Biography of Sukhdev Thapar In Hindi - सुखदेव थापर की जीवनी

Sukhdev Thapar Biography In Hindi – सुखदेव थापर की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे आर्टिकल में आपका स्वागत है आज हम Sukhdev Thapar Biography In Hindi में  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य नायक सुखदेव थापर का जीवन परिचय बताने वाले है। 

1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बना हुआ था। इस वक्त सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को ‘सैल्यूट’ करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। आज हम sukhdev thapar family ,sukhdev thapar quotes और sukhdev religion की बात करने वाले है। 

लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक ‘जयचन्द्र विद्यालंकार’ थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। तो चलिए इनकी इनकी जानकारी से वाकिफ करते है। 

 नाम  सुखदेव थापर – shaheed sukhdev
 जन्म  जन्म 15 मई, 1907
 पिता   रामलाल थापर
 माता  रल्ला देवी
 भाई  माथुरदास थापर
 भतीजा   भारत भूषण थापर
 धर्म   हिन्दू धर्म
 संगठन  हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
 राजनैतिक आंदोलन  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
 नागरिकता   भारतीय
 प्रसिद्धि   क्रांतिकारी
 मृत्यु  23 मार्च, 1931

Sukhdev Thapar Biography In Hindi –

उनका जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया।

वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देश भक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार सुखदेव ने युवाओं में न सिर्फ देशभक्ति का जज्बा भरने का काम किया, बल्कि खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

उनका नाम 1928 की उस घटना के लिए प्रमुखता से जाना जाता है जब क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए गोरी हुकूमत के कारिन्दे पुलिस उपाधीक्षक जेपी सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और पूरे देश में क्रांतिकारियों की जय-जय कार हुई थी। सांडर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया। इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई गई।

23 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए और देश के युवाओं के मन में आजादी पाने की नई ललक पैदा कर गए। शहादत के समय सुखदेव की उम्र मात्र 24 साल थी shaheed sukhdev हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य थे और उन्होंने पंजाब व उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों के क्रांतिकारी समूहों को संगठित किया।

एक देश भक्त नेता सुखदेव लाहौर नेशनल कॉलेज में युवाओं को शिक्षित करने के लिए गए और वहाँ उन्हें भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में अत्यन्त प्रेरणा मिली।  उन्होंने अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के साथ लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ की शुरुआत की, जो विभिन्न गतिविधियों में शामिल एक संगठन था। इन्होंने मुख्य रूप से युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने और सांप्रदायिकता को खत्म करने के लिए प्रेरित किया था

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सुखदेव थापर का क्रांतिकारी जीवन परिचय – 

वर्ष 1926 में लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। असहयोग आन्दोलन’ की विफलता के पश्चात् ‘नौजवान भारत सभा’ ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था।

इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा। परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी।  अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम ‘नौजवान भारत सभा’ ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण –

सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ रखा गया।  सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया।

सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें ‘विलेजर’ कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्ती थे-

  • चन्द्रशेखर आज़ाद
  • राजगुरु
  • बटुकेश्वर दत्त

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भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम (1857-1947) –

  • असहयोग आंदोलन :

सितम्‍बर 1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्‍मा गांधी तथा भारतीय राष्‍ट्रीय कॉन्‍ग्रेस के नेतृत्‍व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की।  जलियांवाला बाग नर संहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक उचित न्‍याय मिलने की कोई संभावना नहीं है।

इसलिए उन्‍होंने ब्रिटिश सरकार से राष्‍ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई| इस प्रकार असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्‍यवस्‍था पर प्रभाव हुआ। यह आंदोलन अत्‍यंत सफल रहा, क्‍योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्‍साहन मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए।

  • साइमन कमीशन:

असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसलिए राजनैतिक गतिविधियों में कुछ कमी आ गई थी। साइमन कमीशन को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत सरकार की संरचना में सुधार का सुझाव देने के लिए 1927 में भारत भेजा गया। इस कमीशन में कोई भारतीय सदस्‍य नहीं था और सरकार ने स्‍वराज के लिए इस मांग को मानने की कोई इच्‍छा नहीं दर्शाई। अत: इससे पूरे देश में विद्रोह की एक चिंगारी भड़क उठी

तथा कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग ने भी लाला लाजपत राय के नेतृत्‍व में इसका बहिष्‍कार करने का आव्‍हान किया।  इसमें आने वाली भीड़ पर लाठी बरसाई गई और लाला लाजपत राय, जिन्‍हें शेर – ए – पंजाब भी कहते हैं, एक उपद्रव से पड़ी चोटों के कारण शहीद हो गए।

  • नागरिक अवज्ञा आंदोलन :

महात्‍मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्‍व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की गई थी। इस अभियान का लक्ष्‍य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे देश में स्‍वतंत्रता दिवस मनाएगा। अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया।

ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया।  परन्‍तु यह आंदोलन देश के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्‍मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्‍मेलन में लंदन में भाग लिया।

परन्‍तु इस सम्‍मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया। इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

  • कुशल रणनीतिकार :

‘साइमन कमीशन’ के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया।

एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार Sukhdev Thapar ही थे। सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था| जिसमें उन्होंने कहा था, “क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?” सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था “लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया। 

  • जेल की भूख हड़ताल :

sahid bhagat singh ने कई क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। सुखदेव द्वारा वर्ष 1929 में जेल में की जाने भूख हड़ताल उनमें से प्रमुख थी।

  • लाहौर षड़यंत्र :

18 दिसंबर 1928 के लाहौर षड़यंत्र के मामले में इनके उल्लेखनीय योगदान के लिए, उन्हें आज भी याद किया जाता है।

  • गिरफ्तारी :

8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ।  लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था।

उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, “मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।

  • गांधीजी को पत्र :

Sukhdev Thapar ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, ‘आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ?  1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं।

बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फाँसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?” सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।

सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को ‘यंग इंडिया’ में छापा

  • विशेष अधिकरण :

7 अक्टूबर 1930 को 300 पृष्ठों के फैसले में सभी सक्ष्यों के आधार पर न्यायालय द्वारा सान्डर्स हत्याकांड के मामले के लिए सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई थी।

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सुखदेव थापर को फांसी –

  • सुखदेव थापर के मृत्यु प्रमाण पत्र :

26 अगस्त, 1930 को अदालत ने सुखदेव को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें सुखदेव भगत सिंह, तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।

इसके बाद सुखदेव की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें।

भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर सुखदेव तथा इनके दो साथियों भगत सिह और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे|  जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है

तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”

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फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –

  • मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।
  • मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥

फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया।

और bhagat singh हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे।  इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया| 

Sukhdev Thapar Biography Video –

Sukhdev Thapar Facts –

  • सांडर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया। इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई गई।
  • सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। 
  • सुखदेव के पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे।
  • 7 अक्टूबर 1930 को 300 पृष्ठों के फैसले में सभी सक्ष्यों के आधार पर न्यायालय द्वारा सान्डर्स हत्याकांड के मामले के लिए सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई थी।

Sukhdev Thapar Questions –

1 .सुखदेव की मृत्यु कैसे हुई ?

सुखदेव थापर को फांसी दी गयी थी। 

2 .सुखदेव का जन्म कब हुआ था ?

जन्म 15 मई, 1907  के दिन सुखदेव का जन्म  हुआ था। 

3 .सुखदेव को क्यों दी गई फांसी ?

सांडर्स की हत्या के मामले में सुखदेव को फांसी दी गयी थी। 

4 .सुखदेव की जाति क्या है ?

सुखदेव की जाति की जाती थापर थी। 

5 .कौन हैं राजगुरु और सुखदेव ?

राजगुरु और सुखदेव भारत के क्रन्तिकारी है जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपनी जान देदी थी। 

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निष्कर्ष – 

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Sukhdev Thapar Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने sukhdev thapar in hindi और sukhdev thapar siblings से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Biography of Nana Saheb Peshwa - नाना साहब पेशवा की जीवनी

Nana Saheb Peshwa Biography In Hindi – नाना साहब पेशवा की जीवनी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। आज हम Nana Saheb Peshwa Biography In Hindi , में मराठा साम्राज्य के सबसे प्रभावशाली शासक नानासाहब पेशवा जीवन परिचय देने वाले है। 

शिवाजी के शासनकाल के बाद के नाना साहेब सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक थे। उन्हें बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया था। आज इस आर्टिकल में nana saheb wife ,who was the general of nana saheb और nanasaheb peshwa and yesubai relationship से जुडी सभी जानकारी देने वाले है। नाना साहेब मृत्यु के समय आयु 35 साल थी। 1749 में जब छत्रपति शाहू की मृत्यु हो गई, तब उन्होंने पेशवाओं को मराठा साम्राज्य का शासक बना दिया था।

शाहू का अपना कोई वारिस नही था इसलिए उन्होंने बहादुर पेशवाओं को अपने राज्य का वारिस नियुक्त किया था। नाना साहेब के दो भाई थे, रघुनाथराव और जनार्दन। रघुनाथराव ने अंग्रेज़ों से हाथ मिलकर मराठाओं को धोखा दिया, जबकि जनार्दन की अल्पायु में मृत्यु हो गयी थी। नाना साहेब ने 20 वर्ष तक मराठा साम्राज्य पर शासन किया था। तो चलिए महान राजा की कहानी बताते है। 

Nana Saheb Peshwa Biography In Hindi –

 नाम  नाना साहब पेश्वा
 जन्म  19 मई 1824 (बिठूर)
 पिता   नारायण भट्ट
 माता  गंगा बाई
 तिरोहित (गायब हुए)  1857 (कवनपुर)
 राष्ट्रीयता  भारतीय
 उपाधि  पेशवा
 पूर्वज  बाजीराव द्वितीय
 धर्म   हिन्दू
 दत्तक ग्रहण   बाजीराव ने 1827 में नाना साहिब को गोद ले लिया था।

नाना साहब पेशवा  का जन्म –

नाना साहेब (जन्म १८२४ – १८५७ के पश्चात से गायब) सन १८५७ के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम ‘नाना धुधूपंत’ था।  स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया।(धोंडू पंत) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था।

इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया  और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबंध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया था। दत्तक ग्रहण बाजीराव ने 1827 में नाना साहिब को गोद ले लिया था। 

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नाना साहब पेशवा की शिक्षा – 

पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबंध किया. उन्हें हाथी-घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। निर्वासित मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र के रूप में उन्होंने मराठा महासंघ और पेशवा परंपरा को बहाल करने की मांग की थी।  

नाना साहेब के दो भाई थे, रघुनाथराव और जनार्दन। रघुनाथराव ने अंग्रेज़ों से हाथ मिलकर मराठाओं को धोखा दिया, जबकि जनार्दन की अल्पायु में मृत्यु हो गयी थी। नाना साहेब ने 20 वर्ष तक मराठा साम्राज्य पर शासन किया था । मराठा साम्राज्य के एक शासक होने के नाते, नाना साहेब ने पुणे शहर के विकास के लिए भारी योगदान दिया है । उनके शासनकाल के दौरान, उन्होंने पूना को पूर्णतय एक गांव से एक शहर में बदल दिया था। 

उन्होंने शहर में नए इलाकों, मंदिरों, और पुलों की स्थापना करके शहर को एक नया रूप दे दिया। उन्होंने कटराज शहर में एक जलाशय की स्थापना भी की थी। नाना साहेब एक बहुत ही महत्वाकांक्षी शासक और एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे।

