थापना की थी। भारत की परेशानी बताने के लिए दादाभाई ने राज्यपालों और वायसराय को अनेकों याचिकाएं लिखी। अंत में उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश लोगों और ब्रिटिश संसद को भारत एवं भारतीयों की दुर्दशा के बारे में अच्छे से पता होना चाहिए। 1855 में 30 साल की उम्र में वे इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। 

दादाभाई नवरोजी ने लड़कीयोकि पढाई पर प्रभाव डाला –

1840 के दशक में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला जिसके कारण रूढ़िवादी पुरुषों के विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन उनमें अपनी बात को सही तरीक़े से रखने और हवा का रुख़ मोड़ने के अद्भुत क्षमता थी। पांच साल के अंदर ही बॉम्बे का लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा नज़र आने लगा था। नौरोजी के इरादे और मज़बूत हो गए और वह लैंगिक समानता की मांग करने लगे। 

नौरोजी का कहना था कि भारतीय एक दिन ये समझेंगे कि “महिलाओं को दुनिया में अपने अधिकारों का इस्तेमाल, सुविधाओं और कर्तव्यों का पालन करने का उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष को” धीरे-धीरे, भारत में महिला शिक्षा को लेकर नौरोजी ने लोगों की राय को बदलने में मदद की थी। 

दादाभाई नौरोजी का इंग्लैंड सफर केसा रहा – Dadabhai Naoroji 

इंगलैंड में रहने के दौरान दादाभाई ने वहां की बहुत सी अच्छी सोसायटी ज्वाइन की। वहां भारत की दुर्दशा बताने के लिए अनेकों भाषण दिए, ढेरों लेख लिखे थे। 1 दिसम्बर, 1866 को दादाभाई ने ‘ईस्ट इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना की।  इस संघ में भारत के उच्च उच्च पदस्थ अधिकारी और ब्रिटिश संसद के मेम्बर शामिल थे। 1880 में दादाभाई एक बार फिर लन्दन गए। दादाभाई को 1892 में वहां हुए, आम चुनाव के दौरान ‘सेंट्रल फिन्स्बरी’ द्वारा ‘लिबरल पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप प्रस्तुत किया गया।

जहाँ वे पहले ब्रिटिश भारतीय एम् पी बने। उन्होंने भारत एवं इंग्लैंड में I.C.S की प्रारंभिक परीक्षाओं के आयोजन के लिए, ब्रिटिश संसद में एक बिल भी पारित कराया। उन्होंने भारत और इंग्लैंड के बीच प्रशासनिक और सैन्य खर्च का भी वितरण के लिए विले आयोग और भारत व्यय पर रॉयल कमीशन बनाया था। 

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दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटेन साम्राज्य को चुनौती दी –

Dadabhai Naoroji – 1855 में पहली बार नौरोजी ब्रिटेन पहुंचे. वह वहां की समृद्धि देख स्तब्ध रह गए। वह समझने की कोशिश करने लगे कि उनका देश इतना ग़रीब और पिछड़ा क्यों है। यहां से नौरोजी के दो दशक लंबे आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत हुई जिसमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की उस मान्यता को चुनौती दी जो साम्राज्यवाद को उपनिवेशी देशों में समृद्धि का कारण मानता है। 

उन्होंने अपनी पढ़ाई से ये साबित किया कि सच दरअसल इस मान्यता के बिल्कुल विपरीत है। उनके मुताबिक ब्रिटिश शासन, भारत का “ख़ून बहा कर” मौत की तरफ़ ले जा रहा था और भयावह अकाल पैदा कर रहा था। इससे नाराज़ कई ब्रितानियों ने उन पर देशद्रोह और निष्ठाहीनता का आरोप लगाया। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि एक उपनिवेश में रहने वाला व्यक्ति सार्वजनिक रूप से इस तरह के दावे कर रहा था। 

हालांकि साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ विचार रखने वाले लोगों को नौरोजी के नए ठोस विचारों से फ़ायदा हुआ। साम्राज्यवाद के कारण उपनिवेशों से कैसे “धन बाहर गया” पर उनके विचार ने यूरोपीय समाजवादियों, विलियम जेनिंग्स ब्रायन जैसे अमेरिकी प्रगतिशील और संभवतः कार्ल मार्क्स को भी इस मुद्दे से अवगत कराया था। 

नौरोजी का ब्रिटेन संसद में पहोचने का कारण – Dadabhai Naoroji 

नौरोजी की ब्रिटिश संसद में पहुंचने की महत्वाकांक्षा के पीछे भारत की ग़रीबी थी। ब्रिटिश उपनिवेश से आने के कारण वह संसद में चयन के लिए ख़ड़े हो सकते थे। जब तक वो ब्रिटेन में रहकर ऐसा करें। कुछ आयरिश राष्ट्रवादियों के मॉडल की तर्ज़ पर उनका मानना था कि भारत को वेस्टमिंस्टर में सत्ता के हॉल के भीतर से राजनीतिक परिवर्तन की मांग करनी चाहिए। 

भारत में इस तरह का कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, 1886 में उन्होंने अपना पहला अभियान होलबोर्न से लॉन्च किया। वो बुरी तरह से पराजित हो गए।  लेकिन नौरोजी ने हार नहीं मानी अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन में प्रगतिशील आंदोलनों के बीच गठबंधन किया. नौरोजी महिलाओं के मताधिकार के मुखर समर्थक भी बन गए। 

उन्होंने आयरलैंड के घरेलू शासन का समर्थन किया और आयरलैंड से संसद के लिए खड़े होने के क़रीब भी पहुंचे. उन्होंने ख़ुद को श्रम और समाजवाद के साथ जोड़ दिया, पूंजीवाद की आलोचना की और मज़दूरों के अधिकारों के लिए आह्वान किया था। 

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ब्रिटेन के वर्ग को समझाने में कामयाब –

नौरोजी ब्रिटेन के एक बड़े वर्ग को समझाने कामयाब हो गए थे कि भारत को तत्काल सुधारों की आवश्यकता थी, वैसे ही जिस तरह महिलाओं को वोट के अधिकार कीया कामगारों को आठ घंटे काम करने के नियम की।  उन्हें मज़दूरों, उनके नेताओं, कृषिविदों, नारीवादियों और पादरियों के समर्थन के पत्र मिले थे। 

लेकिन ब्रिटेन में सभी एक भावी भारतीय सांसद से ख़ुश नहीं थे। कई लोग उन्हें “कार्पेटबैगर” और “हॉटेनटॉट” कह कर बुलाते थे। यहां तक कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री, लॉर्ड सैलिसबरी ने नौरोजी को एक “काला आदमी” बताया जो अंग्रेज़ों के वोट का हकदार नहीं था। लेकिन नौरोजी उतने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब हो गए जितने वोटों की उन्हें ज़रूरत थी. 1892 में लंदन के सेंट्रल फिंसबरी से नौरोजी ने सिर्फ़ पांच वोटों से चुनाव जीता था।

इसके बाद उन्हें दादाभाई नैरो मेजोरिटी भी कहा जाने लगे थे। सांसद दादाभाई ने बिना समय गंवाए संसद में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन एक “दुष्ट” ताक़त है जिसने अपने साथी भारतीयों को ग़ुलाम जैसी स्थिति में रखा है। वह नियम बदलने और भारतीयों के हाथ में सत्ता देने के लिए क़ानून लाना चाहता थे। लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम रहीं थी।

चुनाव में हार –

ज़्यादातर सांसदों ने उनके मांग पर ध्यान नहीं दिया, 1895 दोबारा चुनाव हुए और वह हार गए। नवरोजिने बुरे समय में उम्मीद नहीं छोड़ी वह नौरोजी के जीवन का सबसे ख़राब समय था। 1890 के दशक के अंत और 1900 के शुरुआती दिनों में, ब्रिटिश शासन और क्रूर हो गया था। अकाल और महामारी के कारण उपमहाद्वीप में लाखों लोग मारे गए, कई भारतीय राष्ट्रवादियों का मानना ​​था।

उनके प्रयास अंतिम मोड़ पर पहुंच चुके थे। लेकिन नौरोजी उम्मीद नहीं छोड़ी। उन्होंने अपनी मांगो में वृद्धि करते हुए अधिक प्रगतिशील निर्वाचन क्षेत्रों, प्रारंभिक मज़दूरों, अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी, अफ्रीकी-अमेरिकियों और काले ब्रिटिश आंदोलनकारियों को साथ लिया। उन्होंने ऐलान किया कि भारत को स्वराज की ज़रूरत थी और यही देश से बाहर जाते धन को रोकने का ज़रिया था। 

ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेनरी कैंपबेल-बैनरमैन से उन्होंने कहा कि यही उनके साम्राज्यवाद की ग़लतियों को सुधारने का तरीक़ा है। ये शब्द और विचार दुनिया भर में घूमने लगे। उन्हें यूरोप के समाजवादियों ने, अफ्रीकी-अमरीकी प्रेस ने, भारतीयों ने और गांधी की अगुवाई में दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने हाथों हाथ लिया। स्वराज एक साहसिक मांग थी। 

राजनीतिक असफलता –

मानव इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से कमज़ोर अपना अधिकार कैसे ले सकते हैं? नौरोजी अपने आशावाद और कभी पीछे नहीं हटने वाली प्रवृति के साथ बने रहे। 81 साल की उम्र में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी राजनीतिक असफलताओं को स्वीकार किया था। यहां तक कि, मुझे डर है, विद्रोह करने से डर लगता है.” हालांकि, विचारों में दृढ़ता, दृढ़ संकल्प और प्रगतिशील विचारों पर विश्वास ही सही विकल्प थे। 

उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों से कहा, “जैस-जैसे कि हम आगे बढ़ते हैं। हम ऐसे रास्तों को अपना सकते हैं जो उस मोड़ पर उपयुक्त हों, लेकिन में अंत तक टिके रहना होगा.”

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दादाभाई नौरोजी के विचारो का महत्व – Dadabhai Naoroji 

dadabhai naoroji views on the cause of poverty in india ऐसे शब्द आज की राजनीतिक बहसों के बारे में क्या बताते हैं ? आज एक सदी बाद, नौरोजी की भावनाएं बहुत सरल लग सकती हैं- लोक-लुभावनवाद, युगांतरकारी सत्तावाद और तीखे पक्षपात के युग में एक विचित्र रचनावाद हमारा दौर बहुत अलग है। वर्तमान में ब्रिटिश संसद वो एशियाई सांसद भी हैं जिनका शाही इतिहास पर अस्पष्ट दृष्टिकोण है और ब्रेक्सिट को लेकर अड़ियल रवैया भारत हिंदू राष्ट्रवाद की चपेट में है। 

जो पूरी तरह से अपने संस्थापक सिद्धांतों के खिलाफ़ है- सिद्धांत जिन्हें नौरोजी ने आकार देने में मदद की थी। नौरोजी जिन्होंने अध्ययन के माध्यम से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाया, नक़ली समाचार और तथ्यहीन जानकारियों के इस दौर में उनकी क्या राय होती, ये अंदाज़ा लगाना मुमकिन नहीं है। फिर भी नौरोजी की दृढ़ता, प्रयास और प्रगति में विश्वास हमें आगे की राह तो दिखाते ही हैं। 

Dadabhai Naoroji Swaraj –

जब नौरोजी ने सार्वजनिक रूप से 1900 के दशक में स्वराज की मांग शुरू की, तो उन्होंने माना था कि इसे पाने में कम से कम 50 से 100 साल लगेंगे। ब्रिटेन अपने शाही चरम पर था और अधिकांश भारतीय स्वराज जैसे विचारों पर बात करने के लिए बहुत ग़रीब और पिछड़े। नौरोजी आज यह जानकर स्तब्ध रह जाते कि उनके पोते एक स्वतंत्र भारत में रहे हैं। और ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के गवाह हैं। 

इससे कई महत्वपूर्ण सबक मिलते है – साम्राज्य गिर जाते हैं, निरंकुश शासन ख़त्म हो जाते हैं। लोगों की राय अचानक बदल जाती है। नौरोजी हमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देते हैं। वह हमें प्रगतिशील आदर्शों पर विश्वास बनाए रखने का आग्रह करते हैं और दृढ़ रहने के लिए कहते हैं।  दृढ़ता और फौलादी संकल्प सबसे अप्रत्याशित परिणाम दे सकते हैं- एक सदी पहले ब्रिटिश संसद के लिए भारतीय का चुनाव जीतने से भी अधिक अप्रत्याशित। 

दादा भाई नौरोजी के राजनीतिक विचार –

  • दादा भाई गोखले की भाति उदारवादी राष्ट्रवादी थे और अंग्रेजी में न्यायप्रियता में विश्वास रखते ।
  • भारत के लिए ब्रिटिश शासन को वरदान मानते थे ।
  • स्वदेशी और बहिष्कार का सांकेतिक रूप से प्रयोग करने पर दादा भाई बल देते थे ।
  • दादा भाई ने सर्वप्रथम भारत का आर्थिक आधार पर अध्ययन किया था। 

दादाभाई नौरोजी मौत  – Dadabhai Naoroji Death

अपने अंत के दिनों में दादाभाई अंग्रेजों द्वारा भारतीय पर हुए शोषण पर लेख लिखा करते थे, साथ ही इस विषय पर भाषण दिया करते थे। दादाभाई नौरोजी ने ही भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की नींव की स्थापना की थी। 30 जून 1917 को 91 साल की उम्र में भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी दादाभाई नौरोजी का देहांत हो गया था। 

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Dadabhai Naoroji History Video –

Dadabhai Naoroji Interesting Facts –

  • 1906 में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार से पहली बार स्वराज की मांग की थी। इस बात को सबसे पहले दादाभाई ही सबके सामने लाये थे। 
  •  दादा भाई नौरोजी की किताबे की बात करे तो पावर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया।जिससे भाषण, लेख,उच्चाधिकारियों से पत्रव्यवहार और निबंध और दादा भाई नौरोजी संगठनों की स्थापना दी गई है। 
  • ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना दादाभाई ने सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारियों एव भारतीयों के सहयोग से1866 में लंदन में की थी।
  • दादा भाई नौरोजी के आर्थिक विचार ऐसे थे की भारतीयों की निर्धनता और अशिक्षा के लिए ब्रिटिश शासन को जिम्मेदार ठहराया था।
  • दादा भाई नौरोजी पुस्तके लिखे जिसमे निर्धनता और भारत में ब्रिटिश शासन का वर्णन मिलता है। 

Dadabhai Naoroji Questions –

1 .bharateey yogadaan mein daadaabhaee naurojee ka yogadaan kya hai ?