करीबी साथी : – तात्या टोपे और अज़ीमुल्लाह खान

एक नाम बालाजी बाजीराव –

नाना साहेब शिवाजी के शासनकाल के बाद के सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक थे. उन्हें बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया था। 1749 में जब छत्रपति शाहू की मृत्यु हो गई, तब उन्होंने पेशवाओं को मराठा साम्राज्य का शासक बना दिया था. शाहू का अपना कोई वारिस नहीं था। 

इसलिए उन्होंने बहादुर पेशवाओं को अपने राज्य का वारिस नियुक्त किया था।  1741 में,उनके चाचा चिमणजी का निधन हो गया जिसके फलस्वरूप उन्हें उत्तरी जिलों से लौटना पड़ा और उन्होंने पुणे के नागरिक प्रशासन में सुधार करने के लिए अगला एक साल बिताया। डेक्कन में, 1741 से 1745 तक की अवधि को अमन और शांति की अवधि माना जाता था। इस दौरान उन्होंने कृषि को प्रोत्साहित किया, ग्रामीणों को सुरक्षा दी और राज्य में काफी सुधार किया।

Nana Saheb Peshwa अंग्रेज़ों के शत्रु –

लॉर्ड डलहौज़ी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहब को 8 लाख की पेन्शन से वंचित कर, उन्हें अंग्रेज़ी राज्य का शत्रु बना दिया था। nana saheb peshwa ने इस अन्याय की फरियाद को देशभक्त अजीम उल्लाह ख़ाँ के माध्यम से इंग्लैण्ड की सरकार तक पहुँचाया था लेकिन प्रयास निस्फल रहा।

अब दोनों ही अंग्रेज़ी राज्य के विरोधी हो गये और भारत से अंग्रेज़ी राज्य को उखाड़ फेंकने के प्रयास में लग गये। 1857 में भारत के विदेशी राज्य के उन्मूलनार्थ, जो स्वतंत्रता संग्राम का विस्फोट हुआ था, उसमें नाना साहब का विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा था। 1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ था। 

क्रांतिकारी सेनाओं नेतृत्व :-

उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रांतिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनंतर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया।

nana saheb peshwa एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखंड की ओर चले गए। रुहेलखंड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता था ।

जब बरेली में भी क्रांतिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। अंग्रेज सरकार ने nana saheb peshwa को पकड़वाने के निमित्त बड़े बड़े इनाम घोषित किए किंतु वे निष्फल रहे। सचमुच नाना साहब का त्याग एवं स्वातंत्र्य, उनकी वीरता और सैनिक योग्यता उन्हें भारतीय इतिहास के एक प्रमुख व्यक्ति के आसन पर बिठा देती है। 

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20 साल तक मराठा साम्राज्य पर किया शासन –

नाना साहेब के दो भाई थे रघुनाथराव और जनार्दन. रघुनाथराव ने अंग्रेज़ों से हाथ मिलकर मराठाओं को धोखा दिया, जबकि जनार्दन की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी थी. नाना साहेब ने 20 वर्ष तक मराठा साम्राज्य पर शासन किया (1740 से 1761)

कवनपुर की घेराबंदी :-

1857 में जब कवनपुर की घेराबंदी कर ली, तो घिरे हुए अंग्रेज़ों ने नाना साहेब के नेतृत्व वाली भारतीय सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। खबर उड़ती-उड़ती नाना साहेब के पास पहुंची, तो इन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी. नाना साहेब ने नेतृत्व संभाला और अंग्रेजों को कानपुर छोड़कर भागना पड़ा. हालांकि अंग्रेज जल्द ही एकत्रित हो गए और उन्होंने फिर एक बार कानपुर में वापसी की थी। 

Nana Saheb Peshwa विद्वानों के मतभेद –

कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार, महान् क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में न होकर, गुजरात के ऐतिहासिक स्थल ‘सिहोर’ में हुआ। सिहोर में स्थित ‘गोमतेश्वर’ स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर, दिल्ली, पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र, तथा भवानी तलवार,

नाना साहब की पोथी, पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उनकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है। सिहोर, गुजरात के स्वामी ‘दयानन्द योगेन्द्र’ नाना साहब ही थे। 

जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना न होने पर 1865 को सिहोर में सन्न्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और मेहता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ। नाना साहेब का दूसरा नाम ‘धोंडूपंत था। 

सतीचौरा घाट नरसंहार –

27 जून 1857, महिलाओं और बच्चों सहित करीब 300 ब्रिटिश को सतीचौरा घाट पर मौत के घाट उतार दिया था। ऐसे हुआ था बीबीघर काण्ड नानाराव पार्क में मौजूद बीबीघर के इस विशाल कुएं के अंदर 200 से ज्यादा अंग्रेजी महिलाओं और उनके मासूम बच्चो को क्रांतिकारियों के इशारे पर काटकर डाल दिया गया था।

वहीं, बीबीघर के इस कुएं से 10 कदम के दूरी पर मौजूद एक बरगद के पेड़ पर सैकड़ो क्रांतिकारियों को अंग्रेजो ने ज़िंदा फांसी पर लटका कर बीबीघर काण्ड का बदला लिया था। 14 मई 1857 की दोपहर को दर्जनों नाव में अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार के सदस्य इलाहाबाद जाने के लिए नाव पर सवार हो रहे थे।

एक ग़लतफ़हमी की वजह से एक अंग्रेज अधिकारी अचानक से गोली चलाने लगता है, जिसमे कई क्रांतिकारियों को गोली लग जाती है। इसके बाद वहा मौजूद क्रांतिकारियों ने अंग्रेजो के नाव पर धावा बोल नाव पर सवार एक-एक अंग्रेजों के मौत के घाट उतार दिए गए। सभी अंग्रेजी महिलाओं और उनके बच्चो को नानाराव पार्क के बीबीघर रहने के लिए भेज दिया गया। सतीचौरा घाटकाण्ड के बाद बौखलाए अंग्रेजी हुकूमत ने धीरे-धीरे कानपुर को चारों तरफ से घेरना शुरू किया।

विद्रोहियों के पांव उखड़ने लगे :-

नाना साहब बिठूर छोड़ अंडरग्राउंड हो गए। तात्याटोपे एमपी की तरफ पलायन कर जाते है। इसी बीच 15 जुलाई 1857 को देर शाम बीबीघर में रह रही सभी महिलाओं और अबोध बच्चो के मौत के घाट उतार कर 16 जुलाई 1857 की सुबह इस कुएं में डाल दिया जाता है।

बीबीघर काण्ड का आरोप नानाराव पर आया। इस काण्ड के बाद नानाराव अंग्रेजी हुकूमत के सबसे बड़े विलेन बन गए। इस घटना के बाद अंग्रेजो को जिसके ऊपर शक होता है, उस क्रांतिकारी के मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस दौरान कानपुर के आसपास के कई गांवो में आग लगा दिया। सड़क के किनारे पेड़ों पर क्रांतिकारियों के मारकर लटका दिए गए।

इसके साथ ही बीबीघर काण्ड के पीछे किसका हाथ था ये आज भी रहस्य है। अंग्रेजो का आरोप था कि इसे नानाराव ने कानपुर से भागते समय आदेश दिया था, जबकि कुछ लोगों का कहना था कि तात्याटोपे के इशारे पर इस नरसंहार को अंजाम दिया गया था। 

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सत्ती घाट नरसंहार से दुश्मनी और गहराई –

नाना साहेब और ब्रिटिश सेना के बीच की इस लड़ाई ने सत्ती चोरा घाट के नरसंहार के बाद और भी गंभीर रुख अख्तियार कर लिया था। दरअसल, साल 1857 में एक समय पर नाना साहेब ने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ समझौता कर लिया था, मगर जब कानपुर का कमांडिंग ऑफिसर जनरल विहलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तो नाना साहेब के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया और सैनिकों समेत महिलाओ और बच्चों का कत्ल कर दिया। 

इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के खिलाफ हो गए और उन्होंने नाना साहेब के गढ़ माने जाने वाले बिठूर पर हमला बोल दिया। हमले के दौरान नाना साहेब जैसे-तैसे अपनी जान बचाने में सफल रहे. लेकिन यहां से भागने के बाद उनके साथ क्या हुआ यह बड़ा सवाल है. इसे लेकर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह भागने में सफल हो गए थे और अंग्रेजी सेना से बचने के लिए भारत छोड़कर नेपाल चले गए। 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम –

1857 के स्वाधीनता संग्राम की योजना बनाने वाले, समाज को संगठित करने वाले,अंग्रेजी सरकार के भारतीय सौनिकों में स्वाधीनता संग्राम में योगदान देने के लिए तैयार करने वाले प्रमुख नेता थे नाना साहब पेशवा। उनमें प्रखर राष्ठ्रभक्ति थी, असीम पौरूष था, तथा सम्पर्क साधन करने का इतना कौशल्य तथा वाणी की इतनी मधुरता थी कि अंग्रेज सत्ताधारी लोग उनकी योजना की जानकारी अपने गुप्तचरों के द्वारा भी लम्बे समय तक न जान सके। 

यह कार्य इतनी कुशलता के किया गया कि लम्बे समय तक अंग्रेज लोग उन्हें अपना सहयोग व हितकारी मानते रहे। नाना साहब पेशाव का जन्म, महाराष्ट्र के अन्दर माथेशन घाटी में वेणु नामक एक छोटे से ग्राम में हुआ था। यह गाँव इस समय अहमदनगर जिले के कर्जत नामक तहसील में हैं। इनका जन्म 16 मई 1825 को रात्रि के आठ व नौ बजे के मध्य में हुआ था। कुछ लोगों का मत है कि इनका जनम 1824 में हुआ था। उनके पिता का नाम माधवराव नारायण भट्ट था। व माँ का नाम गंगाबाई था।

बचपन में नाना साहब का नाम गोविन्द घोंड़ोपन्त था। बचपन में ही इन्होंने तलवार व भाला चलाना शीघ्र ही सीख लिया था। दूर-दूर तक वे स्वयं घुड़सवारी भी करते थे। उनका परिवार अत्यन्त साधारण था परन्तु उनके पिता श्रद्धेय बाजीराव पेशाव के संगोत्रीय थे। सन 1816 में यह परिवार बाजीराव पेशवा के साथ ब्रह्मावर्त आ गया था 1857 की क्रांति के हीरो की मौत का रहस्य आज भी अज्ञात ही रहा है। 

Nana Saheb Peshwa 1857 गदर के हीरो –

1857 में जब मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की. क्रांति प्रारंभ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्ध सामग्री प्राप्त की. कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांतिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई थी। 

आज हम ऐसे क्रांतिकारी की बात करने जा रहे हैं, जिनकी मौत को लेकर आज भी इतिहासकार किसी नतीजे पर नहींं पहुंच पाए हैं। ये बात है 1857 की, जब अंग्रेजों के खिलाफ देश में विद्रोह की ज्वाला भड़की थी और ऐसे में एक ‘पेशवा’ ने महाराष्ट्र के मराठा दुर्ग से दूर कानपुर से क्रांति का बिगुल फूंका था। 

ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दुख हुआ. एक तो वैसे ही उनके मराठा साम्राज्य पर अंग्रेज अपनी हुकूमत जमा कर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था। 

नाना साहब पेशवा के बेटे की मृत्यु –

1761 में, पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगानिस्तान के एक महान योद्धा अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ मराठाओं की हार हुई थी मराठों ने उत्तर में अपनी शक्ति और मुगल शासन बचाने की कोशिश की थी। लड़ाई में नानासाहेब के चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ (चिमाजी अप्पा के पुत्र), और उनके सबसे बड़े पुत्र विश्वासराव मारे गए थे. उनके बेटे और चचेरे भाई की अकाल मृत्यु उनके लिए एक गंभीर झटका थी। 

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NanaSaheb Peshwa Death (नाना साहब पेशवा की मृत्यु )

नान के बेटे के बाद नाना साहेब भी ज़्यादा समय के लिए जीवित नहीं रहे. जिस समय नाना साहब नेपाल स्थित ‘देवखारी’ नावक गांव में, दल-बल सहित पड़ाव ड़ाले हुए थे, वह भयंकर रूप से बुख़ार से पीड़ित हो गए और केवल 34 वर्ष की अवस्था में 6 अक्टूबर, 1858 को मृत्यु की गोद में सो गये। उनका दूसरा बेटा माधवराव पेशवा उनकी मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा था। 

Nana Saheb Peshwa History Video –

Nana Saheb Peshwa Facts –

  • नाना साहेब को हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया था।
  • स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया था। 
  • छत्रपति शाहू का अपना कोई वारिस नहीं था। इसलिए उन्होंने बहादुर नाना साहेब पेशवा को अपने राज्य का वारिस नियुक्त किया था। 
  • लॉर्ड डलहौज़ी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहब को 8 लाख की पेन्शन से वंचित कर, अंग्रेज़ी राज्य का शत्रु बना दिया था।

नाना साहब पेशवा के प्रश्न –

1 .नाना साहेब का जन्म कब हुआ था ?

19 मई 1824 भारत के बिठूर नाना साहेब का जन्म जन्म हुआ था। 

2 .नाना साहेब की मृत्यु कब हुई ?

6 अक्टूबर, 1858 के दिन नाना साहेब की मृत्यु हुई थी। 

3 .नाना साहेब का जन्म कहां हुआ था ?
19 मई 1824 के दिन नाना साहेब का जन्म बिठूर में हुआ था। 

4 .नाना साहेब की मृत्यु कैसे हुई थी ?

भयंकर रूप से बुख़ार से पीड़ित होजाने की वजह से नाना साहेब की मृत्यु हुई थी। 

5 .नाना साहब का पूरा नाम क्या था ? 

उनका बचपन का नाम धुधूपंत और दूसरा नाम बालाजी बाजीराव था। 

6 .नाना साहब कहाँ के रहने वाले थे?

कानपुर के बिठूर के रहने वाले थे नाना साहब। 

7 .नाना साहब कहां के राजा थे ?

मराठा साम्राज्य के शासक नाना साहब थे। 

8 .नाना साहब की पुत्री कौन थी ?

Baya Bai नाम की नाना साहब की पुत्री थी।

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Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Nana Saheb Peshwa Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने nana sahib death और who was the general of nana saheb से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है। अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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द्रितीय विश्व युद्ध 1939 -1945 की पूरी जानकारी हिंदी - Thebiohindi

Second World War In Hindi – द्रितीय विश्व युद्ध 1939 -1945 की पूरी जानकारी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Second World War In Hindi में लगभग 70 देशों की थल-जल-वायु सेनाएँ इस युद्ध में सम्मलित थीं इसकी माहिती बताने वाले है। 

इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा हुआ था  ,मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र  इस युद्ध के दौरान पूर्ण युद्ध का मनोभाव प्रचलन में आया क्योंकि इस युद्ध में लिप्त सारी महाशक्तियों ने अपनी आर्थिक, औद्योगिक तथा वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में झोंक दी थी। आज हम आर्थिक मंदी क्या है आर्थिक मंदी के प्रमुख कारण क्या थे ? ,द्वितीय विश्व युद्ध और भारत और महामंदी का अर्थ बताएँगे। 

इस युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों के लगभग 10 करोड़ सैनिकों ने हिस्सा लिया, तथा यह मानव इतिहास का सबसे ज़्यादा घातक युद्ध साबित हुआ। इस महायुद्ध में 5 से 7 करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार- जिसमें होलोकॉस्ट भी शामिल है- तथा परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल शामिल है (जिसकी वजह से युद्ध के अंत मे मित्र राष्ट्रों की जीत हुई)। इसी कारण यह मानव इतिहास का सबसे भयंकर युद्ध था।

Second World War In Hindi –

लगभग बीस वर्षों की ‘शांति’ के बाद 1 सितम्बर, 1939 के दिन युद्ध की अग्नि ने फिर सारे यूरोप को अपनी लपटों में समेट लिया और कुछ ही दिनों में यह संघर्ष विश्वव्यापी हो गया। विगत दो शताब्दियों के इतिहास के अध्ययन के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि शांति स्थापित रखने के अथक प्रयासों के बाद भी द्वितीय-विश्व युद्ध क्यों छिड़ गया? क्या संसार के लागे और विविध देशों के शासक यह चाहते थे? नहीं; यह गलत है।

समूचे संसार में शायद कोई भी समझदार व्यक्ति ऐसा नहीं था जो युद्ध की कामना करता हो। ‘बच्चे-बूढ़े स्त्री-पुरूष तथा सभी वगर् की जनता शांति चाहती थी। इसी तरह यूरोप की कोई सरकार युद्ध नहीं चाहती थी। यहाँ तक कि जर्मन सरकार भी युद्ध से बचना चाहती थी। स्वयं हिटलर भी युद्ध नहीं चाहता था। अन्तिम समय तक हिटलर का यही विचार था कि संकट पैदा करके, धाँस देकर, डरा-धमकाकर पोलैंड से डान्जिंग छीन लिया जाय।

वह जानता था कि युद्ध से उसका सर्वनाश हो जायगा। बिना युद्ध किये ही विजय हासिल कर लेना उसकी चाल थी। वास्तव में ‘युद्ध के बिना विजय’ के सिद्धांत पर ही उसकी सारी मान-मर्यादा निर्भर थी। पर ऐसा न हो सका। किसी की इच्छा नहीं होने पर भी युद्ध छिड़ गया। ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए कानै जिम्मेदार था ?

द्रितीय विश्व युद्ध में वर्साय की संधि –

सन 1919 के पेरिस-शांति सम्मेलन में शांति का महल नहीं खड़ा किया जा सकता था। उस समय यह आम विश्वास था कि वर्साय-संधि के द्वारा एक ऐसे विष वृक्ष के बीज का आरोपण किया गया है। जो कुछ ही समय में एक विशाल संहारक वृक्ष के रूप में खड़ा हो जायगा और उसका कटु फल सभों को बुरी तरह चखना पड़गे ा। कहा जाता था कि विलसन के आदर्शवादी सिद्धांत के आधार पर वर्साय-व्यवस्था की स्थापना हुई थी लेकिन यह वार्ता सर्वथा गलत है।

विलसन के आदर्शों को किसी भी स्थान पर नहीं अपनाया गया था। पराजित राज्यों के सम्मुख ‘आरोपित संधियों’ को स्वीकार करने के सिवा कोई चारा नहीं था। उनके लिए यही बुद्धिमानी थी कि वे आँख मीचकर कठोर संधि के कड़वे घूँट को चुपचाप कण्ठ से नीचे उतार ले। लेकिन, यह स्थिति अधिक दिनों तक टिकने वाली नहीं थी।

यह निश्चित था कि कभी-न-कभी वह समय अवश्य आयगा जब जर्मनी एक शक्तिशाली राज्य बनेगा और वर्साय के घोर अपमान का बदला अपने शत्रुओं से लेगा। विजय के मद में चूर मित्रराष्ट्रों ने इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं दिया कि जर्मनी के साथ इस प्रकार का दुव्र्यवहार करके भविष्य के लिए कितने खतरनाक कांटे बो रहे हैं। वर्साय-व्यवस्था की एक दूसरी कमजोरी भी थी। उसके द्वारा यूरोप में अनेक ‘खतरा केन्द्रों’ का निर्माण हुआ था।

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Second World War यूरोप के टुकड़े –

कहा जाता है कि इस व्यवस्था के कारण यूरोप का ‘बाल्कनीकरण’ हो गया। झूठी राष्ट्रीयता के नाम पर यूरोप के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये और पुराने साम्राज्यों के स्थान पर असंख्य छोटे-छोटे राज्य पैदा हो गये। प्राय: ये सब राज्य भविष्य के खतरे के तूफानी केन्द्र थे। इनके अतिरिक्त वर्साय-व्यवस्था के द्वारा सुडेटनलैंड, डान्जिग, पोलिश गालियारे जैसे असंख्य एल्सस-लोरेन पैदा हो गये थे।

यह निश्चित था कि उपयुक्त समय आने पर इन खतरनाक केन्द्रों में संकट उपस्थित होंगे  अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर उनका बहुत बुरा असर पड़ेगा लेकिन 1919 के अदूरदश्री राजनेता शायद इसकी कल्पना नहीं कर सके। हिटलर के उत्कर्ष में इस बात से बड़ी मदद मिली थी। अतएव यदि वर्साय-व्यवस्था को युद्ध का एक कारण माना जाय तो कुछ गलत न होगा।

ब्रिटेन की संधि –

Second World War – इसमें कोई शक नहीं कि जर्मनी से शक्ति-संतुलन का सिद्धांत ब्रिटिश विदेश-नीति का एक महत्वपूर्ण तत्व रहता आया है। पर युद्धोत्तर-काल की ब्रिटिश नीति में इस तत्व पर अधिक जोर देना इतिहास के साथ अन्याय करना होगा। वास्तव में इस काल की ब्रिटिश विदेश-नीति में शक्ति संतुलन का सिद्धांत उतना प्रबल नहीं था जितना रूसी साम्यवाद के प्रसार को रोकने का प्रश्न था।

जिस ब्रिटिश-नीति को तुष्टिकरण की नीति कहा जाता है, वह वास्तव में ‘प्रोत्साहित करो की नीति’ थी। साम्राज्यवादी ब्रिटेन की सबसे बड़ी समस्या जर्मनी नहीं, वरन साम्यवादी प्रसार को रोकना था।  द्रितीय विश्व युद्ध 1939 -1945 की पूरी जानकारी हिंदी इस काल में ब्रिटेन में नीति-निर्धारिकों का यह अनुमान था कि एशिया में जापान और सोवियत-संघ तथा यूरोप में जर्मनी और सोवियत-संघ भविष्य के वास्तविक प्रतिद्वन्द्वी हैं।

अगर इन शक्तियों को आपस में लड़ाता रहा जाय और इस तरह एक दूसरे पर रूकावट डालते रहे तो ब्रिटेन निर्विरोध अपने विश्वव्यापी साम्राज्य को कायम रखे रह सकता है। ब्रिटेन की नीति यह थी कि फ्रांस के साथ असहयोग करके, उस पर दबाव डालकर हिटलर, मुसोलिनी और हिरोहितों को साम्यवादी रूस के खिलाफ उभाड़ा जाय और उसकी सहायता करके साम्यवादी रूस का विनाश करवा दिया जाय। इनमें शक्ति-संतुलन का कोई सिद्धांत काम नहीं कर रहा था।  क्योंकि सोवियत-संध अभी बहुत कमजोर था।