दादाभाई 1867 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्ववर्ती संगठन ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की 1874 में दादाभाई  बड़ौदा के राजा के प्रधानमंत्री बने थे। 

2 .daada bhaee naurojee ka janm kab hua tha ?

दादा भाई नौरोजी का जन्म 4 September 1825 के दिन हुआ था। 

3 .daada bhaee naurojee kee mrtyu kab huee thee ?

दादा भाई नौरोजी की मृत्यु 30 जून 1917 के दिन हुई थी

4 .daada bhaee naurojee ne sarvapratham raashtreey aay ka anumaan kab lagaaya ?

दादा भाई नौरोजी ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय आय का अनुमान 1892 में लगाया था। 

5 .daada bhaee naurojee ne kis raajaneetik sanstha kee sthaapana kee ?

दादा भाई नौरोजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनीतिक संस्था की स्थापना की थी। 

6 .daada bhaee naurojee ne kis raajaneetik sanstha kee sthaapana kee ?

दादाभाई नौरोजी की प्रसिद्धि का मुख्य कारण ब्रिटिश और ब्रिटेन दोनों के द्वारा सम्मानित किया गया था।

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Conclusion –

आपको मेरा यह आर्टिकल Dadabhai Naoroji Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह पसंद आया होगा । इस लेख के जरिये  हमने dadabhai naoroji quotes और dadabhai naoroji achievements से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है। अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Biography of Khudiram bose In Hindi - Thebiohindi

Khudiram bose Biography In Hindi – खुदीराम बोस बायोग्राफी इन हिंदी

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Khudiram bose Biography In Hindi,में भारत के स्वातन्त्र संग्राम के बहुत अच्छे क्रांतिवीर खुदीराम बोस का जीवन परिचय देने वाले है। 

क्रांतिकारियों की सूची में एक नाम खुदीराम बोस का है। खुदीराम बोस एक भारतीय युवा क्रन्तिकारी थे। उनकी  शहादत ने सम्पूर्ण देश में क्रांति की लहर पैदा थी। आज हम khudiram bose and prafulla chaki,khudiram bose revolutionary और khudiram bose birth place की माहिती बताने वाले है। देश की आजादी के लिए उन्हें फांसी हासिल दी गयी थी। तब khudiram bose age 19 साल की थी । 

इस वीर पुरुष की शहादत से सम्पूर्ण देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी। इनके वीरता को अमर करने के लिए गीत लिखे गए और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। khudiram bose punyatithi 11 अगस्त है। शहीदों के बलिदान को याद न रखने वाली कौम नष्ट हो जाती है। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए लाखों क्रांतिकारियों ने शहादत दी, अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। 

Khudiram bose Biography In Hindi –

 नाम

 खुदीराम राम बोस

khudiram bose birthday

 3 सितम्बर 1889

 पिता

 त्रैलोक्य नाथ

 माता

 लक्ष्मीप्रिय देवी

 मुत्यु ( फाँसी )

 11 अगस्त सन 1908

खुदीराम बोस का जन्म और प्रारंभिक जीवन –

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। बालक खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत जल्दी ही उतर गया था इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। उनके मन में देशभक्ति की भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था।

1902 और 1903 के दौरान अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता ने मेदिनीपुर में कई जन सभाएं की और क्रांतिकारी समूहों के साथ भी गोपनीय बैठ कें आयोजित की। खुदीराम भी अपने शहर के उस युवा वर्ग में शामिल थे। जो अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन में शामिल होना चाहता था। खुदीराम अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ होने वाले जलसे-जलूसों में शामिल होते के नारे लगाते थे। उनके मन में देश प्रेम इतना कूट-कूट कर भरा था। उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और देश की आजादी में मर-मिटने के लिए जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े।

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महान क्रांतिवीर खुदीराम बोस – Khudiram bose Biography

‘आओ झुक कर सलाम करें उनको, जिनके हिस्से में ये मुकाम आता है, खुशनसीब होता है वो खून जो देश के काम आता है’। ये पंक्तियाँ अक्सर उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए गुनगुनायी जाती रही हैं। जिन्होंने खुद को देश के लिए कुर्बान कर दिया। जंग-ए-आजादी की लड़ाई में कूदने वाले आजादी के मतवालों ने देश को अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने में जो भूमिका निभाई है उसे भुलाया नहीं जा सकता।

देश की आन-बान और शान के लिए हंसते-हंसते अपने प्राण की बाजी लगाने वाले अमर शहीदों की कुर्बानियों के कारण ही हम आजादी की सांस ले रहे हैं। कितने सपूतों ने हंसते हंसते मौत को गले लगा लिया। इतिहास के पन्नों में भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों के बलिदान की शौर्यगाथाएं भरी पड़ी हैं।

ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महज 18 साल की छोटी-सी उम्र में फांसी का फंदा चूम लिया था। देश की आजादी के लिए 18 साल की उम्र में फांसी के फंदे पर चढ़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी खुदीराम बोस की 11 अगस्त को पुण्यतिथि है। भारत के स्वातंत्र्य संग्राम के इतिहास में खुदीराम बोस का नाम अमिट है।

देश की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहूति देने वाले अमर शहीद खुदीराम बोस में वतन के लिए मर मिटने का जज्बा कुछ ऐसा था जो भावी पीढ़ी को सदैव देशहित के लिए त्याग, सेवा और कुर्बानी की प्रेरणा देता रहेगा।

खुदीराम बोस का नाम कैसे पड़ा –

उस समय में देश में नवजात शिशु मृत्युदर काफी काफी अधिक थी. यही वजह थी कि उस समय लोग बच्चे के जीवन की कामना में कई तरह के टोटके अपनाया करते थे। उन दिनों के रिवाज के हिसाब से नवजात शिशु का जन्म होने के बाद उसकी सलामती के लिए कोई उसे खरीद लेता था। कहा जाता है। लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैल्योकनाथ बसु के घर जब पुत्र का जन्म हुआ तो उनकी बड़ी बेटी ने तीन मुट्ठी खुदी (चावल) देकर उसे खरीद लिया , जिसके कारण उस बालक का नाम खुदीराम पड़ा था। 

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खुदीराम बोस का लालन -पालन उनकी बहनने किया था – 

आजादी के परवाने खुदीराम बोस उनके पिता त्रैलोक्य नाथ और माता लक्ष्मीप्रिय देवि का खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत जल्दी ही उतर गया था। इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। 9वीं की पढ़ाई के बाद बोस पूरी तरह क्रांतिकारी बन गए थे।

खुदीराम बोस का क्रान्तिकारी जीवन –

Biography of Khudiram bose – बीसवीं शदी के प्रारंभ में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रगति को देख अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन की चाल चली जिसका घोर विरोध हुआ। इसी दौरान सन् 1905 ई. में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने पुलिस स्टेशनों के पास बम रखा और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया।

वह रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और खुदीराम बोस का नारा ‘वंदेमातरम’ के पर्चे वितरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1906 में पुलिस ने बोस को दो बार पकड़ा – 28 फरवरी, सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए बोस पकडे गए पर पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे। इस मामले में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। और उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये।

दूसरी बार पुलिस ने उन्हें 16 मई को गिरफ्तार किया पर कम आयु होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।6 दिसंबर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायणगढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर साफ़-साफ़ बच निकला। वर्ष 1908 में उन्होंने वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर बम से हमला किया लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और वे बच गए।

खुदीराम बोस बंग-भंग आंदोलन – Khudiram bose Biography

खुदीराम बोस सक्रिय रूप से वर्ष 1905 में हुए बंगाल विभाजन (बंग-भंग) के बाद स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे, तब खुदीराम की आयु मात्र 16 वर्ष थी थी। स्वतंत्रता सेनानी सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। हालांकि, अपने स्कूली दिनों से ही वे राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। 

वे जलसे-जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे. देश की आजादी के लिए उनके मन में ऐसा जुनून हुआ कि नौवीं कक्षा के बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और जंग-ए-आजादी में कूद पड़े. बाद में वह रेवोल्यूशन पार्टी के सदस्य बने थे। 

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खुदीराम बोस द्वारा किंग्सफोर्ड हत्या की योजना –

 बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग सडकों पर उतरे और उनमें से अनेकों भारतीयों को उस समय कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। वह क्रान्तिकारियों को ख़ास तौर पर बहुत दण्डित करता था। अंग्रेजी हुकुमत ने किंग्जफोर्ड के कार्य से खुश होकर उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया।

क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए चयन हुआ खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी का। मुजफ्फरपुर पहुँचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बँगले और कार्यालय की निगरानी की।30 अप्रैल 1908 को चाकी और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे।

खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्गी पर बम फेंका पर उस बग्गी में किंग्स्फोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपियन महिलायें थीं जिनकी मौत हो गयी। अफरा-तफरी के बीच दोनों वहां से नंगे पाँव भागे। भाग-भाग कर थक गए खुदीराम वैनी रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां एक चाय वाले से पानी माँगा पर वहां मौजूद पुलिस वालों को उन पर शक हो गया और बहुत मशक्कत के बाद दोनों ने खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया। 

खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी –

1 मई को उन्हें स्टेशन से मुजफ्फरपुर लाया गया। उधर प्रफ्फुल चाकी भी भाग-भाग कर भूख -प्यास से तड़प रहे थे। 1 मई को ही त्रिगुनाचरण नामक ब्रिटिश सरकार में कार्यरत एक आदमी ने उनकी मदद की और रात को ट्रेन में बैठाया था। पर रेल यात्रा के दौरान ब्रिटिश पुलिस में कार्यरत एक सब-इंस्पेक्टर को शक हो गया और उसने मुजफ्फरपुर पुलिस को इस बात की जानकारी दे दी।

जब चाकी हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामाघाट स्टेशन पर उतरे तब पुलिस पहले से ही वहां मौजूद थी। अंग्रेजों के हाथों मरने के बजाए चाकी ने खुद को गोली मार ली और शहीद हो गए।

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खुदीराम ध्वारा भूलवश किसी और की हत्या कैसे हुई थी –

Biography of Khudiram bose – 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. रात के साढ़े आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। कहा जाता है कि उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस तथा उनके साथी प्रफुल्ल चंद चाकी ने उसे किंग्सफर्ड की बग्घी समझकर उसपर बम फेंका था। 

जिससे उसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गयी। वे दोनों यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफर्ड मारा गया है। दोनों भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे। लेकिन बोस पर पुलिस को शक हो गया और पूसा रोड रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया. अपने को घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने खुद को गोली मार ली, पर खुदीराम पकड़े गये थे। 

खुदीराम बोस की गिरफ़्तारी और फांसी की सजा –

Biography of Khudiram bose  – खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया और फिर फांसी की सजा सुनाई गयी। 11 अगस्त सन 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल और कुछ महीने थी। खुदीराम बोस इतने निडर थे कि हाथ में गीता लेकर ख़ुशी-ख़ुशी फांसी चढ़ गए। उनकी निडरता, वीरता और शहादत ने उनको इतना लोकप्रिय कर दिया

बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे और बंगाल के राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के लिये वह और अनुकरणीय हो गए। उनकी फांसी के बाद विध्यार्थीयो तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया और कई दिन तक स्कूल-कालेज बन्द रहे। इन दिनों नौजवानों में एक ऐसी धोती का प्रचलन हो चला था जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।

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Khudiram bose Biography Video –

Khudiram bose Biography Facts –

  • खुदीराम बोस स्कूल के दिनों से ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नारे लगाते थे। उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी और पूरी तरह स्वाधीनता आंदोलन में उतर गए।
  • खुदीराम बोस जयंती 3 दिसंबर,1889 के दिन है।
  • स्वतंत्र सेनानी खुदीराम बोस बलिदान दिवस11 अगस्त 1908 है। 
  • खुदीराम बोस की जीवनी आपको बतादे की 18 साल 8 महीने और 8 दिन की उम्र में 11 अगस्त 1908 को बिहार के मुजफ्फरपुर में फांसी दे दी गयी थी। 

Khudiram bose Biography Questions –

1 .khudiram bose death reason kya tha ?

एक कार में खुदीराम बोस ने किया बम धमाका उनके फांसी का कारन बना था। 

2 .khudiram bose and subhash chandra bose relation kya hae ?

खुदीराम बोस क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बोस का नेतृत्व स्वीकार करके स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े थे। 

3 .khudiram bose kaun the ?

3 दिसंबर, 1889 को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम बोस एक क्रन्तिकारी थे। 

4 .khudiram bose ka janm kahan hua tha ?

खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। 

5 .khudeeraam bos ko phaansee kab huee ?

11 August 1908 के दिन 18 साल कीउम्र में खुदीराम बोस को फासी दी गयी थी। 

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Conclusion –

आपको मेरा आर्टिकल खुदीराम बोस बायोग्राफी इन हिंदी बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। लेख के जरिये  हमने khudiram bose quotes और khudiram bose fasi से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है। अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

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Swami Dayanand Saraswati Biography - स्वामी दयानंद सरस्वती जीवनी

Swami Dayanand Saraswati Biography – स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। आज हम Swami Dayanand Saraswati Biography ,में भारत के महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय बताने वाले है। 

स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अत्यंत श्रद्धा के साथ लिया जाता है। जिस समय भारत में चारो और पाखंड और मूर्ति -पूजा की बोल बोला थी , स्वामी  ने इसके खिलाफ आवाज उठाई और उन्होंने भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए बहुत प्रयास लिए है। आज हम swami dayanand saraswati quotes और swami dayanand saraswati books के साथ ,swami dayanand saraswati was born in की माहिती देने वाले है। 

1876 में हरिद्वार के कुंभ मेले में पाखंडखडिनी पताका फहराकर पोंगा -पथियो को चुनौती दी। उन्होंने फिर से वेद की महिमा की स्थापना की। उन्होंने एक ऐसे समाजकी स्थापना जिसके विचार सुधारवादी और प्रगतिशील थे जिसे उन्होंने आर्य समाज के नाम से पुकारा था | स्वामी दयानंद जी का कहना था। कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे। तो चलिए 

Swami Dayanand Saraswati Biography In Hindi –

 नाम

 स्वामी दयानंद सरस्वती
 

 जन्म

 12 फरवरी 1824

 जन्म

 स्थान:गुजरात के भुत पूर्व मोरवी राज्य के (टंकारा गांव )

 पिता

 अम्बाशंकर

 माता

 अमृतबाई

स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी –

दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार  के संबंध में गांधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया था। कहा जाता है। 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए।  सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा। स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया था। यह बात उनकी दया भावना और स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार का जीता-जागता प्रमाण था। 

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स्वामी दयानंद सरस्वती जन्म – 

स्वामी सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टंकारा गांव में 12 फरवरी 1824 में हुवा था। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण swami dayanand saraswati real name मूलशंकर नाम रखा गया था। उनके पिता के नाम अम्बाशंकर था।  वे बड़े मेघावी होनर थे। उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता था। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

दयानंद सरस्वती की बचपन की पढाई – 

 स्वामी दयानंद सरस्वती बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने दो वर्ष की आयु में ही गायत्री मंत्र का सुद्ध उचारण कर लिया था। घर में पूजा पाठ और शिव भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान शिव के प्रति बचपन से ही उनके मन में श्रद्धा उत्पन हो गयी थी।  बाल्यकाल में वह शंकर भगवन के परम भक्त थे। उनके पिता ने थोड़े बड़े होने के बाद घर पर ही उन्होंने शिक्षा देने लगे उसके बाद स्वामी दयानद की संस्कृत पढ़ने कीइच्छा हुई। 4 वर्ष की उम्र  में ही उन्होंने सामवेद,और यर्जुवेद का अध्ययन कर लिया था।

बृद्धाचर्यकाल में ही वो भारतोद्वार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े मथुरा के स्वामी उनके गुरु थे।  शिक्षा प्राप्त कर के गुरु की ईशा से धर्म सुधार हेतु पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई थी। 14 वर्ष की आयु में ही मूर्ति पूजा के प्रति इनके मन में विद्रोह हुआ और 21 वर्ष की आयु में घर से  निकल पड़े घर त्यागने के होने के बाद 18 वर्ष तक उन्होंने सन्यासी जीवन बिताया था। उन्होंने बहुत ही स्थान में ब्रमण हुए कतीपय आचार्यो में शिक्षा प्राप्त की थी |

दयानंदने  की ज्ञान की खोज –

 फाल्गुन कृष्ण संवत् 1895 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्हें नया बोध हुआ। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनि व्याकरण ,पतंजल योगसूत्र तथा वेद -वेदांत का अध्ययन कराया था। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो।

वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी -मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।

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दयानंदने ज्ञान प्राप्ति के बाद क्या किया –

महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए।  कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिन्दी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था।  मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।

सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना –

महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपाद संवत् 1932 (सन् 1875 ) को गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

Swami Dayanand Saraswati Teachings –

वेदो को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है।  इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारम्भ किया था। और जहां-जहां वे गये प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान उनसे हार मानते गये।संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचण्ड तार्किक थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अपनें चेलों के संग मिल कर उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया।

दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे। लेकिन तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिन्दुओं का था। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी। उसका कोई जवाब नहीं था। मगर सत्य यह था कि पौराणिक ग्रंथ भी वेद आदि शास्त्र में आते हैं। स्वामी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खण्डन करते थे। सर्वप्रथम उन्होंने उसी हिंदु धर्म में फैली बुराइयों व पाखण्डों का खण्डन किया, जिस हिंदु धर्म में उनका जन्म हुआ था। 

तत्पश्चात अन्य मत-पंथ व सम्प्रदायों में फैली बुराइयों का विरोध किया। इससे स्पष्ट होता है वे न तो किसी के पक्षधर थे न ही किसी के विरोधी नहीं थे। वे केवल सत्य के पक्षधर थे, समाज सुधारक थे व सत्य को बताने वाले थे। स्वामी जी सभी धर्मों में फैली बुराइयों का विरोध किया चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो। अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में स्वामीजी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। 

स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा दर्शन –

वह भी अपनी बुद्धि के हिसाब से है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, Swami Dayanand Saraswati का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था। लेकिन आर्य समाज ने आर्याव्रत (भारत) के साधारण जनमानस को अपनी ओर आकर्षित किया। 1872 में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया था । ब्रह्मो समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ। लेकिन  ईसाइयत से प्रभावित ब्रह्मो समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सका था। 

 कलकत्ते में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर आर्यभाषा (हिन्दी) में बोलना आरम्भ कर दें तो देश का असीम उपकार हो सकता है। ऋषि दयानन्द को स्पष्ट रूप से हिंदी नहीं आती थी। वे संस्कृत में पढ़ते-लिखते अवं बोलते थे और जन्मभूमि की भाषा गुजरती थी इसलिए उन्हें हिंदी अथार्त आर्यभाषा का विशेष परिज्ञान न था। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा आर्यभाषा (हिन्दी) हो गयी और आर्यभाषी (हिन्दी) प्रान्तों में उन्हे अगणित अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ते से स्वामी जी मुम्बई पधारे और वहीं 10 अप्रैल 1875 को उन्होने ‘आर्य समाज’ की स्थापना करदी। 

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आर्यसमाज की शाखाएं – 

मुम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया। यह समाज तो ब्रह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। स्वामी  से इस समाज के लोग भी एकमत हुए । मुम्बई से लौट कर स्वामी दिल्ली आए। उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी।  दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। दिल्ही से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।

Swami Dayanand Saraswati Social Reformer  –

महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कु-रीतियों तथा अंधविश्वासो और रूढियों-बुराइयों अवं पाखण्डों का खण्डन अवं विरोध किया, जिससे वे ‘संन्यासी योद्धा’ कहलाए। उन्होंने जन्म जाती का विरोध किया तथा कर्म के आधार पर वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितों ध्वारा के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया।

उन्होंने बालविवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृस्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे।

उन्होंने दिल्ली दरबार के समय १८७८ में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश ,संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया।

स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा में योगदान  –

उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही। वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों का आर्यावर्त में राज्य होने का सबसे बड़ा कारण आलस्य, प्रमाद, आपस का वैमनस्य (आपस की फूट), मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना। 

विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावाद, कुलक्षण, वेद-विद्या का मिथ्या अर्थ करना आदि कुकर्म हैं। जबतक आपस में भाई-भाई लड़ते हैं। तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया था   

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स्वामीजी स्वराज के प्रथम संदेश वाहक थे –

Swami Dayanand Saraswati – स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यत  केवल आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को है। वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन आर्यव्रत (भारत) में यह कहने का साहस सम्भवत  सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि “आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है”। हमारे प्रथम स्वतंत्रता समर ,सन 1857 की क्रांन्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी। 

वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। अपने प्रवचनों में श्रोताओं को राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। 1855 में हरिद्वार में जब कुम्भ मेला लगा था। तो उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी। रास्ते में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन किए तथा देशवासियों की नब्ज टटोली। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं। और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।

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स्वामीजी ने अंग्रेजो को तीखा जवाब कैसे दिया –

 कुछ औपचारिक बातों के उपरान्त लॉर्ड नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी  “अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। क्या उसमें आप अंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेंगे। गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब कुछ समझ गए। उन्हें अंग्रेजी सरकार की बुद्धि पर तरस भी आया था। 

  गवर्नर जनरल को उत्तर दिया था। मैं  किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है।  देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं।  कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।

गवर्नर को स्वामी से इस प्रकार के तीखे उत्तर की आशा नहीं थी। मुलाकात तत्काल समाप्त कर दी गई और स्वामी जी  लौट आए। इसके अलावा सरकार के गुप्तचर की स्वामी जी पर तथा उनकी संस्था आर्य-समाज पर गहरी दृष्टि रही। उनकी  प्रत्येक गतिविधि और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का रिकार्ड रखा। आम जनता पर उनके प्रभाव से सरकार को अहसास होने लगा | यह बागी फकीर और आर्यसमाज किसी भी दिन सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं। इसलिए स्वामी जी को समाप्त करने के लिए षड्यन्त्र रचे जाने लगे।

स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु –

 स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है। कि उसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। स्वामी जी की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर वहां उनके प्रवचन सुनते थे। 

दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई।

Swami Dayanand Saraswati को मारने का षडयंत्र रचा –

नन्हीं नामक वेश्या ने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी।उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा।

उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया।

अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।

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Swami Dayanand Saraswati की कुछ अनोखी बाते –

  • धार्मिक और सामाजिक सुधार के अलावा भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए भी काम किया था।
  • उन्होंने एक बार लोगों में स्वेदशी भावना को भरते हुए कहा था ‘ यह समझ लो कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं, उतना अन्य देश के मनुष्यों का भी नहीं करते.’
  • वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन में स्वराज्य की मांग की थी। 
  • 30 अक्टूबर 1883 के दिन उनकी मौत हो गई  उनकी मौत जहर से हुई थी।
  • नन्हीं नाम की वेश्या ने उनके दूध में पिसा हुआ कांच दे दिया  .अस्पताल में भर्ती हुए और चिकित्सक ने अंग्रेजी अफसरों से मिलकर उन्हें जहर दे दिया था। 

Swami Dayanand Saraswati Biography Video –

स्वामी दयानंद सरस्वती के रोचक तथ्य

  • दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था। 
  • चौदह साल की उम्र में ही उन्होंने संस्कृत व्याकरण, सामवेद, यजुर्वेद का अध्ययन कर लिया था। 
  • 21 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और ज्ञान की प्राप्ति में निकल पड़े थे। 
  • दयानंद ने हिंदू धर्म में हो रहे मूर्ति पूजा, बलि प्रथा, बाल विवाह का विरोध किया और 7 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की थी। 
  • उन्होंने सभी धर्मों का आलोचनात्मक अध्ययन करते हुए सत्यार्थ प्रकाश में धर्म संबंधित कई प्रश्न उठाए थे। 
  • स्वामी दयानंद ने ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा दिया था। 
  • स्वामी दयानंद सरस्वती पुस्तके 60 से भी अधिक लिखी, जिसमें 16 खंडों वाला ‘वेदांग प्रकाश’ शामिल है।  उन्होंने पाणिनि के व्याकरण ‘अष्टाध्याय’ पर भी अपने विचार लिखे थे लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया था। 

Swami Dayanand Saraswati Questions –

1 .swami dayanand saraswati jayanti kab manai jati hae ?

12 फ़रवरी के दिन स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती मनाई जाती है। 

2 .swami dayanand saraswati mother name kya tha ?

स्वामी दयानंद सरस्वती माता का नाम अमृतबाई था। 

3 .svaamee dayaanand sarasvatee kee mrtyu kab huee ?

स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु 30 October 1883 केव दिन हुई थी। 

4 .dayaanand sarasvatee kee mrtyu kaise huee ?

दयानंद सरस्वती की मृत्यु वेश्या नन्हींजान ने दिए हुए जहर से हुई थी। 

5 .dayaanand sarasvatee ka janm kahaan hua ?

दयानंद सरस्वती का जन्म टंकारा में हुआ था। 

6 .dayaanand sarasvatee ka janm kab hua ?

दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फ़रवरी 1824 के दिन हुआ था। 

7 .svaamee dayaanand sarasvatee ke pita ka naam kya tha ?

स्वामी दयानंद सरस्वती के पिता का नाम अम्बाशंकर था। 

इसके बारेमे भी जानिए :- महाराणा प्रताप की जीवनी

Conclusion –

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Chandrashekhar Azad Biography In Hindi - Thebiohindi

Chandrashekhar Azad Biography In Hindi – चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Chandrashekhar Azad Biography in Hindi,में एक साहसी स्वतंत्रता सेनानी और निडर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय हिंदी में देने वाले है। 

क्रांतिकारी चंद्रशेखर का जन्म 23 जुलाई 1906 को भाबरा, मध्यप्रदेश में हुआ था। काकोरी ट्रेन डकैती, विधानसभा में बम की घटना और लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए कीगयी थी। आज हम chandrashekhar azad quotes ,chandrashekhar azad jayanti और चंद्रशेखर आजाद का इतिहास बताने वाले है। वह लाहौर में सॉन्डर्स की हत्या जैसी घटनाओं में शामिल क्रांतिकारी का चेहरा थे। 

पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के पुत्र, चंद्रशेखर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भाबरा में प्राप्त की और उच्च शिक्षा के लिए। उन्हें उत्तरप्रदेश के वाराणसी की संस्कृत पाठशाला में भेजा गया था। आज chandrashekhar azad slogan in hindi में जानकारी के लिए आपको हमारा यह आर्टिकल पूरी तरह से पढ़ना पड़ेगा। वर्तमान समय में चंद्रशेखर आजाद के पर निबंध भी लिखे जाते है।  तो चलिए चंद्रशेखर आजाद बलिदान दिवस की बताना शुरू करते है। 

Chandrashekhar Azad Biography in Hindi –

जन्म  23 जुलाई 1906
 जन्म स्थान भावरा ,मध्यप्रदेश
 पिता  पंडित सीताराम तिवारी
 माता  जगरानी देवी
 प्रसिद्ध नाम  आजाद
 मृत्यु  27 फरबरी 1931

चंद्र शेखर आजाद की जीवनी – 

एक बहुत ही कम उम्र में वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गये। वे महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। जब क्रांतिकारी गतिविधियां लिप्त होने के लिए ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें पकड़ा, अपनी पहली सजा के रूप में उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुनाई गयी। उस समय चंद्रशेखर की आयु महज 15 साल थी। राजनैतिक कैरियर क्रन्तिकारी नेता ,स्वतंत्राता सेनानी ,राजनैतिक कार्यकर्ता उपलब्धिया उन्होंने किसी भी तरह से पूर्ण स्वतंत्रता के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया था। 

इस घटना के बाद चंद्रशेखर ने आज़ाद की पदवी धारण कर ली और चंद्रशेखर आजाद के रूप में पहचाने जाने लगे। चौरी-चौरा की घटना के कारण असहयोग आंदोलन के महात्मा गांधी के निलंबन से मोहभंग, वह एक गरमदलीय में बदल गये। चंद्रशेखर आजाद समाजवाद में विश्वास करते थे। अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन किया।