ब्रिटिश शासकों  की निति –

ब्रिटिश शासकों की यह नीति गलत तर्क पर आधारित थी। उसका कारण यह था कि उस समय ब्रिटेन की नीति का निधार्र ण कुछ अनुभवहीन तथा कट्टर साम्यवाद विरोधी व्यक्तियों के हाथ में था। कर्नलब्लिम्प, चैम्बरलेन, बैंक ऑफ इंगलैंड के गवर्नर मांग्टेग्यू नारमन, लार्ड वेभरबु्रक, जेकोव अस्टर (लन्दन टाइम्स) तथा गारविन (ऑवजर्बर) जैसे पत्रकार, डीन इक जैसे लेखक, कैन्टरबरी के आर्चविशप तथा अनेक पूंजीपति, सामन्त, जमींदार और प्रतिक्रियावादी इस गुट के प्रमुख सदस्य थे और इन्हीं लोगो के हाथों में ब्रिटेन के भाग्य-निर्धारण का काम था।

जिसे देश के नीति-निर्धारण में ऐसे लोगों का हाथ हो वहां की नीति साम्यवादी विरोध नहीं तो और क्या हो सकती थी? चैम्बरलेन इस दल का नेता था, इन लोगों के हाथ की कठपतु ली। मई, 1937 में चेम्बरलने ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना। तथाकथित तुष्टिकरण की नीति की वह प्रतिमूर्ति ही था। चेकोस्लोवाकिया का विनाश उसने इसी उद्देश्य से कराया कि इससे हिटलर प्रोत्साहित होकर सोवियत-संध पर चढ़ाई कर बैठेगा।

इसी भवना से प्रेरित होकर वह पोलैंड के विनाश में भी अपना सहयोग देने को तैयार था। किन्तु हिटलर के जिद्द के कारण वह अपने इस कुकार्य में सफल नहीं हो सका। उसकी गलत नीति का परिणाम सारे संसार को भुगतना पड़ा।

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राष्ट्रसंघ में सभी देशो का उल्लंघन –

Second World War – राष्ट्रसंघ के विधान पर हस्ताक्षर करके सभी सदस्य-राज्यों के वादा किया था कि वे सामूहिक रूप से सब की प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा करेगेंं लेकिन जब मौका आया तब सब-के सब पीछे हट गय। जापान, चीन को और इटली अबीसीनिया को रौंदता रहा। दोनों आक्रान्त देश राष्ट्रसंघ के सदस्य थे, पर किसी ने कुछ नहीं किया। इसके बाद चेकोस्लोवाकिया की बारी आयी। फ्रांस चेकोस्लोवाकिया की रक्षा करने के लिए वचनबद्ध था।

लेकिन जब समय आया तो वह अपने मित्र को बचाने तो नहीं ही गया, उल्टे उसके विनाश में सहायक हो गया। म्यूि नख समझातै के बाद ब्रिटेन और फ्रांस परिवर्तित चेक-सीमा की गारण्टी दिये हुए थे। पर जब हिटलर बचे हुए चेक-राज्य को भी हड़पने लगा तो किसी ने उसका विरोध नहीं किया। इससे बढ़कर विश्वासघात और क्या हो सकता से आक्रामक प्रवृत्तियों को काफी प्रोत्साहन मिला।

जापान ने चीन पर आक्रमण किया और उसे कोई दण्ड नहीं मिला। मुसोलिनी को इससे प्रोत्साहन मिला और उसने अबीसीनिया पर चढ़ाई कर दी। अबीसीनिया पर आक्रमण करने वाले को कोई दण्ड नहीं मिला। इसलिए हिटलर ने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया। आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण का भी विरोध नहीं किया गया।

फिर इस कमजोरी से लाभ उठाकर हिटलर ने पोलैंड पर चढ़ाई कर दी। अगर सभी राष्ट्र अपने दिये गये वचनों का पालन करते रहते और आक्रामक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन नहीं मिलता और दूसरा विश्व-युद्ध नहीं होता।

यूरोपीय गुटबन्दियां –

आधुनिक युग में दुनिया के अधिकतर लोगों के मन में यह एक अंधविश्वास जम गया है कि सैन्य-संधि तथा गुटबंदी के द्वारा विश्व-शांति कायम रखी जा सकती है। शांति बनाये रखने के नाम पर यूरोपीय राज्यों के बीच विविध संधियां हुई जिसके फलस्वरूप यूरोप फिर से दो विरोधी गुटों में बट गया। एक गुट का नेता जर्मनी था और दूसरे का फ्रांस।

यहां पर यह स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं कि इन गुटों के मलू में दो बातें थी। एक सैद्धांति समानता और दूसरी हितों की एकता। इटली, जापान और जर्मनी एक सिद्धांत (तानाशाही) में विश्वास करते थे। वर्साय-संधि से उनकी समान रूप से शिकायत थी और उसका उल्लंघन करके अपनी शक्ति को बढ़ाने में उनका एक समान हित था इसके विपरीत फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड इत्यादि देशों का एक हित था।

द्वितीय विश्व-युद्ध का बहुत बड़ा कारण –

वर्साय-व्यवस्था से उन्हें काफी लाभ पहुँचा था और इसलिए यथास्थिति बनाये रखने में ही उनका हित था। बहुत दिनों तक ब्रिटेन इस गुट में शामिल नहीं हुआ; पर अधिक दिनों तक ब्रिटेन गुट से अलग नहीं रह सका। परिस्थिति से बाध्य होकर उसे भी इस गटु में सम्मिलित होना पड़ा। उधर रूस की स्थिति कुछ दूसरी ही थी। साम्यवादी होने के कारण पूंजीवादी और फासिस्टवादी दोनों गुट उससे घृणा करते थे और कोई उसको अपने गुट में सम्मिलित करना नहीं चाहता था।

पर, जब यूरोप की स्थिति बिगड़ने लगी तो दोनों गुट उसे अपने-अपने गुट में शामिल करने के लिए प्रयास करने लग।े अंत में जर्मनी को इस प्रयास में सफलता मिली और सोवियत-संघ उसके गुट में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप यूरोप का वातावरण दूषित होने लगा तथा राष्ट्रों के बीच मनमुटाव पैदा होने लगा। राष्ट्रों के परस्पर संबंध बिगड़ने में इन गुटबंदियों का बहुत हाथ था। इस दृष्टि से गुटबंदियां द्वितीय विश्व-युद्ध का बहुत बड़ा कारण थी।

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हथियार निर्माण की प्रतिस्पर्धा –

जब राष्ट्रों के बीच मनमुटाव पैदा होने लगता है, एक देश, दूसरे देश से सशंकित होने लगता है तो वे अपनी सुरक्षा के प्रबंध में जुट जाते हैं। इस अवस्था में सुरक्षा का एकमात्र उपाय हथियारबन्दी समझा जाता है। जो राष्ट्र जितना अधिक शक्तिशाली होगा, जिसके पास जितनी अधिक सेना रहेगी, वह अपने को उतना ही अधिक बलवान समझता है। इस सिद्धातं में यूरोप के सभी राज्य विश्वास करते थे।

Second World War के बाद जर्मनी यद्यपि बिल्कुल पस्त पड़ा हुआ था, फिर फ्रांस को जर्मनी से काफी डर था। इसलिए वह हथियारबंदी में हमेशा लगा रहता था। युद्ध के बाद भी वह सैनिक शक्ति में सर्वप्रथम स्थान रखता था। हर वर्ष उसका सैनिक बजट बढ़ता ही जाता था। प्रथम महायुद्ध में फ्रांस की सीमा को जर्मनी बड़ी आसानी से पार कर गया था। अत भावी जर्मन आक्रमण से बचने के लिए फ्रांस ने 1937 में स्विटजरलैंड की सीमा से किलों की एक श्रृंखला तैयार की जिसको मैगिनो लाइन कहते है।

ब्रिटेन में हथियार बंदी –

1933 में जब संसार की स्थिति काफी बिगड़ गयी तो ब्रिटेन में भी हथियारबंदी शुरू हो गयी। फ्रांस के साथी देशों में यह क्रम पहले से ही जारी था। ब्रिटेन का अनुकरण करते हुए वे देश भी हथियारबंदी करने लग,जो अभी तक चुप बठै थे। इस समय तक जर्मनी में नात्सी-क्रांति हो चुकी थी। हिटलर ने वर्साय की संधि की उस शर्त को जिसके द्वारा जर्मनी पर सैनिक पाबंदियां लगा दी गयी थीं, सबसे पहले मानने से इनकार कर दिया और जारे -जोर से हथियारबंदी करने लगा।

कुछ ही दिनों में जर्मनी की सैन्य-शक्ति भी काफी बढ़ गयी। उसकी थल-सेना और वायु-सेना संसार की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति थी। फ्रांस की मैगिनो लाइन के जवाब में उसने भी एक समानन्तर सीगफ्रीड लाइन बनायी, जो किसी भी स्थिति में फ्रांस की किलेबंदी से कम नहीं थी। इस प्रकार देखते-देखते सारा यूरोप एक शस्त्रागार हो गया। सभी देशों में सैनिक-सेवा अनिवार्य कर दी गई। राष्ट्रीय बजट का अधिकांश बजट सेना पर खर्च होता था।

वर्षों तक राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में इस बात का प्रयास होता रहा कि हथियारबंदी की होड़ रूक जाय। लेकिन, राष्ट्रसंघ को सफलता नहीं मिली और यूरोप में शस्त्रीकरण की दौड़ होती रही। इस सैनिक तैयारी यही निष्कर्ष निकलत है कि शस्त्रनिर्माण की प्रतिस्पर्धा द्वितीय विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण था।

राट्र संघ की कमजोरिया –

प्रथम विश्व-युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी कि वह संसार में शक्ति कामय रखेगा। लेकिन, जब समय बीतने लगा और परीक्षा का अवसर आया तो राष्ट्रसंघ एक बिल्कुलन शक्तिहीन संस्था साबित हइुर् । जहां तक छोटे-छोटे राष्ट्रों के पारस्परिक झगड़ों का प्रश्न था राष्ट्रसंघ को उनमें कुछ सफलता मिली, लेकिन जब बड़े राष्ट्रों का मामला आया तो राष्ट्रसंघ कुछ भी नहीं कर सका।

जापान ने चीन पर चढ़ाई कर दी और इटली ने असीसीनिया पर हमला किया, पर राष्ट्रसंघ उनको रोकने में बिल्कुल असमर्थ रहा। अधिनायकी को पता चला कि राष्ट्रसंघ बिल्कुल शक्तिहीन संस्था है और वे जो चहे कर सकते हैं। पर, राष्ट्रसंघ की असफलता के लिए उस संस्था को दोष देना ठीक नहीं है। राष्ट्रसंघ राष्ट्रों की एक संस्था थी और यह उनका कर्तव्य था कि वे उस संस्था को सफल बनायें। राष्ट्रसंघ ने अबीसीनिया पर आक्रमण करने के अपराध में हटली को दण्ड दिया।

इसके विरूद्ध आर्थिक पाबन्दियां लगायी गयीं लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस ने इसमें राष्ट्रसंघ के साथ सहयागे नहीं किया। राष्ट्रसंघ की निष्क्रियता के जो भी कारण हो, लेकिन उस पर से लोगों का विश्वास जाता रहा और जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना हुई थी उसकी पूर्ति करने में वह सर्वथा असफल रहा। इसीलिए राष्ट्रसंघ की कमजोरियों को भी द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए उत्तरदायी माना जाता है।

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Second World War Events –

पोलैण्ड का युद्ध :

1 सितम्बर 1937 ई. को जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया, क्योंकि उसने उसकी अनुचित माँगां े को स्वीकार नहीं किया था। जर्मनी ने पोलैण्ड पर जल, थल और वायु सेना से आक्रमण किया। पोलैण्ड की सेना जर्मनी को सेना का सामान करने में असमर्थ रही। पंद्रह दिन में जर्मन सेना का पोलैण्ड की राजधानी बारसा पर अधिकार हो गया। एक समझौते द्वारा दोनों ने पोलैण्ड का विभाजन स्वीकार किया।

रूस का फिनलैण्ड पर आक्रमण :

Second World War – रूस फिनलैण्ड पर अधिकार करना चाहता था। उसने फिनलैण्ड की सरकार से बंदरगाह और द्वीप माँगे और जब उसने उनको देने से इंकार किया तो रूस ने 30 नवम्बर 1936 ई. को फिनलैण्ड पर आक्रमण कर उसको अपने अधिकार में किया।

नार्वे और डेनमार्क पर आक्रमण

9 अपै्रल 1940 ई. को जर्मनी ने नार्वे पर आक्रमण कर उसके कई बंदरगाहों पर आक्रमण किया और वहाँ एक नई सरकार का संगठन किया। इसी दिन जर्मनी ने डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन पर भी अधिकार कर लिया। इन विजयों का परिणाम यह हुआ कि इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री चेम्बरलेन को त्याग-पत्र देना पड़ा और उसके स्थान पर चर्चिल इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बना।

हॉलैण्ड और बेल्जियम का पतन :

10 मई 1940 ई. को जर्मनी ने हॉलैण्ड पर आक्रमण किया। 19 मई को डच सेनाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। हॉलैण्ड पर जर्मनी का अधिकार हो गया। हॉलैण्ड के साथ-साथ जर्मनी ने बेल्जियम पर भी आक्रमण किया बेल्जियम की रक्षार्थ ब्रिटिश सेनायें बेल्यिजम में प्रवेश करने गयी थीं इसी समय उसने फ्रांस पर भी आक्रमण कर दिया था। जर्मनी ने बेि ल्जयम के कई नगरों पर आक्रमण किया। 27 मई को बेल्जियम की सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा।

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फ्रांस की पराजय

3 जून 1940 ई. को जर्मनी ने तीन ओर से फ्रांस पर आक्रमण किया। 3 जून को उसने फ्रांस की रक्षा पंक्ति को तोड़ डाल और चारों ओर से पेरिस नगर पर आक्रमण किया। 10 जून को इटली ने फ्रांस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की और फ्रांस पर आक्रमण किया। 19 जून को जर्मनी की सेना का पेरिस नगर पर अधिकार हुआ। 22 जून को फ्रांस ने आत्मसमर्पण किया और युद्ध विराम संधि हुई।

यूगोस्लाविया और यूनान की पराजय :

Second World War – 28 अक्टूबर को हिटलर का ध्यान ईरान और मिश्र की ओर आकर्षित हुआ। उसने 28 अक्टूबर 1940 ई. को ग्रीस को यह संदेश भेजा कि वह अपने कुछ प्रदेश जर्मनी को प्रदान करे। ग्रीस अभी तक भी समझ नहीं कर पाया था कि उस पर आक्रमण कर दिया गया है। इटली की सेना ने उस पर आक्रमण किया। ग्रीस ने बड़ी वीरता से उसका सामना किया।

बाद में उसकी सहायता के लिए जर्मन सेना आई। इसी बीच में जर्मनी ने हंगरी, रूमानिया और बल्गारिया से संधि की। यूगोस्लाविया ने संधि करने से इंकार कर दिया। 6 अप्रैल, 1941 को जर्मनी ने यूगोस्लाविया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की और 11 दिन के युद्ध के पश्चात् जर्मनी विजयी हुआ। इससे निश्चित होकर हिटलर ने ग्रीस पर भीषण आक्रमण किया गया।

ब्रिटेन ने यूनान की सहायता की, किंतु जर्मनी विजयी हुआ। उसने 21 अप्रैल को हथियार डाल दिये। जर्मनी का अधिकार एथेसं पर 26 अप्रैल को हुआ। 20 मई को जर्मनी ने कीट द्वीप पर अधिकार किया। इस प्रकार पूर्वी भूमध्यसागर पर जर्मनी और इटली का अधिकार पूर्णतया स्थापित हो गया।

जापान और अमेरिका का युद्ध में प्रवेश

Second World War- जापान समस्त एशिया को अपने अधिकार में करना चाहता था। दिसम्बर 1940 को उसने हवाई सेना द्वारा पर्ल हार्बर पर आक्रमण किया। इस आक्रमण से अमेरिका को बहुत क्षति हुई। जापान ने शीघ्र ही शंघाई, हांगकांग मलाया और सिंगापुर पर भी हवाई आक्रमण किये और अंग्रेजों के दो विशाल जंगी जहाजों को डुबा दिया। जापान ने फिर फिलीपाइन द्वीप समूह पर आक्रमण किया और उस पर अपना अधिकार स्थापित किया।

इसके बाद हांगकागं पर जापान का अधिकार हो गया। इसे बाद जापानियों ने मलाया होकर सिंगापुर पर अधिकार किया। कुछ ही समय में जापानियों ने सुमात्रा, जाघा, बोर्निया तथा बाली, आदि द्वीपों पर अधिकार किया। उन्होनें 8 मार्च 1942 ई. को रंगून पर अधिकार किया। उन्होंने न्यूगाइना द्वीप पर भी अपना अधिकार किया।

बर्मा पर अधिकार करने के उपरातं उन्होनें भारत पर उत्तर-पूर्व की ओर आक्रमण किया, किंतु उनकी सफलता प्राप्त नहीं हुर्इं बाद में बर्मा पर ब्रिटेन और अमेि रकन सेनाओं ने अधिकार किया। फिलिपाइन्स पर भी अमेरिका ने अधिकार किया और जापान की पराजय होनी आंरभ हो गई।

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Second World War – यूरोप में युद्ध

1942 ई के ग्रीष्म काल के आगमन पर जर्मनी ने रूस पर बड़ा भीषण आक्रमण किया। जर्मनी की सेनायें स्आलिनग्राड तक पहुँचने में सफल हुई। उधर अफ्रीका में जर्मनी सेनापति रोमल विजयी हो रहा था, किंतु शीघ्र ही मित्र-राष्ट्रों ने रोमल को परास्त करना आरंभ किया। Second World War – उन्होंने सिसली पर अधिकार किया। इसी समय इटली में मुसोलिनी के विरूद्ध आंदोलन आंरभ हुआ।

मुसोलिनी बंदी बना लिया गया। इटली की नई सरकार ने मित्र-राष्ट्रों की सेनाओं का सामना किया। इसी समय जर्मन सेनायें इटली पहुँची और मित्र-राष्ट्रों की सेनाओं का डटकर सामना किया, किंतु अंत में जर्मनी को इटली छोड़ना पड़ा और वह मित्र-राष्ट्रों के अधिकार में आ गया।

द्रितीय विश्व युद्ध का प्रभाव –

जनधन का अत्याधिक विनाश :

द्रितीय विश्वयुद्ध – पूर्ववर्ती युद्धों की तुलना में सर्वाधिक विनाशकारी युद्ध माना जाता है। इस युद्ध में संपत्ति और मानव-जीवन का विशाल पैमाने पर विनाश हुआ, उसका सही आँकलन विश्व के गणितज्ञ भी नहीं कर सके। इस युद्ध का क्षेत्र विश्वव्यापी था तथा इसे विनाशकारी परिणामों का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक था।

इस युद्ध में अनुमानत: एक करोड़ पचास लाख सैनिकों तथा एक करोड़ नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा तथा लगभग एक करोड़ सैनिक बुरी तरह घायल हुए। मानव जीवन की क्षति के साथ-साथ यह युद्ध अपार आर्थिक क्षति, बरबादी तथा विनाश की दृष्टि से भी अविस्मरणीय है। ऐसा अनुमान है कि इस युद्ध में भाग लेने वाले देशों का लगभग एक लाख कराडे रूपये व्यय हुआ था।

अकेले इंग्लैण्ड ने लगभग दो हजार करोड़ रूपये व्यय किया था। जबकि जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड आदि देशों के आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाना कठिन है। इस प्रकार इस युद्ध में विश्व के विभिé देश्ज्ञों की राष्ट्रीय संपत्ति का व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ था।

औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत

Second World War के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप में स्थित यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत हो गया। जिस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् बहुत से राज्यों को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी थी, ठीक उसी प्रकार भारत, लंका, बर्मा, मलाया, मिस्र तथा कुछ अन्य देशों को द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ब्रिटिश दासता से मुक्त कर दिया गया।

इसी प्रकार हॉलैण्ड, फ्रांस तथा पुर्तगाल के एशियाई साम्राज्य कमजोर हो गये तथा इन देशों के अधीनस्थ एशियाई राज्यों को स्वतंत्र कर दिया गया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप का राजनीतिक मानचित्र पूरी तरह परिवर्तित हो गया, तथा वहाँ पर यूरोपीय साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया।

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शक्तिसंतुलन का हस्तांतरण

Second World War विश्व के महान राष्ट्रों की तुलनात्मक स्थिति को द्वितीय विश्वयुद्ध ने अत्यधिक प्रभावित किया था। इस युद्ध से पूर्व विश्व का नेतृत्व इंग्लैण्ड के हाथों में था, किंतु इसके पश्चात् नेतृत्व की बागडोर इंग्लैण्ड के हाथों से निकलकर अमेरिका व रूस के अधिकार में पहुँच गयी। विश्वयुद्ध में जर्मनी, जापान तथा इटली के पतन के फलस्वरूप रूस, पूर्वी यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। एस्टोनिया, लेटेविया, लिथूएनिया तथा पोलैण्ड व फिनलैण्ड पर रूस का पुन अधिकार हो गया।

पूर्वी यूरोप में केवल टर्की व यूनान दो राज्य ऐसे थे जो साेि वयत संघ की सीमा से बाहर थे। दूसरी और , पश्चिमी यूरोप के देशों का ध्यान अमेरिका की तरफ आकर्षित हुआ। फ्रांस , इटली तथा स्पेन ने अमेरिका के साथ अपने राजनीतिक संबंध स्थापित कर लिये। इस प्रकार संपूर्ण यूरोप महाद्वीप दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं में विभाजित हो गया।

एक विचारधारा का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरी विचारधारा की बागडोर रूस के हाथों में थी। पूर्वी यूरोप के देशों पर रूस का प्रभाव स्थापित हो गया, पाकिस्तान, मिस्र, अरब, अफ्रीका आदि रूस की नीतियों से प्रभावित न हुए। इस प्रकार शक्ति का संतुलन रूस एवं अमेरिका के नियंत्रण में स्थित हो गया।

अंतर्राष्ट्रीय की भावना का विकास

द्रितीय विश्वयुद्ध – द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामों ने विभिन्न देशों की आँखें खोल दी थी। वे इस बात का अनुभव करने लगे कि परस्पर सहयोग, विश्वास तथा मित्रता के बिना शांति व व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि समस्याओं का समाधान युद्ध के माध्यम से नहीं हो सकता। इसी प्रकार की भावनाओं का उदय प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भी हुआ था।