इसके बारेमे भी जानिए :- शाहजहाँ का जीवन परिचय हिंदी में

चंद्र शेखर आजाद ने पायंट्स सांण्डर्स को मारा –

भगत सिंह सहित कई अन्य क्रांतिकारियों के लिए एक परामर्शदाता थे।  किसी भी तरह से संपूर्ण आज़ादी चाहते थे। लाल लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पायंट्स सांण्डर्स को मार डाला। जीवित रहते हुए वे अंग्रेज़ सरकार के लिए आतंक का पर्याय रहे। साथियों में से एक के धोखा देने के कारण, 27 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क,इलाहाबाद में ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें घेर लिया था।

उन्होंने बहादुरी से मुकाबला किया लेकिन कोई दूसरा रास्ता न मिलने पर उन्होंने खुद को गोली मार ली और एक ‘आज़ाद’ आदमी के तौर पर मरने के अपने संकल्प को पूरा किया। वे अभी भी करोड़ो भारतीयों के नायक हैं और शहीद भगत सिंह, द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह और 23 मार्च 1931 जैसे फिल्मों में उनके जीवन पर आधारित चरित्र है।

आजाद को बचपन से निशानेबाजी का शौक था –

chandrashekhar azad को प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही दी गई। बचपन से ही चंद्रशेखर की पढ़ाई में कोई खास रूचि नहीं थी। इसलिए चंद्रशेखर को पढ़ाने इनके पिता के करीबी दोस्त मनोहर लाल त्रिवेदी जी आते थे। जो कि चंद्र शेखर और उनके भाई सुखदेव को भी पढ़ाते थे।

चंद्रशेखर आजद की शिक्षा – Chandrashekhar Azad Education

chandrasekhar azad  को प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही दी गई। बचपन से ही चंद्रशेखर की पढ़ाई में कोई खास रूचि नहीं थी। इसलिए चंद्रशेखर को पढ़ाने इनके पिता के करीबी दोस्त मनोहर लाल त्रिवेदी जी आते थे। जो कि चंद्र शेखर और उनके भाई सुखदेव को भी पढ़ाते थे।

आजाद को संस्कृत का विद्धवान बनाना चाहती थी माता गजरानी –

chandrashekhar azad की माता का नाम जगरानी देवी था जो कि बचपन से ही अपने बेटे चंद्रशेखर आजाद को संस्कृत में निपुण बनाना चाहती थी वे चाहती थी। कि उनका बेटा संस्कृत का विद्दान बने। इसीलिए चंद्रशेखर आजाद को संस्कृत सीखने लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेजा गया।

गांधीजीके असहकारक आंदोलन में चंद्रशेखर आजाद का हिस्सा –

महात्मा गाँधी ने दिसंबर 1921 में असहयोग आन्दोलन की घोषणा की। उस समय चंद्र शेखर आजाद महज 15 साल के थे लेकिन तभी से इस वीर सपूत के अंदर देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी यही वजह है कि वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन का हिस्सा बने और परिणामस्वरूप उन्हें कैद कर लिया गया।

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चंद्रशेखर आजाद क्रन्तिकारी जीवन – Chandrashekhar Azad Revolutionary Life

chandrasekhar azad – 1922 में महात्मा गांधी ने चंद्रशेखर आजाद को असहयोग आंदोलन से निकाल दिया जिससे आजाद की भावना को काफी ठेस पहुंचा और आजाद ने गुलाम भारत को आजाद करने के प्रण लिया। इसके बाद एक युवा क्रांतिकारी प्रनवेश चटर्जी ने उन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से मिलवाया। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन यह एक क्रांतिकारी संस्था थी। वहीं आजाद इस संस्था और खास कर बिस्मिल की समान स्वतंत्रता और बिना भेदभाव के सभी को एक अधिकारी देने जैसे विचारों से काफी प्रभावित हुए। 

जब आजाद ने एक कंदील पर अपना हाथ रखा और तबतक नही हटाया जबतक की उनकी त्वचा जल ना जाये तब आजाद को देखकर बिस्मिल काफी प्रभावित हुए। जिसके बाद बिस्मिल आजाद को अपनी संस्था का सदस्य बना दिया था। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रीय सदस्य बन गए थे और बाद में वे अपने एसोसिएशन के लिये चंदा एकत्रित करने में जुट गए। शुरुआत में ये संस्था गांव की गरीब जनता का पैसा लूटती थी लेकिन बाद में इस दल को समझ में आ गया कि गरीब जनता का पैसा लूटकर उन्हें कभी अपने पक्ष में नहीं कर सकते।

इसलिए चंद्रशेखर के नेतृत्व में इस संस्था ने अंग्रेजी सरकार की तिजोंरियों को लूटकर, डकैती कर अपनी संस्था के लिए चंदा इकट्ठा करने का फैसला लिया। इसके बाद इस संस्था ने अपने उद्देश्यों से जनता को अवगत करवाने के लिए अपना मशहूर पैम्फलेट ”द रिवाल्यूशनरी” प्रकाशित किया क्योंकि वे एक नए भारत का निर्माण करना चाहते थे जो कि सामाजिक और देशप्रेम की भावना से प्रेरित हो इसके बाद उन्होनें काकोरी कांड को अंजाम दिया।

काकोरी कांड –

1925 में हुए काकोरी कांड इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में वर्णन किया गया है।काकोरी ट्रेन की लूट में चन्द्र शेखर आजाद का नाम शामिल हैं। इसके साथ ही इस कांड में भारत के महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई थी। आपको बता दें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के 10 सदस्यों ने काकोरी ट्रेन में लूटपाट की वारदात को अंजाम दिया था। इसके साथ ही अंग्रेजों का खजाना लूटकर उनके सामने एक चुनौती पेश की थी।

वहीं इस घटना के दल के कई सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था तो कई को फांसी की सजा दी गई थी। इस तरह से ये दल बिखर गया था। इसके बाद चंद्र शेखर आजाद के सामने दल को फिर से खड़ा करने की चुनौती सामने आ गई। ओजस्वी, विद्रोही और सख्त स्वभाव की वजह से वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आ पाए और वे अंग्रेजों को चकमा देकर दिल्ली चले गए। दिल्ली में क्रांतिकारियों की एक सभा का आयोजन किया गया। इस क्रांतिकारियों की सभा में भारत के स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह भी शामिल हुए।

इस दौरान नए नाम से नए दल का गठन किया गया और क्रांति की लड़ाई को आगे बढ़ाए जाने का भी निर्णय लिया गया। नए दल का नाम “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” रखा गया साथ ही चंद्र शेखर आजाद को इस नए दल का कमांडर इन चीफ भी बनाया गया वहीं इस नए दल का प्रेरक वाक्य ये बनाया गया कि – हमारी लड़ाई आखरी फैसला होनेतक जारी रहेगी और वह फैसला है जित या मोत का ?

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लाला लजपतराय की मौत का बदला – 

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दल ने फिर क्रांतिकारी और अपराधिक गतिविधिओं को अंजाम दिया जिससे एक बार फिर अंग्रेज चंद्र शेखर आजाद के दल के पीछे पड़ गए। इसके साथ ही चंद्र शेखर आजाद ने लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने का भी फैसला किया और अपने साथियों के साथ मिलकर 1928 में सांडर्स की हत्या की वारदात को अंजाम दिया।

भारतीय क्रांतिकारी चंद्र शेखर आजाद का मानना था कि, संगर्ष की राह में हिंसा कोई बड़ी बात नहीं -आजाद जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड में हजारों मासूमों को बेगुनाहों पर गोलियों से दागा गया इस घटना से चंद्र शेखर आजाद की भावना को काफी ठेस पहुंची थी और बाद में उन्होनें हिंसा के मार्ग को ही अपना लिया।

असेम्बली में बम फोड़ने की घटना –

chandrasekhar azad – भारत के दूसरे स्वतंत्रता सेनानी आयरिश क्रांति के संपर्क से काफी प्रभावित थे इसी को लेकर उन्होनें असेम्बली में बम फोड़ने का फैसला लिया। इस फैसले में चंद्रशेखर आजाद ने भगतसिंह का निष्ठा के साथ सहयोग किया जिसके बाद अंग्रेज सरकार इन क्रांतिकारियों को पकड़ने में हाथ धोकर इनके पीछे पड़ गई और ये पुर्नगठित दल फिर से बिखर गया। इस बार दल के सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था जिसमें भगत सिंह भी शामिल थे जिन्हें बचाने की चंद्र शेखर आजाद ने पूरी कोशिश की लेकिन अंग्रेजों के सैन्य बल के सामने वे उन्हें नहीं छुड़ा सके।हालांकि चंद्र शेखर आजाद हमेशा की तरह इस बार भी ब्रिटिश सरकार को चकमा देकर भागने में कामयाब रहे।

झांसी में क्रन्तिकारी गतिविधिया – 

महान देशभक्त और क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने झांसी को अपनी संस्था “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” का थोड़े दिनों के लिए केन्द्र बनाया। इसके अलावा वे झांसी से 15 किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में अपने साथियों के साथ मिलकर तींरदाजी करते थे और एक अच्छे निशानेबाज बनने की कोशिश में लगे रहते थे। इसके अलावा चंद्रशेखर आजाद अपने गुट के सदस्यों को ट्रेनिंग देते थे इसके साथ ही चंद्रशेखर धार्मिक प्रवृत्ति के भी थी।

उन्होनें सतर नदी के किनारे हनुमान मंदिर भी बनवाया था जो कि आज लाखों हिन्दू लोगों की आस्था का केन्द्र है। आपको बता दें कि चंद्रशेखर आजाद वेश बदलने में काफी शातिर थे इसलिए वे झांसी में पंडित हरिशंकर बह्राचारी के नाम से काफी दिनों से रह रहे थे इसके साथ ही वे धिमारपुरा के बच्चों को भी पढ़ाते थे। इस वजह से वे लोगों के बीच इसी नाम से मशहूर हो गए। वहीं बाद में मध्यप्रदेश सरकार ने धिमारपुरा गांव का नाम बदलकर चंद्र शेखर आजाद के नाम पर आजादपुरा रख दिया था।

झांसी में रहते हुए chandrasekhar azad ने शहर के सदर बाजार में बुंदेलखंड मोटर गेराज से गाड़ी चलानी भी सीख ली थी। ये उस समय की बात है जब सदाशिवराव मलकापुरकर, विश्वनाथ वैशम्पायन और भगवान दास माहौर उनके काफी करीबी माने जाते थे और वे आजाद के क्रांतिकारी दल का भी हिस्सा बन गए थे। इसके बाद कांग्रेस नेता रघुनाथ विनायक धुलेकर और सीताराम भास्कर भागवत भी आजाद के काफी करीब दोस्तों में गिने जाने लगे। वहीं चंद्रशेखर आजाद कुछ समय तक रूद्र नारायण सिंह के घर नई बस्ती में भी रुके थे और झांसी में भागवत के घर पर भी रुके थे।

चंद्रशेखर आजाद की मौत – Chandrashekhar Azad Death

Chandrashekhar Azad – अंग्रेजों ने राजगुरू, भगत सिंह, और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई थी। वहीं चंद्र शेखर आजाद इस सजा को किसी तरह कम और उम्रकैद की सजा में बदलने की कोशिश कर रहे थे जिसके लिए वे अल्लाहाबाद पहुंचे थे। इसकी भनक पुलिस प्रशासन को लग गई फिर क्या थे अल्लाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने चंद्र शेखर आजाद को चारों तरफ से घेर लिया। आजाद को आत्मसमर्पण के लिए कहा लेकिन आजाद हमेशा की तरह इस बार भी अडिग रहे और बहादुरी से उन्होनें पुलिस वालों का सामना किया लेकिन इस गोलीबारी के बीच जब चंद्रशेखर के पास मात्र एक गोली बची थी।

इस बार आजाद ने पूरी स्थिति को भाप लिया था और वे खुद को पुलिस के हाथों नहीं मरना देना चाहते थे इसलिए उन्होनें खुद को गोली मार ली। chandrashekhar azad death date 27 February 1931 है। उस दिन भारत के वीर सपूत चंद्रशेखर आजाद अमर हो गए और उनकी अमरगाथा इतिहास के पन्नों पर छप गई इसके साथ ही इस क्रांतिकारी वीर की वीरगाथा भारतीय पाठ्यक्रमों में भी शामिल की गई है। Chandrashekhar Azad का अंतिम संस्कार अंग्रेज सरकार ने बिना किसी सूचना के कर दिया। वहीं जब लोगों को इस बात का पता चला तो वे सड़कों पर उतर आए और ब्रिटिश शासक के खिलाफ जमकर नारे लगाए इसके बाद लोगों ने उस पेड़ की पूजा करनी शुरु कर दी जहां इस भारतीय वीर सपूत ने अपनी आखिरी सांस ली थी।

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Chandrashekhar Azad Park –

इस तरह लोगों ने अपने महान क्रांतिकारी को अंतिम विदाई दी। वहीं भारत के आजाद होने के बाद जहां चंद्रशेखर आजाद ने अपनी आखिरी सांस ली थी उस पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क रखा गया। इसके साथ ही जिस पिस्तौल से चंद्रशेखर आजाद ने खुद को गोली मारी थी उसे इलाहाबाद के म्यूजियम में संजो कर रखा गया है। उनकी मृत्यु के बाद भारत में बहुत सी स्कूल, कॉलेज, रास्तो और सामाजिक संस्थाओ के नामो को भी उन्ही के नाम पर रखा गया था।

Chandrashekhar Azad Ka Jivan Parichay –

Chandrashekhar Azad Facts –

  • चंद्रशेखर आजाद का परिवार [मध्य प्रदेश] अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में बस गये थे। 
  • Chandrashekhar Tiwari चंद्रशेखर आजाद का पूरा नाम था। 
  • चंद्रशेखर आजाद का नारा था की “मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा”
  • चंद्रशेखर आजाद जयंती 23 जुलाई के दिन मनाई जाती है।
  • Sukhdev तिवारी चंद्रशेखर आजाद का भाई था।
  • चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी जवाहर लाल नेहरू ने करवाई थी।

चंद्रशेखर आजाद के प्रश्न –

1 .chandrashekhar aajaad ka janm kahaan hua tha ?

चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के भावरा में हुआ था। 

2 .chandrashekhar aajaad ka parivaar kaha hai ?

चंद्रशेखर आजाद का परिवार मध्यप्रदेश के भावरा में है। 

3 .chandrashekhar aajaad kee mrtyu kaise huee ?

चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु खुद को गोली मारने की वजह से हुई थी। 

4 .chandrashekhar aajaad kee mrtyu kab huee ?

चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु 27 February 1931 के दिन हुई थी। 

5 .chandrashekhar aajaad kee patnee ka naam kya tha ?

चंद्रशेखर आजाद की पत्नी का नाम नहीं था क्योकि उन्होंने शादी नहीं की हुई थी। 

6 .chandrashekhar aajaad kee punyatithi kab hai ?

चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि २३ जुलाई और २७ फ़रवरी है। 

7 .chandrashekhar aajaad ka janm kab hua tha ?

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 July 1906 के दिन हुआ था।

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Conclusion –

आपको मेरा आर्टिकल chandrashekhar azad hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा।  लेख के जरिये  हमने chandrashekhar azad ravan और chandrashekhar azad slogan से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है। अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

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आचार्य विनोबा भावे की जीवनी हिंदी में - Biography of Acharya Vinoba Bhave

Vinoba Bhave Biography In Hindi | आचार्य विनोबा भावे का जीवन परिचय

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Acharya Vinoba Bhave Biography In Hindi बताएँगे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य विनोबा भावे की जीवनी हिंदी में बताने वाले है। 

11 सितम्बर 1895 के दिन आचार्य विनोबा भावे  का जन्म हुआ। वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गाँधीवादी नेता थे। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यातमिक उत्तराधीकारी समझा जाता है। आज हम acharya vinoba bhave indidual satyagraha , acharya vinoba bhave kaun the और acharya vinoba bhave ashram की माहिती देने वाले है।  

संत विनोबा भावे ने जीवन के आखरी वर्ष पोनर ,महाराट्र के आश्रम में गुजारे। उन्होंने भूदान आंदोलन चलाया। इंदिरा गाँधी द्वारा घोषित आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने के कारण वे विवाद में थे। acharya vinoba bhave full name विनायक नरहरी भावे था। आचार्य विनोबा भावे की रचनाएँ ग्राम सेवा लेख विनोबा भावे द्वारा रचित है। एव पुरे भारत में बहुत ही प्रसिद्ध हुई है। विनोबा भावे का शिक्षा में योगदान बहुत बड़ा था। तो चलिए Biography of vinoba bhave (आचार्य विनोबा Biodata)बताते है। 

Acharya Vinoba Bhave Biography In Hindi –

 नाम   विनायक नरहरि भावे
 जन्म  11 सितम्बर ,1895
 पिता  नरहरि शम्भू
 माता  रुक्मणि देवी
 जन्म भूमि 

 गगोड़े, महाराष्ट्र

 कर्म भूमि   भारत
 मृत्यु  15 नवम्बर , 1982
 मृत्यु स्थान  वर्धा ,महाराट्र

आचार्य विनोबा भावे की जीवनी –

  • कर्म – क्षेत्र : स्वतंत्रता सेनानी ,विचारक ,समाज सुधारक
  • भाषा : मराठी ,संस्कृत ,हिंदी ,अरबी ,फ़ारसी ,गुजराती ,बंगाली ,अंग्रेजी ,फ्रेंच ,आदि
  • acharya vinoba bhave awards  : भारत रत्न ,प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार
  • योगदान : भूदान आंदोलन ध्वारा समाज में भूस्वामियों और भूमिहीनों के बिच
  • की गहरी खाई को पाटनेका एक अनूठा प्रयास किया। 
  • नागरिकता : भारतीय
  • संबधित लेख : पवनार आश्रम ,भूदान आंदोलन ,विनोबा भावे के अनमोल वचन ,विनोबा भाव के प्रेरक प्रसंग
  • आंदोलन : ” भूदान यज्ञ ” नामक आंदोलन के संस्थापक थे। 
  • जेल यात्रा : 1920 और 1930 के दशक में भावे कई बार जेल गए
  • 1940 में उन्हें पांच साल के लिए जेल जाना पड़ा।
  • अन्य जानकारी : इन्हे ‘ भारत का अध्यापक ‘ और महात्मा गाँधी का ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी ‘ समझा जाता है। 

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आचार्य विनोबा भावे का बचपन –

11 सितंबर, 1895 को उनका जन्म महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गगोड़े गांव में हुआ था। उनका नाम विनायक नरहरि भावे था। उनके पिता का नाम नरहरि शम्भू राव और माता का नाम रुक्मणी देवी था। उनके तीन भाई और एक बहन थीं। उनकी माता रुक्मिणी काफी धार्मिक स्वाभाव वाली महिला थीं। अध्यात्म के रास्ते पर चलने की प्रेरणा उनको मां से ही मिली थी। 

बचपन में बहुत कुशाग्र बुद्धि वाले थे . गणित उनका प्रिय विषय था। कविता और अध्यात्म चेतना के संस्कार मां से मिले। उन्हीं से जड़ और चेतन दोनों को समान दृष्टि से देखने का बोध जागा. मां बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं। पर उन्होने की विन्या को अपरिग्रह, अस्तेय के बारे में अपने आचरण से बताया। संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह-निर्लिप्त रहना सिखाया. मां का ही असर था कि विन्या कविता रचते और उन्हें आग के हवाले कर देते थे। 

संत आचार्य विनोबा भावे – 

दुनिया में जब सब कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर है। कुछ भी साथ नहीं जाना तो अपनी रचना से ही मोह क्यों पाला जाए. उनकी मां यह सब देखतीं, सोचतीं, मगर कुछ न कहतीं. मानो विन्या को बड़े से बड़े त्याग के लिए तैयार कर रही हों। विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती. आज वे घटनाएं मां-बेटे के आपसी स्नेह-अनुराग और विश्वास का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।

छात्र जीवन में विनोबा को गणित में काफी रुचि थी। काफी कम उम्र में ही भगवद गीता के अध्ययन के बाद उनके अंदर अध्यात्म की ओर रुझान पैदा हुआ। वैसे विनोबा भावे मेधावी छात्र थे लेकिन परंपरागत शिक्षा में उनको काफी आकर्षण नहीं दिखा। उन्होंने सामाजिक जीवन को त्याग कर हिमालय में जाकर संत बनने का फैसला लिया था। बाद में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का फैसला किया। उन्होंने इस सिलसिले में देश के कोने-कोने की यात्रा करनी शुरू कर दी। इस दौरान वह क्षेत्रीय भाषा सीखते जाते और साथ ही शास्त्रों एवं संस्कृत का ज्ञान भी हासिल करते रहते।

आचार्य विनोबा भावे के जीवन में बड़ा बदलाव –

भावे का सफर बनारस जैसे पवित्र शहर में जाकर नया मोड़ लेता है। वहां उनको गांधीजी का वह भाषण मिल जाता है जो उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था। इसके बाद उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आता है। 1916 में जब वह इंटरमीडिएट की परीक्षा मुंबई देने जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने स्कूल और कॉलेज के सभी सर्टिफिकेट जला दिए। उन्होंने गांधीजी से पत्र के माध्यम से संपर्क किया। 20 साल के युवक से गांधीजी काफी प्रभावित हुए और उनको अहमदाबाद स्थित अपने ” कोचराब आश्रम ” में आमंत्रित किया।

7 जून, 1916 को विनोबा भावे ने गांधीजी से भेंट की और आश्रम में रहने लगे। उन्होंने आश्रम की सभी तरह की गतिविधियों में हिस्सा लिया और साधारण जीवन जीने लगे। इस तरह उन्होंने अपना जीवन गांधी के विभिन्न कार्यक्रमों को समर्पित कर दिया। विनोबा नाम उनको आश्रम के अन्य सदस्य मामा फाड़के ने दिया था। दरसल मराठी में विनोबा शब्द किसी को काफी सम्मान देने के लिए बोला जाता है।

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आचार्य विनोबा भावे को जेल यात्रा – 

Acharya vinoba bhave in hindi में आपको बतादे की बापू के सानिध्‍य और निर्देशन में विनोबा के लिए ब्रिटिश जेल एक तीर्थधाम बन गई। सन् 1921 से लेकर 1942 तक अनेक बार जेल यात्राएं हुई। सन् 1922 में नागपुर का झंडा सत्‍याग्रह किया। ब्रिटिश हुकूमत ने सीआरपीसी की धारा 109 के तहत विनोबा को गिरफ़्तार किया। इस धारा के तहत आवारा गुंडों को गिरफ्तार किया जाता है। 

नागपुर जेल में विनोबा को पत्थर तोड़ने का काम दिया गया। कुछ महीनों के पश्‍चात अकोला जेल भेजा गया। विनोबा का तो मानो तपोयज्ञ प्रारम्‍भ हो गया। 1925 में हरिजन सत्‍याग्रह के दौरान जेल यात्रा हुई। 1930 में गाँधी के नेतृत्व में राष्‍ट्रीय कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह को अंजाम दिया।

आचार्य विनोबा भावे को गांधीजी से मुलाकात – 

7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो विनोबा गांधी जी के ही होकर रह गए। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है। विनोबा भावे को महात्मा गांधी के सिद्धांत और विचारधारा काफी पसंद आए। उन्होंने गांधीजी को अपना राजनीतिक और आध्यात्मिक गुरु बनाने का फैसला किया। उन्होंने बगैर कोई सवाल उठाए गांधीजी के नेतृत्व को स्वीकार किया।

 समय बीतता गया। वैसे बिनोवा और गांधीजी के बीच संबंध और मजबूत होते गए। समाज कल्याण की गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़ती रही। 8 अप्रैल, 1921 को विनोबा वर्धा गए थे। गांधीजी ने उनको वहां जाकर गांधी आश्रम का प्रभार संभालने का निर्देश दिया था। जब वह वर्धा में रहते थे। मराठी में एक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसका नाम ‘महाराष्ट्र धर्म’ था। पत्रिका में उनके निबंध और उपनिषद होते थे। उन्होंने गांधीजी के सभी राजनीतिक कार्यक्रमों बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वह गांधीजी के सामाजिक विचार जैसे भारतीय नागरिकों और विभिन्न धर्मों के बीच समानता में विश्वास करते थे।

स्वतंत्रता संग्राममे विनोबा भावे की भूमिका –

गांधीजी के प्रभाव में विनोबा भावे ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया। वह खुद भी चरखा चलाते थे और दूसरों से भी ऐसा करने की अपील करते थे। विनोबा भावे की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी से ब्रिटिश शासन आक्रोशित हो गया। उन पर ब्रिटिश शासन का विरोध करने का आरोप लगा। सरकार ने उनको 6 महीने जेल भेज दिया।

उनको धुलिया स्थित जेल भेजा गया था जहां उन्होंने कैदियों को मराठी में ‘भगवद गीता’ के विभिन्न विषयों को पढ़ाया। धुलिया जेल में उन्होंने गीता को लेकर जितने भी भाषण दिए थे, उस सबका संकलन किया गया और बाद में एक किताब प्रकाशित की गई। सन 1940 तक तो विनोबा भावे को सिर्फ वही लोग जानते थे, जो उनके आस -पास रहते थे। सन 5 अक्टूबर, 1940 को महात्मा गांधी ने उनका परिचय राष्ट्र से कराया। गांधीजी ने एक बयान जारी किया और उनको पहला सत्याग्रही बताया।

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द्रितीय विश्व युद्ध में विनोबा भावे का योगदान –

Acharya Vinoba Bhave – द्रितीय विश्व युद्ध के समय युनाइटेेड किंगडम ध्वारा भारत देश को जबरजस्ती युद्ध में झोंका जा रहा था जिसके विरुद्ध एक व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्तूबर, 1940 को शुरू किया गया था। इसमें गांधी जी ध्वारा विनोबा को प्रथम सत्याग्रही बनाया गया था। अपना सत्याग्रह शुरू करने से पहले अपने विचार स्पष्ट करते हुए विनोबा ने एक वक्तव्य जारी किया था |

उसमे कहा गया था की .. चौबीस वर्ष पहले ईश्वर के दर्शन की कामना लेकर मैंने अपना घर छोड़ा था। आज तक की मेरी जिंदगी जनता की सेवा में समर्पित रही है। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि इनकी सेवा भगवान को पाने का सर्वोत्तम तरीका है। मैं मानता हूं और मेरा अनुभव रहा है कि मैंने गरीबों की जो सेवा की है, वह मेरी अपनी सेवा है, गरीबों की नहीं।

आचार्य विनोबा भावे के विचार  –

मैं अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करता हूं और मेरा विचार है कि इसी से मानवजाति की समस्याओं का समाधान हो सकता है। रचनात्मक गतिविधियां, जैसे खादी, हरिजन सेवा, सांप्रदायिक एकता आदि अहिंसा की सिर्फ बाह्य अभिव्यक्तियां हैं। ..युद्ध मानवीय नहीं होता।  वह लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क नहीं करता। आज का मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा है। यह मनुष्य को पशुता के स्तर पर ढ़केल देता है। भारत स्वराज्य की आराधना करता है जिसका आशय है, सबका शासन।

यह सिर्फ अहिंसा से ही हासिल हो सकता है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में अधिक पर्क नहीं है। लेकिन अहिंसा से इसका मेल नहीं है। यह भयानक खतरे में पड़ी सरकार के लिए और परेशानी पैदा करता है। इसलिए गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आह्वान किया है। यदि सरकार मुझे गिरफ्तार नहीं करती तो मैं जनता से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे युद्ध में किसी प्रकार की किसी रूप में मदद न करें। मैं उनको अहिंसा का दर्शन समझाऊंगा,

वर्तमान युद्ध की विभीषिका भी समझाऊंगा तथा यह बताऊंगा की फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं। अपने भाषणों में विनोबा लोगों को बताते थे कि नकारात्मक कार्यक्रमों के जरिए न तो शान्ति स्थापित हो सकती है और न युद्ध समाप्त हो सकता है। युद्ध रुग्ण मानसिकता का नतीजा है और इसके लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की जरूरत होती है।केवल यूरोप के लोगों को नहीं समस्त मानव जाति को इसका दायित्व उठाना चाहिए।

आचार्य विनोबा भावे के सामाजिक कार्य  – 

Sant Vinoba bhave information में सबको ज्ञात करदे की विनोबा भावे ने सामाजिक बुराइयों जैसे असमानता और गरीबी को खत्म करने के लिए अथाक प्रयास किया। गांधीजी ने जो मिसालें कायम की थीं, उससे प्रेरित होकर उन्होंने समाज के दबे-कुचले लोगो के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने सर्वोदय शब्द को उछाला जिसका मतलब सबका विकास था। सन 1950 के दौरान उनके सर्वोदय आंदोलन के तहत कई कार्यक्रमों को लागू किया गया जिनमें से एक भूदान आंदोलन था।

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आचार्य Vinoba Bhave का भूदान आंदोलन  –

 1951 में Vinobha bhave आंध्र प्रदेश (हालीमे तेलंगाना) के हिंसाग्रत क्षेत्र की यात्रा पर थे। 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव के हरिजनों ने उनसे भेट की। उन लोगों ने करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया क्योकि वे लोग अपना जीवन-यापन कर सकें। विनोबा भावे ने गांव के जमीनदारों से आगे बढ़कर अपनी जमीन दान करने और हरिजनों को बचाने की अपील की। उनकी अपील का असर एक जमीनदार पर हुआ जिसने सबको हैरत में डालते हुए अपनी जमीन दान देने का प्रस्ताव रखा। इस घटना से भारत के त्याग और अहिंसा के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। 

यहीं से आचार्य विनोबा भावे का भूदान आंदोलन शुरू हो गया। यह आंदोलन 13 सालों तक चलता रहा। इस दौरान Vinoba bave ने देश के कोने-कोने का भ्रमण किया। उन्होंने करीब 58,741 किलोमीटर सफर तय किया। इस आंदोलन के माध्यम से वह गरीबों के लिए 44 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे। उन जमीनों में से 13 लाख एकड़ जमीन को भूमिहीन किसानों के बीच बांट दिया गया। विनोबा भावे के इस आंदोलन की न सिर्फ भारत बल्कि विश्व में भी काफी प्रशंसा हुई। और विनोबा भावे ग्राम सेवा के रूप में उभरे। 

आचार्य Vinoba Bhave का धार्मिक कार्य –

विनोबा भगवद गीता से काफी प्रभावित थे। उनके विचार और प्रयास इस पवित्र पुस्तक के सिद्धांतों पर आधारित थे।

लोगों के बीच सादगी से जीवन गुजारने और चकाचौंध से दूर रहने को बढ़ावा देने के लिए कई आश्रम खोले। 

उन्होंने 1959 में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के मकसद से ब्रह्म विध्या मंदिर की स्थापना की।

उन्होंने गोवध पर कड़ा रुख अख्तियार किया।

जब तक भारत में इस पर रोक नहीं लगाई जाती है, वह भूख हड़ताल पर चले जाएंगे।

आचार्य विनोबा भावे का साहित्यिक कार्य –

शिक्षक ने अपने जीवन के दौरान Vinoba bhave books लिखीं थी ।

ज्यादातर किताबें आध्यात्म पर थीं। मराठी, तेलुगु, गुजराती, कन्नड़, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और

संस्कृत समेत कई भाषाओं पर उनकी पकड़ थी। 

उन्होंने संस्कृति में लिखे कई शास्त्रों का सामान्य भाषा में अनुवाद किया।

उन्होंने जो किताबें लिखीं उनमें कुछ स्वराज्य शास्त्र, गीता प्रवचन, तीसरी शक्ति अहम हैं।

Vinoba Bhave Death –

सन नवंबर 1982 में वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए।

उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला लिया।

न्होंने अपने अंतिम दिनों में खाना या दवा लेने से इनकार कर दिया था।

आखिरकार 15 नवंबर, 1982 को देश के एक महान समाज सुधारक स्वर्ग सिधार गए।

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Acharya Vinoba Bhave Biography Video –

Vinoba Bhave Facts –

  • विनोबा भावे ने जेल में ‘ईशावास्यवृत्ति’ और ‘स्थितप्रज्ञ दर्शन’ नामक दो पुस्तकों लिखी थी। 
  • आचार्य विनोबा भावे को 1983 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। 
  • विनोबा भावे मराठी ,संस्कृत ,हिंदी ,अरबी ,फ़ारसी ,गुजराती ,बंगाली ,अंग्रेजी और फ्रेंच से भी ज्ञात थे। 
  • आचार्य विनोबा भावे भूदान यज्ञ आंदोलन के Samaj ke sansthapak थे। 
  • विनोबा भावे को पढाई में गणित उनका प्रिय विषय था। 
  • सरकार ने उनके नाम की Vinoba bhave university hazaribag स्थापित की है। 

Vinoba Bhave FAQ –

1 .aachaary vinoba bhaave kitane bhaee the ?

आचार्य विनोबा भावे को तीन भाई थे। 

2 .aachaary vinoba bhaave ko 1983 mein kisase sammaanit kiya gaya ?

आचार्य विनोबा भावे को 1983 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 

3 .vinoba bhaave gaandhee jee ke aashram ko sambhaalane ke lie kis jagah gae ?

विनोबा भावे गांधी जी के आश्रम को संभालने के लिए वर्धा गए। 

4 .आचार्य विनोबा भावे का जन्म किस राज्य में हुआ ?

aachaary vinoba bhaave ka janm महाराष्ट्र raajy mein hua tha .

5 .विनोबा जी के जीवन पर निम्न में से किस महान व्यक्ति का बहुत प्रभाव पड़ा था ?

विनोबा जी के जीवन पर महात्मा गांघी जैसे महान व्यक्ति का बहुत प्रभाव पड़ा था। 

6 .vinoba bhaave ka janm kaha hua tha ?

विनोबा भावे का जन्म गगोड़े, महाराष्ट्र में हुआ था। 

7 .aachaary vinoba bhaave ke pita ka naam kya tha ?

आचार्य विनोबा भावे के पिता का नाम नरहरि शम्भू था। 

8 .विनोबा भावे कौन थे ?

भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गाँधीवादी नेता थे।

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Conclusion –

 मेरा आर्टिकल Acharya Vinoba Bhave Biography In Hindi बहुत अच्छे से समज आया होगा। 

हमने acharya vinoba bhave satyagraha और vinoba bhave stories से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।

तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

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Raja Ram Mohan Roy Biography In Hindi - Thebiohindi

Raja Ram Mohan Roy Biography In Hindi – राजा राममोहन राय का जीवन परिचय

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Raja Ram Mohan Roy Biography In Hindi बताएँगे। सती और बाल विवाह की प्रथाओं को खत्म करने वाले राजा राममोहन राय की जीवनी बताने वाले है। 

वह भारतीय पुनजोगरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक थे। भारतीय भाषाय प्रेस के प्रवर्तक ,जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। आज इस पोस्ट में raja ram mohan roy contribution ,raja ram mohan roy gift to monotheism और raja ram mohan roy brahmo samaj की माहिती बताने वाले है। 

राजा राममोहन राय सति प्रथा और बाल विवाह की प्रथाओं को खत्म करने के प्रयासों के लिये बहुत प्रसिद्ध है। वे एक महान विद्वान और स्वतंत्र विचारक थे | उन्हें बंगाल के नवयुग का प्रवर्तक भी कहा जाता है। राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार और राजा राममोहन राय के आर्थिक विचार ने पुरे भारत की परिस्थितियों का बदलाव किया जिसे चलके नवनिर्माण शुरू हुआ था। और एक आधुनिक भारत की शुरुआत हुई थी। तो चलिए raja ram mohan roy history बताते है। 

Raja Ram Mohan Roy Biography In Hindi –

 नाम   राजा राममोहन राय
 जन्म     22 मई 1772
 पिता  रामकंतो रॉय 
 माता  तैरिणी 
 जन्म स्थान  बंगाल के हुगली जिले का राधानगर गांव
 मृत्यु  27 सितम्बर 1833 

राजा राममोहन राय का जीवन परिचय –

22 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले के राधानगर गांव में राजा राममोहन राय का जन्म हुआ था | पिता का नाम रामकांत रॉय और माता तैरिनी था। उनके पितामह कृष्ण चन्द्र बनर्जी बंगाल की नवाब की सेवा में थे। उन्हें राय की उपाधि प्राप्त थी। ब्रिटिश शाशकों के समक्ष दिल्ली के मुग़ल सम्राट की स्थिति स्पष्ट करने के कारण सम्राट ने उन्हें राजा की उपाधि से विभूषित किया था | प्रतिभा के धनी राजा राम मोहन राय बहुभाषाविद थे। 

 राम मोहन राय का परिवार वैष्णव था। जो धर्म संबधित मामलो में बहुत कट्टर था। जैसा की उस समय प्रचलनमे था। उनकी शादी 9 वर्ष की उम्र में ही कर दी गयी थी। लेकिन उनकी प्रथम पत्नी का जल्द ही देहांत होगया था। इसके बाद 10 वर्ष की उम्र में दूसरी शादी की गयी। जिसे उन्हें दो पुत्र हुए लेकिन 1826 में उस पत्नी का भी देहांत हो गया | उसके बाद उसने तीसरी भी शादी की पर वो भी ज़्यादा दिन तक जीवित नहीं रही थी। 

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राजा राम मोहन राय की शिक्षा – Raja Ram Mohan Roy Education

 राम मोहन राय विद्वता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता की 15 वर्ष की आयु में ही उन्होंने बंगला,पर्शियन,अरेबिक और संस्कृत जैसी भाषाओ सिख ली थी। राजा राम मोहन राय ने पारंम्भिक शिक्षा संस्कृत और बंगाली भाषा अपने गांव के स्कूल से ही ली लेकिन उन्हें | पटना के मदरसे भेज दिया.जहां उन्होंने अरेबिक और पर्शियन जैसी भाषा ओ सिख ली थी | उन्होंने 22 वर्ष की आयु में इंग्लिश भाषा सिख ली थी। 

लेकिन संस्कृत भाषा सिख ने के लिये raja ram mohan roy school काशी तक गये उन्होंने वेदो और उपनिषदो का अध्यन किया उन्होंने अपने जीवन में बाइबल के साथ ही कुरान और अन्य इस्लामिक ग्रंथो का अध्यन किया |वे अरबी,ग्रीक, लेटिन भाषा भी जानते थे | उनके माता पिता ने एक शास्त्री के रूप में तैयार किया था। 

राजा राममोहन और उनका प्रारम्भिक विद्रोही जीवन – 

वो हिन्दू पूजा और परम्पराओ के खिलाफ थे। उन्हें समाज में फैले हुये कुतरियो और अंध विश्वास को पुरजोर विरोध किया था | परन्तु उनके पिता पारम्परिक कट्टर वैष्णव धर्म के पालन करने वाले थे. राजा राममोहन राय ने 14 वर्ष की आयु में ही सन्यास लेने की इच्छा वक्त की लेकिन उनकी माँ ने एक ही हठ पकड़ी थी। राजा राम मोहन राय के परम्परा विरोधी पथ पर चलने और धार्मिक मान्यताओं के विरोध करेने के कारण राजा राम मोहन राय और उनके पिता के साथ मतभेत होने लगा था। झगड़ा बढ़ता देखर उन्होंने अपना घर छोड़ दिया,और वो हिमाल्य और तिब्बक के तरफ चले गये थे।

वापस लौटने से पहले बहोत भ्रमण किया और देश दुनिया के साथ सत्य को भी जाना -समझाना उसको उनकी धर्म की जीजीसा और बढ़ने लगी लेकिन वो घर लोट आएं। जब राजा राम मोहन राय की शादी करवाई थी | तब raja ram mohan roy family को ऐसा लगा था | की शादी के बाद वो अपने विचार बदल लगे लेकिन उनके पर कोई असर नहीं पड़ी थी। विवाह के बाद वाराणसी जाकर उपनिषद और हिन्दू दर्शन शास्त्र का अध्यन किया,लेकिन उनके पिता का देहांत हुवा तो 1803 में वो मुर्शिदाबाद लोट आये। 

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राजा राम मोहन राय का करियर – 

पिता के मृत्यु होजाने के बाद राजा राम मोहन राय वे अपनी जिम्मेदारी का काम देखने लगे। 1805 में में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निम्न पदाधिकारी जॉन दिग्बॉय ने उन्हें पश्चिमी सभ्यता और साहित्य से परिचय करवाया था। 10 साल तक उन्होंने दिग्बाय के असिस्टेंट के रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम किया था।  1809 से लेकर 1814 तक उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी के रीवेन्यु डिपार्टमेंट में काम किया था। 

राजा राममोहन राय के उदारवादी विचार – 

1803 में रॉय ने हिन्दू धर्म में शामिल विभिन्न मतों में अंध-विश्वासों पर अपनी राय रखी। उन्होंने एकेश्वर वाद के सिद्धांत का अनुमोदन किया, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता हैं। इस मत को वेदों और उपनिषदों द्वारा समझाते हुए उन्होंने इनकी संकृत भाषा को बंगाली और हिंदी और इंग्लिश में अनुवाद किया। इनमें रॉय ने समझाया कि एक महाशक्ति हैं। जो मानव की जानाकरी से बाहर हैं।   और इस ब्रह्मांड को वो ही चलाती हैं। 1814 में राजा राम मोहन राय ने आत्मीय सभा की स्थापना की राम मोहन ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई मुहिम चलाई 1822 में उन्होंने इंग्लिश मीडियम स्कूल की स्थापना की थी। 

1828 में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की. इसके द्वारा वो धार्मिक ढोंगों को और समाज में क्रिश्चेनिटी के बढ़ते प्रभाव को देखना-समझना चाहते थे। राजा राममोहन राय के सामाजिक सुधार के  सती प्रथा विरोध में चलाये जाने वाले अभियानों को प्रयासों को तब सफलता मिली।  जब 1829 में सती प्रथा पर रोक लगा दी गई। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए काम करते हुए। वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे। कि उन्हें वेदांत के सिद्धांतों को पुन परिभाषित करने की आवश्यकता हैं। वो पश्चिमी और भारतीय संस्कृति का संगम करवाना चाहते थे। 

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शैक्षिक योगदान – 

Raja Ram Mohan Roy ने इंग्लिश स्कूलों के स्थापना के साथ ही कोलकाता में हिन्दू कॉलेज़े की भी स्थापना की जो की कालांन्तर में देश का बेस्ट शैक्षिक संस्थान बन गया. वो चाहते थे कि देश का युवा और बच्चे नयी से नयी तकनीक की जानकारी हासिल करे इसके लिए। यदि स्कूल में इंग्लिश भी पढ़ना पड़े तो ये बेहतर हैं.राजा राममोहन 1815 में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए कलकत्ता आए थे. रबिन्द्र नाथ टेगोर और बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्य ने भी उनके पद चिन्हों का अनुकरण किया। 