पारस्परिक सहयागे की भावना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राष्ट्र-संघ की स्थापना की गयी थी। किंतु विभिन्न देशों के स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण यह संस्था असफल हो गयी और द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया। किंतु इस युद्ध के समाप्त होने के बाद देशों ने पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता एवं महत्व का पुन: अनुभव किया था। 

उन्होनें अपनी समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने का निश्चय किया ताकि युद्ध का खतरा सदैव के लिए समाप्त हो सके तथा विश्व-स्तर पर शांति की स्थापना की जा सके। संयुक्त राष्ट्र-संघ, जिसकी स्थापना 1945 ई. में की गयी थी,  पूर्णत इसी भावना पर आधारित था। इस संस्था का आधारभूत लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की भावना कायम करना तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं मैत्री-भावना का विकास करना था।

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Second World War – द्रितीय विश्व युद्ध का अंत

  • द्रितीय विश्व युद्ध – ब्रिटिश और अमेरिकन सेनाओं ने फ्रांस की उत्तरी-पश्चिमी सीमा में प्रवेश और जर्मनी पर आक्रमण करने आरंभ किए। फ्रांस मुक्त हो गया। फिर उन्होंने बेि ल्जयम से जमर्न सेना को भगाया और हॉलैण्ड को मुक्त किया।
  • नवम्बर 1944 ई. में मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी पर स्थल सेना द्वारा आक्रमण किया। जर्मनी ने इसका बड़े साहस तथा वीरता से सामना किया। दूसरी और रूसी सेनायें विजय प्राप्त करती हुई जर्मनी की सीमा में प्रवेश करने लगीं।
  • रूस की सेना ने चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया, आस्ट्रिया आदि को जर्मनी से मुक्ति दिलवाई और जर्मनी की राजधानी बर्लिन पर आक्रमण किया। मई 1945 ई. को बर्लिन पर रूसी सेनाओं पर अधिकार हो गया।
  • इस प्रकार मित्र-राष्ट्र यूरोप में विजयी हुए। अब उन्होनें जापान को परास्त करने की ओर विशेष ध्यान दिया। जुलाई 1945 ई. में जापान पर हवाई आक्रमण किया गया। रूस ने जापान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की।
  • 5 अगस्त 1945 के दिन हिरोशिमा और नाकासाकी पर एटम बम गिराया गया जिससे जापान को बहुत हानि हुई। 15 अगस्त 1945 ई. के दिन जापान ने आत्म-समर्पण कर दिया। इस प्रकार तानाशाही राज्यों का अंत हुआ और लोकतंत्रवादी राज्यों को सफलता प्राप्त हुई।

Second World War History Video –

Second World War Important facts –

  • द्रितीय विश्व युद्ध 6 सालों तक लड़ा गया। 
  • द्रितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत 1 सितंबर 1939 में हुई। 
  • इस युद्ध का अंत 2 सितंबर 1945 में हुआ। 
  • द्रितीय विश्वयुद्ध में 61 देशों ने हिस्सा लिया। 
  • युद्ध का तात्कालिक कारण जर्मनी का पोलैंड पर आक्रमण था। 
  • द्रितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन जनरल रोम्मेले का का नाम डेजर्ट फॉक्स रखा गया। 
  • म्यूनिख पैक्ट सितंबर 1938 में संपन्न हुआ। 
  • जर्मनी ने वर्साय की संधि का उल्लंघन किया था। 
  • जर्मनी ने वर्साय की संधि 1935 में तोड़ी। 
  • स्पेन में गृहयुद्ध 1936 में शुरू हुआ। 
  • संयुक्त रूप से इटली और जर्मनी का पहला शिकार स्पेरन बना। 
  • सोवियत संघ पर जर्मनी के आक्रमण करने की योजना को बारबोसा योजना कहा गया। 
  • जर्मनी की ओर से द्वितीय विश्वयुद्ध में इटली ने 10 जून 1940 को प्रवेश किया। 
  • अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध में 8 सितंबर 1941 में शामिल हुआ। 
  • द्रितीय विश्वयुद्ध के समय अमेरिका का राष्ट्रपति फैंकलिन डी रुजवेल्टई था। 
  • इस समय इंगलैंड का प्रधानमंत्री विंस्टरन चर्चिल था। 
  • वर्साय संधि को आरोपित संधि के नाम से जाना जाता है। 

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Second World War Questions –

1 .जापान पर एटम बम कब फेका गया था  ?
अमेरिका ने जापान पर एटम बम का इस्तेेमाल 6 अगस्तर 1945 में किया था। 
2 .अमेरिका ने किस देश पर एटम बम फेका थे। 
जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर अमेरिका ने एटम बम गिराया गया। 
3 .द्रितीय विश्व युद्ध में मित्रराष्ट्रों के द्वारा पराजित होने वाला अंतिम देश कौन था ?
द्रितीय विश्व युद्ध में मित्रराष्ट्रों के द्वारा पराजित होने वाला अंतिम देश जापान था। 
4 .द्रितीय विश्व युद्ध का सबसे बड़ा योगदान क्या है ?
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में द्रितीय विश्व युद्ध का सबसे बड़ा योगदान संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्‍थापना है। 
5 .  द्रितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय का श्रेय किसको मिला था ?
जर्मनी की पराजय का श्रेय रूस को जाता है। 

Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Second World War In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी के कारण एवं निवारण से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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प्रथम विश्व युद्ध की पूरी जानकारी हिंदी में बायोग्राफ़ी - Thebiohindi

First World War Full Information In Hindi – प्रथम विश्व युद्ध की पूरी जानकारी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम First World War Full Information In Hindi में ग्रेट वार अथवा ग्लोबल वार यानि प्रथम विश्व युद्ध की पूरी जानकारी हिंदी में बताने वाले है। 

उस समय ऐसा माना गया कि इस युद्ध के बाद सारे युद्ध ख़त्म हो जायेंगे, इसे ‘वॉर टू एंड आल वार्स’ भी कहा गया था। किन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं और इस युद्ध के कुछ सालों बाद द्वितीय विश्व युद्ध भी हुआ था आज के आर्टिकल में world war 1 summary ,अमेरिका प्रथम विश्व युद्ध में कब शामिल हुआ और who started world war 1 से जुडी सभी अज्ञात बातो से आपको ज्ञात करवाने वाले है। 

उन्हें ग्रेट वार इसलिए कहा गया है कि इस समय तक इससे बड़ा युद्ध नहीं हुआ था। यह लड़ाई 28 जुलाई 1914 से लेकर 11 नवम्बर 1918 तक चली थी। और कई नुकशान का सामना पुरे विस्व को करना पड़ा था किसी ने जान गवाई तो किसी ने अपने स्वजन को खोदिया था। फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के कारण और प्रथम विश्व युद्ध प्रश्न उत्तर भी हम देने वाले है तो चलिए शुरू करते है। 

First World War Full Information In Hindi –

प्रथम विश्व युद्ध वर्ष 1914 से 1948 तक लड़ा गया था। जिसमे मरने वालों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी। इस आंकड़े में एक करोड़ दस लाख सिपाही और लगभग 60 लाख आम नागरिक मारे गये थे। इस युद्ध में ज़ख़्मी लोगों की संख्या 2 करोड़ से भी ज्यादा बताई जाती थी ऐसा खूंखार युद्ध खेला गया था। उस युद्ध में दो भागो में विस्व के देश बटचुके थे। 

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प्रथम विश्व युद्ध में दो योद्धा दल –

इस First World War में एक तरफ अलाइड शक्ति और दूसरी तरफ सेंट्रल शक्ति थे. अलाइड शक्ति में रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और जापान था. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका इस युद्ध में साल 1917- 18 के दौरान संलग्न रहा था। सेंट्रल शक्ति में केवल 3 देश मौजूद थे। ये तीन देश ऑस्ट्रो- हंगेरियन, जर्मनी और ओटोमन एम्पायर था। इस समय ऑस्ट्रो- हंगरी में हब्स्बर्ग नामक वंश का शासन था। ओटोमन आज के समय में ओटोमन तुर्की का इलाक़ा है। 

First World War प्रथम विश्व युद्ध के कारण –

दुनिया भर में औद्योगिक क्रांति चल रही थी। इस वजह से हर ताकतवर देश दूसरे देश पर कब्जा करना चाह रहा था। ताकि वहां से कच्चा माल मिल सके , इस वजह से देशों में टकराव बढ़ने लगा था। इसके लिए दुनियाभर के देशों ने सेनाएं बढ़ाई ,सेना को ताकतवर बनाया गया। दूसरे देशों के साथ गुप्त संधियां की गई। गुप्त संधियों की इस नीति का जनक बिस्मार्क को माना जाता है। 

बिस्मार्क जर्मन सम्राज्य का पहला शासक था वो यूरोप का बहुत ताकतवर शासक था और उसने छोटे छोटे सम्राज्यों को एक कर एक बड़ा जर्मन सम्राज्य बनाया। बिस्मार्क अपनी दमदार विदेश नीति और शासन नीति के कारण चर्चित था। फ्रांस-जर्मनी की दुश्मनी- इन दो देशों की दुश्मनी भी पहले विश्व युद्ध का बड़ा कारण थी। जर्मनी के एकीकरण के समय बिस्मार्क ने फ्रांस के अल्सेस लॉरेन पर कब्जा कर लिया था। इस वजह से फ्रांस के लोग जर्मनी के प्रति नफरत रखते थे। 

हमेशा जर्मनी को नीचा दिखाने की कोशिश की जाती थी। 28 जून 1914 को ऑस्ट्रिया के राजकुमार र्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या इस युद्ध का सबसे तात्कालिक कारण था। जिसके बाद ऑस्ट्रिया और सर्बिया के बीच युद्ध हो गया। इस युद्ध में रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन सर्बिया की मदद की और जर्मनी ने ऑस्ट्रिया की मदद की कुछ समय बाद जापान ब्रिटेन की ओर से सर्बिया की मदद में उतरा। तो वहीं उस्मानिया जर्मनी की ओर से इस First World War में शामिल हो गया धीरे धीरे कई देश युद्ध में शामिल हो गए। 

1 . मिलिट्रीज्म –

मिलिट्रीज्म में हर देश ने ख़ुद को हर तरह के आधुनिक हथियारों से लैस करने का प्रयास किया। इस प्रयास के अंतर्गत सभी देशों ने अपने अपने देश में इस समय आविष्कार होने वाले मशीन गन, टैंक, बन्दुक लगे 3 बड़े जहाज़, बड़ी आर्मी का कांसेप्ट आदि का आविर्भाव हुआ था। कई देशों ने भविष्य के युद्धों की तैयारी में बड़े बड़े आर्मी तैयार कर दिए। उन सभी में ब्रिटेन और जर्मनी दोनों काफ़ी आगे थे। इनके आगे होने की वजह औद्योगिक क्रांति को बढ़ाना था। 

औद्योगिक क्रान्ति की वजह से यह देश बहुत अधिक विकसित हुए और अपनी सैन्य क्षमता को बढाया। इन दोनों देशों ने अपने इंडस्ट्रियल कोम्प्लेक्सेस का इस्तेमाल अपनी सैन्य क्षमता को बढाने के लिए किया था। जैसे बड़ी बड़ी विभिन्न कम्पनियों में मशीन गन का, टैंक आदि के निर्माण कार्य चलने लगे। विश्व के अन्य देश चाहते थे कि वे ब्रिटेन और जर्मनी की बराबरी कर लें किन्तु ऐसा होना बहुत मुश्किल था। 