 Raja Ram Mohan Roy Sati Pratha –

200 साल पहले जब सती प्रथा जैसी बुराइओं ने समाज को जकड़ रखा था | राजा राम मोहन राय ने समाज सुधारक के लिये महत्व भूमिका निभाई उन्होंने सती प्रथा का विरोध किया था। जब पति मर जाता था। तो महिला पति को भी साथ ही चिता में बैठना पड़ता था। लेकिन राजा राम मोहन राय को उनका भाई की मृत्यु हो जाने से उनकी भाभी को चिता में बैठना पड़ा था। तो यह देखा कर राजा राम मोहन राय को दुःख सहन नहीं कर पाये। इस लिये राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा पे विरोध किया उन्होंने महिलाओ के लिए पुरुषो के समान अधिकार के लिए प्रचार किया की उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार और संपति रखने का अधिकार के लिए वकालत की। 

1828 में राजा राम मोहन राय ने ‘ब्रह्म “समाजकी स्थापना की। उस समय की समाज में फैली सबसे खतरनाक और अंधविश्वास से भरी परंपरा जैसी सती प्रथा बाल विवाह खिलाफ मुहीम चलाई। राजा राम मोहन राय ने बताया था। की किसी भी वेद में कोई उल्लेख नहीं किया गया है। उन्होंने गवर्नर जनरल लोड विलयम बेटिग की मदद से सती प्रथा के खिलाफ एक कानून का निर्माण करवाया। उन्होंने राज्यों में जा -जा कर लोगो की सोच और इस परंपरा को बदलने में काफी मेहनत और प्रयास किया। सती प्रथा की raja ram mohan roy book भी लिखी है। 

आत्मीय सभा का गठन –

सती प्रथा के के बाद 1814 में आत्मीय सभा का गठन समाज के समाजिक धार्मिक सुधारा करनेका प्रयाश किया जिसे महिला दुबारा शादी कर सके| राजा राम मोहन राय एक ऐसे व्यक्ति थे। जो सती प्रथा और बाल विवाह पे विरोध किया था। 

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बाल विवाह – 

बालविवाह केवल भारत मैं ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में होते आएं हैं। और समूचे विश्व में भारत का बालविवाह में दूसरा स्थान हैं। सम्पूर्ण भारत मैं विश्व के 40% बालविवाह होते हैं और समूचे भारत में 49% लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की आयु से पूर्व ही हो जाता हैं। यह प्रथा भारत में शुरू से नहीं थी। ये दिल्ली सल्तनत के समय में अस्तित्व में आया जब राजशाही प्रथा प्रचलन में थी।

भारतीय बाल विवाह को लड़कियों को विदेशी शासकों से बलात्कार और अपहरण से बचाने के लिये एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता था। बाल विवाह को शुरु करने का एक और कारण था। बड़े बुजुर्गों को अपने पौतो को देखने की चाह अधिक होती थी इसलिये वो कम आयु में ही बच्चों की शादी कर देते थे। जिससे कि मरने से पहले वो अपने पौत्रों के साथ कुछ समय बिता सकें।

दहेज प्रथा –

दहेज़ का अर्थ है जो सम्पत्ति, विवाह के समय वधू के परिवार की तरफ़ से वर को दी जाती है। दहेज को उर्दू में जहेज़ कहते हैं। यूरोप, भारत, अफ्रीका और दुनिया के अन्य भागों में दहेज प्रथा का लंबा इतिहास है। भारत में इसे दहेज, हुँडा या वर-दक्षिणा के नाम से भी जाना जाता है। वधू के परिवार द्वारा नक़द या वस्तुओं के रूप में यह वर के परिवार को वधू के साथ दिया जाता है।

आज के आधुनिक समय में भी दहेज़ प्रथा नाम की बुराई हर जगह फैली हुई है। पिछड़े भारतीय समाज में दहेज़ प्रथा अभी भी विकराल रूप में है। दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के अनुसार दहेज लेने, देने या इसके लेन-देन में सहयोग करने पर 5 वर्ष की कैद और 15,000 रुपए के जुर्माने का प्रावधान है।

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डायन प्रथा – 

डाकन प्रथा एक कुप्रथा थी जो पहले राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी | इसमें ग्रामीण औरतो पर डाकन यानिकि अपनी तांत्रिक शक्तियो से नन्हें शिशुओं को मारने वाली पर अंधविश्वास से उस पर आरोप लगाकर निर्दयतापूर्ण मार दिया जाता था। इस प्रथा के कारण सेकड़ो स्त्रियों को मार दिया जाता था। 16 वीं शताब्दी में राजपूत रियासतों ने कानून बनाकर इस प्रथा पर रोक लगादी थी। इस प्रथा पर सर्व प्रथम अप्रैल 1853 में मेवाड़ महाराणा सवरूप सिंह के समय में खेरवाड़ (उदयपुर ) में इसे गैर क़ानूनी घोषित कर दिया था |

बलि प्रथा – 

बलि प्रथा मानव जाति में वंशानुगत चली आ रही एक इस पारम्परिक व्यवस्था में मानव जाति द्वारा मानव समेत कई निर्दोष प्राणियों की हत्या यानि कत्ल कर दिया जाता है। विश्व में अनेक धर्म ऐसे हैं। जिनमें इस प्रथा का प्रचलन पाया जाता है। यह मनुष्य जाति द्वारा मात्र स्वार्थसिद्ध की व्यवस्था है। बलि प्रथा के मुख्य दो कारण पाये जाते थे एक धार्मिक और दूसरा स्वाथिक। 

मूर्ति पूजा का विरोध – 

Raja Ram Mohan Roy ने मूर्ति पूजा का भी खुलकर विरोध किया और एकेश्वरवाद के पक्ष में अपने तर्क रखे। उन्होंने “ट्रिनीटेरिएस्म” का भी विरोध किया जो कि क्रिश्चयन मान्यता हैं। इतिहास के अनुसार भगवान तीन व्यक्तियों में ही मिलता हैं गॉड,सन(पुत्र) जीसस और होली स्पिरिट. उन्होंने विभिन्न धर्मों के पूजा के तरीकों और बहुदेव वाद का भी विरोध किया था। “मैंने पूरे देश के दूरस्थ इलाकों का भ्रमण किया हैं और मैंने देखा कि सभी लोग ये विश्वास करते हैं एक ही भगवान हैं जिससे दुनिया चलती हैं। 

वेस्टर्न शिक्षा की वकालत  – Western Education Advocate

राजा राम मोहन की कुरान, उपनिषद, वेद, बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथो पर ही बराबर की पकड़ थी, ऐसे में इन सबको समझते हुए।  उनका दूसरी भाषा के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक था। वो इंग्लिश के माध्यम से भारत का विज्ञान में वैचारिक और सामाजिक विकास देख सकते थे। उनके समय में जब प्राचिविद और पश्चिमी सभ्यता की जंग चल रही थी। तब उन्होंने इन दोनों के संगम के साथ आगे बढने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने  फिजिक्स, मैथ्स, बॉटनी, फिलोसफी जैसे विषयों को पढ़ने को कहा वही वेदों और उपनिषदों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता बताई थी।

उन्होंने लार्ड मेक्ले का भी सपोर्ट किया जो कि भारत की शिक्षा व्यवस्था बदलकर इसमें इंग्लिश को डालने वाले व्यक्ति थे। उनका उद्देश्य भारत को प्रगति की राह पर ले जाना था। 1835 तक भारत में प्रचलन में आई इंग्लिश के एजुकेशन सिस्टम को देखने के लिए जीवित नहीं रहें लेकिन इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठाने वाले पहले विचारकों में से एक थे। 

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राजा राममोहन राय का मृत्यु – Raja Ram Mohan Roy Death

 Ram Mohan Roy का मृत्यु का कारण  मेनी मैनिन्जाईटिस था। 1814 में उन्होंने आत्मीय सभा को आरम्भ किया और 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी।  1831 से 1834 तक उन्होंने इंग्लैंड में अपने प्रवास काल के दौरान ब्रिटिश भारत की प्रशाशनिक पद्धति में सुधर के लिए आंदोलन किया था | 27 सितम्बर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में उनकी मृत्यु हो गई

Raja Ram Mohan Roy Biography Video –

Raja Ram Mohan Roy Facts –

  • राजा राममोहन राय की पुस्तके की बात करे तो वह बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ करते थे। 
  • राजा राममोहन राय के विचार इस्लामिक एकेश्वरवाद के प्रति आकर्षित थे।
  • राममोहन राय ने ब्रह्ममैनिकल , संवाद कौमुदी , एकेश्वरवाद का उपहार (मिरात-उल-अखबार)  बंगदूत जैसे अखबारों का  प्रकाशन और संपादन किया था।
  • राजा राममोहन राय के बचपन का नाम राममोहन राय था। 
  • राममोहन राय के राजनीतिक विचारों का वर्णन करे तो ब्रह्मो समाज सभी धर्मों की एकता में विश्वास करके एक सच्चे मानवतावादी और लोकतांत्रिक थे। 
  • राजा राम मोहन राय को राजा की उपाधि 1829 में दिल्ली के राजा अकबर द्वितीय ने दी थी। 

राजा राममोहन राय के प्रश्न –

1 .raja ram mohan roy was born in which village ?

राजा राम मोहन रोय का जन्म राधानगर गांव में हुआ था। 

2 .raja ram mohan roy ne bharateey shiksha ko kis bhasha mein karane par bal diya ?

राजा राममोहन राय ने भारतीय शिक्षा को इंग्लिश भाषा में करने पर बल दिया था। 

3 .raja ram mohan roy kee mrtyu kab huee ?

राजा राममोहन राय की मृत्यु 27 सितम्बर 1833 के दिन हुई थी।  

4 .raja ram mohan roy ka janm kaha hua tha ?

राजा राममोहन राय का जन्म बंगाल के हुगली जिले के राधानगर गांव हुआ था

5 .raja ram mohan roy kaun the ?

राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत जनक थे। 

6 .raja ram mohan roy ne kis patrika ka sampadan kiya ? 

राजा राममोहन राय ने  ब्रह्ममैनिकल , संवाद कौमुदी , एकेश्वरवाद का उपहार बंगदूत पत्रिका का संपादन किया था। 

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Conclusion – 

 मेरा आर्टिकल Raja Ram Mohan Roy Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा।  लेख के जरिये  हमने raja ram mohan roy news paper और raja ram mohan roy presentation से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दी है। अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो कमेंट करके जरूर बता सकते है। हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

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Bhim Rao Ambedkar Biography In Hindi - भीमराव आंबेडकर की जीवनी

Bhimrao Ambedkar Biography In Hindi | भीमराव आंबेडकर की जीवनी

आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज हम Dr Bhim rao Ambedkar Biography In Hindi बताएँगे। जिनका भारतीय संविधान में बहुत बड़ा योगदान रहा है। ऐसे भीमराव अम्बेडकर का जीवन परिचय बताने वाले है। 

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर विश्व में  ऐसे व्यक्तित्व है। जिनसे लोग सर्वाधिक प्रेरणा प्राप्त करते हैं। चाहे सामाजिक मसला हो, आर्थिक अथवा राजनैतिक लोग उन्हें उद्धरित कर अपनी बात को युक्ति-युक्त सिद्ध करते हैं। आज हम भी ambedkar family ,bhimrao ambedkar quotes और Dr bhimrao ambedkar jayanti की जानकारी बताने वाले है। दलित-शोषित और पीड़ित समाज के लोग तो उन्हें अपना उद्धारक और मसीहा मानते हैं। विहारों और अपने पूजा-स्थलों में बुद्ध के साथ उनकी मूर्ति रखकर पूजा करते हैं।

हमारे देश में और विदेेश में भी शासक दल के नेता अपने आदर्श पुरुषों की जनता के पैसे से मूर्तियां बना कर महत्वपूर्ण स्थानों में स्थापित करते हैं। उनके नाम पर सड़क और पुलों के नाम रखते हैं। पहले से रखे नामों को बदल तक डालते हैं। किंतु डॉ बाबासाहब अम्बेडकर की मूर्तियां, लोग अपने खर्च से, अपने पैसे से गांव-गांव और चौराहे-चौराहे पर स्थापित करते हैं। क्योकि भीमराव अम्बेडकर के राजनितिक विचार बहुत ही उच्च कक्षा के हुआ करते थे। तो chaliye डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की कहानी हिंदी में बताना शुरू करते है। 

Dr Bhimrao Ambedkar Biography In Hindi –

 नाम  डॉ.भीमराव आंबेडकर (B. R. Ambedkar)
 जन्म  14 अप्रैल 1891
 जन्म स्थान  महू , इंदौर ( मध्य प्रदेश )
भीमराव अंबेडकर की माता का नाम  भीमबाई मुर्बकर
 पिता  रामजी मालोजी शकपाल
 विवाह  रमाबाई ( 1906 ) , सविता आंबेडकर ( 1948 )
 बच्चे

Yashwant Ambedkar

भीमराव अंबेडकर का जन्म  – Bhimrao Ambedkar Birth

भीमराव आंबेडकर की जीवनी (dr bhimrao ambedkar ki jivani in hindi) – आंबेडकर की माँ का नाम भीमबाई और bhimrao ambedkar father name रामजी मालोजी शकपाल था | भीमराव अम्बेडकर का परिवार कबीर पंथी था |उनके पिता सेना में सूबेदार थे और माता धार्मिक विचारो वाली गृहिणी थी। ये लोग महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में अंबावडे गांव के मराठी वतनी थे | माता -पिता और गांव के नाम परसे उनका नाम भीमराव आंबेडकर रखा गया | भीम बचपन से ही लड़ाकू और हठधर्मी प्रवृति वाला बालक था। मगर पथनेमे विलक्षण प्रतिभाके थे | छुआछूत प्रथा होने के कारन क्लास के बाहर रहकर भी पठना पड़ा था। सी.एस। भंडारी ने अपनी किताब ” प्रखर राट्रभक्त डॉ.भीमराव आंबेडकर ” में लिखा है। 

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भीमराव अम्बेडकर का परिवार – Bhimrao Ambedkar Family

Baba saheb ki jivani में आपको बतादे की बालक भीम बचपन से ही लड़ाकू था। हठी था , निर्भीक स्वभाव का था | लोकाचार के सारे नियम उसकी आपत्ति के लक्ष्य बिंदु था | चुनोतियो के सामने जुकना उसके स्वभाव मे नहीं था। भीमराव सूबेदार रामजी की 14 संतानें थे 3 पुत्र और 11 पुत्रियां। जिसमें 9 की मौत अल्पायु में हुई थी। शेष 5 में 3 पुत्र और 2 पुत्रियां थी। बड़े दो पुत्रों के नाम बालाराम और आनन्दराव थे। मंझली दो पुत्रियों के नाम मंजुला और तुलसी थे। उनकी चौदहवीं संतान हमारे नायक, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर हैं। बालक भीमराव का जन्म 14 अप्रेल 1891 के सुबह तड़के महू छावनी, इन्दौर में हुआ था। ambedkar wife का नाम Savita Ambedkar (सविता अम्बेडकर)और Ramabai Ambedkar था। 

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का बचपन – 

डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी हिंदी में आपको बतादे आंबेडकर शैशव-काल में स्वभाव से बड़े चंचल और शरीर से बलिष्ठ थे। खेल-कूद में वे अपने साथ के बच्चों को पीट दिया करते थे जिससे बच्चों के अभिभावक इसकी शिकायत सूबेदार रामजी से अकसर किया करते थे | और खेल -कूद में माहिर थे। dr bhimrao ambedkar ka jeevan parichay hindi main बतादे की रामजीराव का विवाह सूबेदार मेजर मुरवाड़कर की पुत्री भीमाबाई से हुआ था। सूबेदार मुरवाड़कर मुरबाद जिला ठाना तत्कालीन बाम्बे स्टेट के निवासी थे।

भीमराव आंबेडकर के पिता रामजी सूबेदार –

रामजी सकपाल ब्रिटिश फौज में सन् 1866 की अवधि में सूबेदार मेजर लक्ष्मण मुरबाड़कर की कमान में भर्ती हुए थे। उन्हें सूबेदार के पद पर तरक्की मिली थी। वे एक सैनिक स्कूल में 14 साल तक मुख्य अध्यापक रहे थे। सूबेदार रामजीराव मराठी भाषा में पारंगत थे। वे अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ रखते थे। गणित उनका दूसरा प्रिय विषय था। वे क्रिकेट और फुटबाोल के खिलाड़ी थे। सूबेदार रामजी सत्यशोधक समाज के प्रणेता ज्योतिबा फुले के प्रशंसक थे और वे सामाजिक सुधारों के कार्यों में एक कदम आगे बढ़कर हिस्सा लेते थे |

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का जीवन परिचय में सबको कह दे की अम्बेडकर की पत्नी भीमाबाई सुन्दर, चौड़े मस्तक, घुंघरवाले बाल, चमकती गोल आंखे और छोटी नाक वाली गौर-वर्ण कद-काठी की महिला थी। उसके पिता और उनके चाचा सभी आर्मी में सूबेदार मेजर थे। उनका परिवार भी कबीर-पंथी था| भीमाबाई यद्यपि बड़़े घर की लड़की थी किन्तु उन्होंने अपने स्वभाव और आदतों को बदल कर अपनी ससुराल के अनुरूप बना लिया था। 

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सत्यशोधक समाज – Biography of ambedkar in hindi

सत्यशोधक समाज की स्थापना 19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने की थी। फुले स्त्रियों और शूद्रों ( अछूत जाती ). को अनिवार्य शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुणे में पहली बार अछूतों के लिए प्याऊ लगवाए, सन् 1848 में महिलाओं के लिए और सन् 1851 में अछूतों के लिए स्कूल खोलें। कोल्हापुर के शाहू महाराजा ज्योतिबा फुले को महाराष्ट्र का मार्थिन लूथर कहा करते थे। बाबासाहेब ने तीन महापुरुषों को अपना प्रेरणा-स्रोत बतलाया है- 1. बुद्ध, 2. कबीर और 3.ज्योतिबा फुले। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ हु वेयर दी शुद्रास ‘ ज्योतिबा फुले को समर्पित की थी। 

कबीर-पंथी परिवार –

dr bhimrao ambedkar jeevan parichay में आपको कहदेते है, की उस समय अछूतों और विशेषकर महार समाज के लोग तीन प्रकार के भक्ति सम्प्रदायों में बटे थे। 1. कबीर-पंथी, 2.रामानंदी और 3. नाथ सम्प्रदायी। सूबेदार रामजी सन् 1896 में कबीर पंथ के अनुयायी बने थे। पहले वे रामानंदी थे। बाबा साहेब ने जाति-प्रथा को घुतकारा था और स्वाभाविक है। हिन्दुओं में अछूत समझे जाने वाली जाति के लोग साहेब को स्वीकारते। सूबेदार रामजी के घर में प्रति दिन भजन और सत्संग होती थी।

शिक्षा के दरवाजे बंद –

सन् 1894 के लगभग दापोली मुनिसिपिल शिक्षा विभाग ने प्रस्ताव पास किया कि अछूत बच्चों को स्कूलों में भर्ती न किया जाएं। अछूत समाज के लोगों ने इसका विरोध कलेक्टर से किया। म्यूनिसिपल शिक्षा विभाग के प्रस्ताव के मद्दे-नजर सूबेदार रामजी को बच्चों को स्कूल भेजने की चिन्ता सताए जा रही थी। बालक भीम के साथ के बच्चें स्कूल जाने लगे थे। सूबेदार रामजी ने एक अंग्रेज सैनिक अफसर से इस बात की फरियाद की कि उन्होंने जीवन भर सरकार की सेवा की है। उनके बच्चों को कहीं दाखिला नहीं मिले तो बड़ा अन्याय होगा। उस अफसर के कहने पर भीम को केम्प स्कूल में प्रवेश मिल गया। भीम अपने बड़े भाई आनंदराव के साथ स्कूल जाने लगा।

दापोली से सतारा केम्प – Dr bhim rao biography in hindi

सूबेदार रामजी का परिवार बड़ा था। परिवार चलाने के लिए पेंशन, उन्हें पर्याप्त नहीं होती थी। वे अल्पकालीन किसी नौकरी की तलाश में थे। उन्होंने आर्मी में आवेदन किया और सतारा केम्प के पी. डब्ल्यू. डी. विभाग में उन्हें स्टोर-कीपर की नौकरी मिल गई। सन् 1896 में नौकरी के चलते सूबेदार रामजी परिवार सहित सतारा चले गए थे। 

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Bhim rao Ambedkar पहली कक्षा में भर्ती –

Dr bhimrao ambedkar jivani in hindi में बतादे की रामजी ने अपने पुत्र भीम का नाम सतारा के एक सरकारी स्कूल की कक्षा- 1 में भर्ती कराया था। यह हाई स्कूल दर्जे तक था। वर्तमान में इस स्कूल का नाम प्रतापसिंग हाई स्कूल है। यह तिथि भर्ती रजिस्टर में 07.11.1900 अंकित है। इस समय भीमराव की उम्र 9 वर्ष 8 माह थी। स्कूल में उनका नाम ‘भीवा रामजी अम्बावेडकर’ लिखा गया था |

दापोली – सतारा में शैशव काल –

भीम का शैशवकाल दापोली और सतारा में बीता था। सतारा में, जहां रामजी सूबेदार रहते थे, उनके पड़ोस में उन्हीं के जैसे 10-15 और पेंशनर भी रहते थे। भीम स्कूल से आते ही अपना बस्ता घर में फैंक देता और पड़ोस के बच्चों में खेलने चला जाता। स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाता, वह उसे ही पढ़ता था, बाकि सारा समय खेल-कूद में बिताया करता था।

सरकारी स्कूल में छुआछूत –

हिन्दू समाज की छुआछूत को भीमराव जन्म से ही झेल रहे थे। स्कूल में भी इस अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार का सामना भीमराव को लगभग प्रति दिन करना पड़ता था। महार जाति का होने से उसके सहपाठी छात्र और शिक्षक उससे दूरी बनाए रखते थे। उसे कक्षा में अलग बैठाया जाता था। वह और उसका बड़ा भाई आनन्दराव घर से टाट का टुकड़ा लाकर उस पर बैठकर पढ़ा करते थे। वह अन्य बच्चों के साथ खेल नहीं सकता थे । अगर उसे प्यास लगती तो घड़े के काफी दूर खड़े होकर देखना पड़ता था कि कोई आएं और उन्हें पानी पिलाएं। पानी का बर्तन- घड़े को छूने की उन्हें मनाई थी। संस्कृत शिक्षक तो अछूत बच्चों को पढ़ाता ही नहीं था।

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आम्बावडेकर से आंबेडकर – Bhim rao Ambedkar Biography

आम्बावडे (जिला रत्नागिरि) भीमराव का पैतृक गांव था। महाराष्ट्र में नाम के साथ गांव का नाम जोड़ने का चलन है। किन्तु यह ‘अम्बावेडकर’ उपनाम अधिक समय तक भीमराव के साथ नहीं रहा। एक शिक्षक (कृष्णा केशव अम्बेडकर) ने जो प्रतीत होता है, भीमराव को अधिक चाहता था और जिनका स्वयं का उपनाम अम्बेडकर था। भीमराव से कहा कि हाजिरी रजिस्टर में उसका नाम अम्बेडकर लिख रहे हैं। क्योंकि पुकारने में अम्बावेडकर कठिन लगता है। स्मरण रहे, सूबेदार रामजी अपना नाम रामजीराव मालोजी सकपाल लिखा करते थे। मालोजी उनके पिता का नाम और सकपाल उनका पुश्तैनी उपनाम था। प्रतीत होता है, दादा मालोजी अथवा पिता रामजीराव ने गांव से जुड़े उपनाम को अधिक तरजीह नहीं दी थी।

नाई द्वारा Bhim rao Ambedkar का बाल न काटना –

सुवर्ण हिन्दुओं द्वारा अछूतों पर थोपी गई सामाजिक पाबंदियों में नाई द्वारा उनके बाल न काटना भी था । ऐसी स्थिति में परिवार के सदस्य ही यह काम बखूबी कर देते थे। एक दिन भीम जाकर नाई की दुकान के सामने खड़ा हो गया और कहा – “बाल कटाने है।” नाई के पूछने पर उसने अपना नाम और जाति बताया। जैसे ही नाई ने जाना कि वह महार है, उसने भीम को झिड़क कर भगा दिया। भीम रोता हुआ घर आया। बड़ी बहन तुलसी के पूछने पर उसने सारी बात बता दी। तुलसी ने उसे प्यार से शांत किया और कहा कि इसमें रोने की क्या बात है। आ, मैं तेरे बाल बना देती हूँ।

Bhim rao Ambedkar का बाह्य पुस्तकें पढ़ने का शौख –

भीम राव आंबेडकर बायोग्राफी में आपको बतादे की भीमराव स्कूल की पाठ्य पुस्तकें कम ही पढ़ता था। पाठ्य पुस्तकें तो वह सरसरी तौर पर देख लेता था। उसे दूसरी किताबें पढ़ने और संग्रह करने का बेहद शौक था। नई-नई पुस्तकें खरीदने के लिए वह अकसर पिता से जिद करता। रामजी भी पर्याप्त साधन न होते हुए भी बेटे की इच्छा पूरी करते थे। अक्सर वे अपनी दो विवाहित पुत्रियों से पैसा उधार लाते थे। वास्तव में, रामजी ने जान लिया था कि उसका बेटा साधारण बच्चा नहीं हैं।

वे उसमे बड़ा आदमी बनने की काबिलियत देख रहे थे। रामजी सूबेदार ने डबल चाल में केवल एक ही कमरा ले रखा था। उसमें पढ़ने के लिए जगह नहीं थी। भीमराव ने इस प्रकार की पुस्तकें पढ़ने के लिए चर्बी रोड़ गार्डन में एक स्थान बना लिया था। स्कूल से छुट्टी होने पर वह उसी अड्डे पर बैठकर पुस्तकें पढ़ा करता था। 

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Bhim rao Ambedkar Biography Video –

Bhim rao Ambedkar Facts –

  • भीमराव अम्बेडक का संविधान आज से 71 साल पहले सरकार ने
  • 26 नवंबर 1949 को भारत देश ने अपनाया था।
  • बाबा भीमराव अम्बेडकर पुस्तकें “जाति का उच्छेद” बहुत प्रसिद्द पुस्तक है। 
  • भीमराव आंबेडकर हिस्ट्री देखे तो वह भारतीय बहुज्ञ, विधिवेत्ता,
  • अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, और समाजसुधारक थे।
  • बाबा साहब को भारत का संविधान तैयार करने में 2 साल 11 महीने और 17 दिन लगे थे।
  • भीमराव अंबेडकर का पूरा नाम Bhimrao Ramji Ambedkar था। 
  • भीमराव अम्बेडकर पत्नी पहली का नाम सविता और दूसरी का रामबाई था। 
  • भारतरत्न डॉ बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की समाधि स्थली
  • और बौद्ध धर्म के लोगो का आस्था का केंद्र हैं।
  • डॉ भीमराव आंबेडकर जयंती 14 अप्रैल मनाई जाती है। 

Bhim Rao Ambedkar FAQ –

1 .bhimrao ambedkar ko kisane mara ?

भीमराव अम्बेडकर को मधुप्रमेह थी उस कारन उनकी मौत हुई थी ।  

2 .bhimrao ambedkar ko kisane padhaya tha ?

भीमराव अंबेडकर ने बीए, एमए, एम.एससी, पीएच.डी, बैरिस्टर

और डीएससी जैसी 32 डिग्रियां प्राप्त की हुई थी। 

3 .bhim rao ambedkar ke kitane bachche the ?

भीमराव अंबेडकर के बेटे का नाम यशवंत आम्बेडकर था। 

4 .bhimrao ambedkar ke kitane putr the ?

भीमराव अंबेडकर को एक पुत्र था। 

5 .bhimrao ambedkar ki mrtyu kab huee thee ?

भीमराव अंबेडकर की मृत्यु 6 दिसंबर 1956 को हुई थी।

6 . Dr bhim rao ambedkar ka janm kab hua tha ? 

भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 के दिन हुआ था। 

7 .bhimrao ambedkar ka janm kahaan hua tha ? 

भीमराव अंबेडकर का जन्म महू, मध्य प्रांत, ब्रिटिश भारत

( वर्तमान आम्बेडकर नगर, मध्य प्रदेश, भारत) हुआ था। 

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Conclusion – 

 मेरा आर्टिकल Bhim rao Ambedkar Biography In Hindi

बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये  हमने dr ambedkar history और भीमराव अम्बेडकर के विचार,

bhimrao ambedkar in hindi और भीमराव आंबेडकर पर निबंध in hindi से सबंधीत सम्पूर्ण जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। 

तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द। 

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