मिलिट्रीज्म की वजह से कुछ देशों में ये अवधारणा बन गयी कि उनकी सैन्य क्षमता अति उत्कृष्ट है और उन्हें कोई किसी भी तरह से हरा नहीं सकता है। ये एक ग़लत अवधारणा थी और इसी अवधारणा के पीछे कई लोगों ने अपनी मिलिट्री का आकार बड़ा किया। मॉडर्न आर्मी का कांसेप्ट यहीं से शुरू हुआ था। 

2. विभिन्न संधीयाँ यानि गठबंधन प्रणाली –

यूरोप में 19वीं शताब्दी के दौरान शक्ति में संतुलन स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों ने अलायन्स अथवा संधियाँ बनानी शुरू की. इस समय कई तरह की संधियाँ गुप्त रूप से हो रही थी। जैसे किसी तीसरे देश को ये पता नहीं चलता था कि उनके सामने के दो देशों के मध्य क्या संधि हुई है। इस समय में मुख्य तौर पर दो संधियाँ हुई, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। इन दोनों संधि के विषय में दिया जा रहा है। 

1. साल 1882 का ट्रिपल अलायन्स जर्मनी ऑस्ट्रिया- हंगरी और इटली के बीच संधि हुई थी। 

2. साल 1907 का ट्रिपल इंटेंट : फ्रांस, ब्रिटेन और रूस के बीच ट्रिपल इंटेंट हुआ। साल 1904 में ब्रिटेन और रूस के बीच कोर्दिअल इंटेंट नामक संधि हुई। इसके साथ रूस जुड़ने के बाद ट्रिपल इंटेंट के नाम से जाना गया। 

यद्यपि इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया- हंगरी के साथ था किन्तु युद्ध के दौरान इसने अपना पाला बदल लिया था और फ्रांस एवं ब्रिटेन के साथ लड़ाई लड़नी शुरू की थी। 

3. साम्राज्यवाद –

इस समय जितने भी पश्चिमी यूरोप के देश हैं वो चाहते थे, कि उनके कॉलोनिस या विस्तार अफ्रीका और एशिया में भी फैले. इस घटना को ‘स्क्रेम्बल ऑफ़ अफ्रीका’ यानि अफ्रीका की दौड़ भी कहा गया, इसका मतलब ये था कि अफ्रिका अपने जितने अधिक क्षेत्र बचा सकता है बचा ले, क्योंकि इस समय अफ्रीका का क्षेत्र बहुत बड़ा था। 1880 के बाद सभी बड़े देश अफ्रीका पर क़ब्ज़ा कर रहे थे। इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, होलैंड बेल्जियम आदि थे। इन सभी देशों का नेतृत्व ब्रिटेन कर रहा था।

इस नेतृत्व की वजह ये थी कि ब्रिटेन इस समय काफ़ी सफ़ल देश था और बाक़ी देश इसके विकास मॉडल को कॉपी करना चाहते थे। पूरी दुनिया के 25% हिस्से पर एक समय ब्रिटिश शासन का राजस्व था। इसकी वजह से इनकी सैन्य क्षमता में भी खूब वृद्धि हुई। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। भारत से 13 लाख सैनिकों ने First World War में लड़ाई लड़ने के लिए भेजे गये।  ब्रिटेन आर्मी में जितनी भारतीय सेना थी, उतनी ब्रिटेन सेना नहीं थी।

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4. राष्ट्रवाद –

उन्नसवीं शताब्दी मे देश भक्ति की भावना ने पूरे यूरोप को अपने कब्जे में कर लिया। जर्मनी, इटली, अन्य बोल्टिक देश आदि जगह पर राष्ट्रवाद पूरी तरह से फ़ैल चूका था। इस वजह से ये लड़ाई एक ग्लोरिअस लड़ाई के रूप मे भी सामने आई और ये लड़ाई ‘ग्लोरी ऑफ़ वार’ कहलाई. इन देशों को लगने लगा कि कोई भी देश लड़ाई लड़ के और जीत के ही महान बन सकता है। इस तरह से देश की महानता को उसके क्षेत्रफल से जोड़ के देखा जाने लगा था। 

First World War के पहले एक पोस्टर बना था, जिसमे कई देश एक दुसरे के पीछे से प्रहार करते हुए नज़र आये. इसमें साइबेरिया को सबसे छोते बच्चे के रूप में दिखाया गया। इस पोस्टर में साइबेरिया अपने पीछे खड़े ऑस्ट्रिया को कह रहा था यदि तुम मुझे मारोगे तो रूस तुम्हे मारेगा. इसी तरह यदि रूस ऑस्ट्रिया को मरता है तो जर्मनी रूस को मारेगा. इस तरह सभी एक दुसरे के दुश्मन हो गये, जबकि झगड़ा सिर्फ साइबेरिया और ऑस्ट्रिया के बीच में था। 

First World War प्रथम विश्व युद्ध सम्बंधित धारणाये –

इस समय यूरोप में युद्ध संबधित धारणाएँ बनी कि तकनीकी विकास होने की वजह से जिस तरह शस्त्र वगैरह तैयार हुए हैं, उनकी वजह से अब यदि युद्ध हुए तो बहुत कम समय में युद्ध ख़त्म हो जाएगा, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। इस समय युद्ध को अलग अलग अखबारों, लेखकों ने गौरव से जोड़ना शुरू किया. उनके अनुसार युद्ध किसी भी देश के निर्माण के लिए बहुत ज़रूरी है, बिना किसी युद्ध के न तो कोई देश बन सकता है और न ही किसी तरह से भी महान हो सकता है और न ही तरक्की कर सकता है।

प्रथम विश्व युद्ध में यूरोप का पाउडर केग –

बाल्कन को यूरोप का पाउडर केग कहा जाता है। पाउडर केग का मतलब बारूद से भरा कंटेनर होता है, जिसमे कभी भी आग लग सकती है. बाल्कन देशों के बीच साल 1890 से 1912 के बीच वर्चास्व की लड़ाईयां चलीं। युद्ध में साइबेरिया, बोस्निया, क्रोएसिया, मॉन्टेंगरो, अल्बानिया, रोमानिया और बल्गारिया आदि देश दिखे थे।

ये सभी देश पहले ओटोमन एम्पायर के अंतर्गत आता था। किन्तु उन्नीसवीं सदी के दौरान इन देशों के अन्दर भी `स्वतंत्र होने की भावना जागी और इन्होने ख़ुद को बल्गेरिया से आज़ाद कर लिया। इस वजह से बाल्कन मे हमेशा लड़ाइयाँ जारी रहीं. इस 22 वर्षों में तीन अलग अलग लड़ाईयां लड़ी गयीं थी। 

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान आर्कड्यूक फ्रान्ज़ फर्डीनांड की हत्या –

 आर्कड्यूक फ्रान्ज़ फर्डीनांड ऑस्ट्रिया के प्रिन्स थे और इस राज्य के अगले राजा बनने वाले थे। इस समय ये साराजेवो, जो कि बोस्निया में है, वहाँ अपनी पत्नी के साथ घुमने आये थे। ये समय जून 1914 का था। इन पर यहीं गर्विलो प्रिंसेप नामक आदमी ने हमला किया और इन्हें मार दिया। इनकी हत्या में एक ‘ब्लैक हैण्ड’ नामक संस्था का भी हाथ था. इस हत्या के बाद साइबेरिया को धमकियाँ मिलनी शुरू हुई। ऑस्ट्रिया को ऐसा लगता था कि साइबेरिया जो कि बोस्निया को आज़ादी दिलाने में मदद कर रहा था। 

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प्रथम विश्व युद्ध के मुख्य वजह और जुलाई क्राइसिस –

ऑस्ट्रिया ने इस हत्या के बाद साइबेरिया को अल्टीमेटम दिया कि वे जल्द ही आत्मसमर्पण कर दें और साइबेरिया ऑस्ट्रिया के अधीन हो जाए। इस मसले पर साइबेरिया ने रूस से मदद माँगी और रूस को बाल्टिक्स में हस्तक्षेप करने का एक और मौक़ा मिल गया। रूस का साइबेरिया को मदद करने का एक कारण स्लाविक साइबेरिया को सपोर्ट करना भी था। रूस और साइबेरिया दोनों में रहने वाले लोग को स्लाविक कहा जाता है। 

जर्मनी ने ऑस्ट्रिया हंगरी को एक ‘ब्लेंक चेक’ देने की बात कही और कहा कि आप जो करना चाहते हों करें जर्मनी आपको पूरा सहयोग देगा। जर्मनी का समर्थन पा कर ऑस्ट्रिया हंगरी ने साइबेरिया पर हमला करना शुरू किया। रूस ने जर्मनी से लड़ाई की घोषणा की बाद फ्रांस ने भी जर्मनी से लड़ाई की घोषणा कर दी। फ्रांस के लड़ने की वजह ट्रिपल इंटेंट संधि थी।

ब्रिटेन इस First World War में शामिल नहीं हुआ था तब इटली ने भी युद्ध करने से मना कर दिया था। इटली का कहना था कि ट्रिपल इंटेंट के तहत यदि कोई और हम तीनों में से किसी पर हमला करता है तब हम इकट्ठे होंगे न कि किसी दुसरे देश के लिए। 

First World War प्रथम विश्व युद्ध का समय –

जुलाई क्राइसिस के बाद अगस्त में युद्ध शुरू हो गया , इस समय जर्मनी ने एक योजना बनायी, जिसके तहत उसने पहले फ्रांस को हराने की सोची इसके लिए उन्होंने बेल्जियम का रास्ता चुना ,जैसे ही जर्मनी की मिलिट्री ने बेल्जियम में प्रवेश किया। उधर से ब्रिटेन ने जर्मनी पर हमला कर दिया इसकी वजह ये थी कि बेल्जियम और ब्रिटेन के बीच सन 1839 में एक समझौता हुआ था। जर्मनी इस समय फ्रांस में घुसने में सफ़ल रहे हालाँकि पेरिस तक नहीं पहुँच पाए थे। 

जर्मनी की सेनाओं ने ईस्ट फ्रंट पर रूस को हरा दिया यहाँ पर लगभग 3 लाख रूसी सैनिक शहीद हुए। इस दौरान ओटोमन एम्पायर ने भी रूस पर हमला कर दिया। इसकी एक वजह ये भी थी कि ओटोमन और रूस दोनों लम्बे समय से एक दुसरे के दुश्मन रहे थे। ओटोमन ने सुएज कैनाल पर भी हमला कर दिया। इसकी वजह ये थी कि ब्रिटेन आइलैंड को भारत से जोड़ने के लिए एक बहुत बड़ी कड़ी थी। 

प्रथम विश्व युद्ध के समय के ट्रेंच –

ट्रेंच युद्ध  सैनिक रहते हैं, जहाँ से लड़ाई लड़ते खाना पीना और सोना भी इसी जगह पर होता था । First World War में पहली बार इतने लम्बे ट्रेंच बनाए गये थे। फ्रांस और जर्मनी फ्रंट 3 साल तक ऐसे ही आमने सामने रहे. न तो फ्रांस को आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और न ही जर्मनी को ट्रेंच बनाने का मुख्य कारण आर्टिलरी शेल्लिंग से बचना था। इसकी सहायता से आर्टिलरी गोलों से बचने में मदद मिलती थी। 

बारिश और अन्य मौसमी मार की वजह से कई सारे सैनिक सिर्फ बीमारी से मारे गये। जिस भी समय कोई सैनिक ट्रेंच से बाहर निकलता था, उसी समय दुसरी तरफ से मशीन गन से गोलीबारी शुरू हो जाती और सैनिक मारे जाते थे। 1916 में एक सोम की लड़ाई हुई जिसमे एक दिन में 80,000 सैनिक मारे गये थे। अधिकतर ब्रिटेन और कनाडा के सैनिक थे। कुल मिलाकर इस युद्ध में 3 लाख सैनिक मारे गये थे। 

प्रथम विश्व युद्ध ग्लोबल वार क्यों कहा जाता है –

इस समय लगभग पूरी दुनिया में लड़ाई छिड़ी हुई थी।  इस वहज से इसे ग्लोबल वर कहा जाता है. अफ्रीका स्थित जर्मनी की कॉलोनिस जैसे टोगो, तंज़ानिया और कैमरून आदि जगहों पर फ्रांस ने हमला कर दिया था। माइक्रोनेशिया और चीनी जर्मन कॉलोनिस पर जापान ने हमला कर दिया था। युद्ध में जापान के शामिल होने की वजह ब्रिटेन और जापान के बीच का समझौता था।ओटोमन जहाज़ों ने ब्लैक सागर के रूसी बंदरगाहों पर हमले करना शुरू कर दिया था।

ब्लैक सी में स्थित सेवास्तापोल रूस का सबसे महत्वपूर्ण नवल बेस है। गल्लिपोली टर्की में स्थित एक राज्य है, जहाँ पर अलाइड बलों ने हमले शुरू कर दिए थे। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड के सैन्य बल लड़ रहे थे। इस आर्मी को अन्ज़क आर्मी कहा जाता था। इस आर्मी को किसी तरह की सफलता नहीं मिली। इस युद्ध की याद में आज भी ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड के बीच अन्ज़क डे मनाया जाता है। 

कई बड़े महासागरों में भी नेवी युद्ध शुरू हुए इसके बाद जर्मनी ने एक पनडुब्बी तैयार किया था जिसका नाम था यू बोट. इस यू बोट ने सभी अलाइड जहाजों पर हमला करना शुरू कर दिया था। शुरू में जर्मन के इस यू बोट ने सिर्फ नेवी जहाज़ों पर हमले किये किन्तु बाद में इस जहाज ने आम नागरिकों के जहाजों पर भी हमला करना शुरू कर दिया था। 

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First World War 1200 लोग मारे गये –

ऐसा ही एक हमला लूसीतानिया नामक एक जहाज़ जो कि अमेरिका से यूरोप के बीच आम लोगों को लाने ले जाने का काम करती थी, उस पर हमला हुआ और लगभग 1200 लोग मारे गये थे। यह घटना अटलांटिक महासागर में हुई थी। इस हमले के बाद ही अमेरिका साल 1917 में प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हो गया और अलाइड शक्तियों का साथ देने लगा था। 

इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन थे। हालाँकि शुरू में अमेरिका किसी भी तरह से यूरोप की इस लड़ाई में शामिल नहीं होना चाहता था, किन्तु अंततः इसे भी इस युद्ध में शामिल होना पड़ा। 

प्रथम विश्व युद्ध में भारत का प्रदर्शन –

विश्व युद्ध में लगभग 13 लाख भारतीय ब्रिटिश आर्मी की तरफ़ से लड़ रहे थे। ये भारतीय सैनिक फ्रांस, इराक, ईजिप्ट आदि जगहों पर लडे, जिसमे लगभग 50,000 सैनिकों को शहादत मिली थी। तीसरे एंग्लो अफ़ग़ान वार और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में इंडिया गेट का निर्माण किया गया था। 

प्रथम विश्व युद्ध में भारत की भूमिका –

पहले विश्व युद्ध के समय भारत पर ब्रिटेन का अधिकार था ,देश में कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों के साथ राजे रजवाड़ों का राज था. उदारवादी नेताओं ने ब्रिटेन का इस युद्ध में साथ दिया था। 
साथ इस उम्मीद के साथ दिया कि युद्ध समाप्ति के बाद ब्रिटेन भारत की स्वराज की मांग पूरी करेगा ,13 लाख भारतीय जवान ब्रिटेन की तरफ से युद्ध लड़े. और 50 हजार सैनिक शहादत को प्राप्त हुए। 
तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध और First World War की याद में ही दिल्ली में इंडिया गेट का निर्माण किया गया था। बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने युद्ध के समय ब्रिटेन के लिए धन और सिपाहियों की भर्ती के लिए देशभर में गांवों का दौरा किया था। 
वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने चालाकी दिखाते हुए भारत का पूरा समर्थन लिया। हालांकि युद्ध के बाद भारत को कोई फायदा नहीं हुआ ,इसी बीच ब्रिटेन ने टर्की के मुस्लिम शासक पर हमला कर दिया था। 
जिसे दुनियाभर के मुसलमान खलिफा मानते थे। भारत में मुस्लिम लीग के नेता इस बात से ब्रिटेन से नाराज हो गए। और मुसलमानों ने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ रूख अपना लिया था। 
मुस्लिम लीग और कांग्रेस में दोस्ती बढ़ने लगी बाद में असहयोग आंदोलन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया था। 

First World War अमेरिका की पहले विश्व युद्ध में भूमिका –

अमेरिका काफी समय तक युद्ध से अलग रहा 1917 तक अमेरिका इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ था। अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों के प्रति सहानुभुति रखी थी। लेकिन इसी बीच जर्मनी ने एक ब्रिटिश जहाज लुसितानिया को डुबो दिया। अंटलांटिक महासागर में हुई इस घटना में 1200 लोग मारे गए थे। जहाज में अमेरिकी यात्री सवार थे ,इस से अमरिका जर्मनी से नाराज हो गया था और 6 अप्रैल 1917 को अमेरिका ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी। 

1917 में एक तरफ अमेरिका First World War में शामिल हुआ तो वहीं सोवियत रूस 1917 में इस युद्ध से अलग हो गया था। रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनीन सरकार ने खुद को युद्ध से अलग करने की घोषणा की सोवियत संघ ने जर्मनी के साथ संधी कर अलग हो गया था। अमेरिका के युद्ध में शामिल होने और रूस के अलग होने के बाद घटनाक्रम तेजी से बदले थे। मित्र राष्ट्र लगातार जीतने लगे अक्टूबर 1918 में तुर्की और नवंबर 1918 में ऑस्ट्रिया ने आत्मसमर्पण कर दिया था। 

दो देशों के आत्मसमर्पण करने से जर्मनी अकेला पड़ गया था। जर्मनी भी कमजोर पड़ रहा था आर्थिक स्थिति बिगड़ रही थी। जर्मनी के अंदर ही युद्ध के खिलाफ विद्रोह होने लगा था। आखिरकार जर्मन सम्राट कैजर विलियम द्वितीय को गद्दी छोड़नी पड़ी। विलियम भागकर जर्मनी चले गए। इसके बाद जर्मनी में वेमर गणतंत्र की स्थापना हुई और नई सरकार ने 11 नवंबर 1918 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इसके बारेमे भी जानिए :- 

First World War – प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम –

इस युद्ध में सभी देशों के करीब एक करोड़ सैनिक मारे गए जबकि दो करोड़ घायल हुए. इस युद्ध के बाद पेरिस समझौता हुआ जिसमें सभी पुरानी संधियों को खत्म किया गया था। आर्थिक प्रतिबंधों को खत्म किया गया। समुंद्री स्वतंत्रता कायम की गई ये भी तय हुआ कि वैज्ञानिक खोज के गलत उपयोग मावन जाति के लिए घातक है। साथ ही तुर्की में गैर तुर्कों को स्वायत्त शासन से लेकर स्वतंत्र पौलेंड के निर्माण जैसे फैसले लिए गए। 

1. युद्ध की व्यापकता –

इस युद्ध बहतु व्यापक हुआ। इस युद्ध में जितने लागे सम्मिलित हएु उससे पूर्व के युद्धों में इतने अधिक व्यक्ति सम्मिलित नहीं हुए। यह First World War यूरोप और एशिया महाद्वीपों में हुआ। इस युद्ध में 30 राज्यों ने भाग लिया और विश्व के 87 प्रतिशत व्यक्तियों ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में इसमें भाग लिया।

संसार के केवल 14 देशों ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया उन्होंने तटस्थ नीति का अनुकरण किया। 61 कराडे व्यक्तियों ने प्रत्यक्ष रूप के भाग लिया। इनमें से 85 लाख व्यक्ति मारे गये, 2 करोड़ के लगभग व्यक्ति घायल हुए, बन्दी हुए या खो गये थे। 

2. धन की क्षति –

इस युद्ध में अतुल धन का व्यय हुआ और यूरोप के समस्त राष्ट्रों को आर्थिक संकट का विशेष रूप से सामना करना पड़ा। इसमें लगभग 10 अरब रूपया व्यय हुआ। मार्च सन 1915 तक इंगलैंड का दैनिक व्यय मध्यम रूप से 15 लाख पौंड, 1915-16 ई. में 40 लाख, 1916-17 ई. में 55 लाख और 1917-18 ई. में 65 लाख पौंड हो गया।

उसका राष्ट्रीय ऋण युद्ध के अंत तक 7080 लाख से बढ़कर 74350 लाख पौंड हो गया था। फ्रांस का राष्ट्रीय ऋण 341880 लाख फ्रेंक से बढ़कर 1974720 लाख फ्रेंक और जर्मनी का 50000 लाख मार्क से बढ़कर 1306000 लाख मार्क हो गया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध में अत्यधिक धन का व्यय हुआ।

3. राजनीतिक परिणाम –

युद्ध के राजनीतिक परिणाम बहुत महत्वपूर्ण हुए First World War के पश्चात् राजतंत्र शासन का अंत हुआ था। उनके स्थान पर गणतंत्र या जनतंत्र शासन की स्थापना का युग आरंभ हुआ। जर्मन, रूस, टर्की, आस्ट्रिया, हगं री, बल्गारिया, आदि देशों के सम्राटों को अपना पद त्यागना पड़ा और राजसत्ता पर जनता का अधिकार स्थापित हो गया। प्राचीन राजवंशों का अन्त हुआ।

यूरोप पर जनता का अधिकार स्थापित हो गया। यूरापे में नये 11 गणतंत्र राज्यों की स्थापना हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं- 1. जर्मन, 2. आस्ट्रिया, 3. पोलैंड, 4. रूस, 5. चैकोस्लोवाकिया, 6. लिथुएनिया, 7. लेटविया, 8. एन्टोनिया, 9. फिनलैंड, 10. यूकेन और 11. टर्की। जिन प्राचीन देशों में राजतत्रं बना भी रहा, वहां भी जनतंत्र का विकास बड़ी शीघ्रता से होना आरंभ हुआ।

इंगलैंड, स्पेन, ग्रीस, रूमानिया, आदि इसी अंतर्गत आते है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध ने जनतंत्र शासन की स्थापना का अवसर प्रदान किया और राजवंशों को समाप्त कर डाला था। 

4. राष्ट्रीयता की विजय –

युद्ध के उपरांत राष्ट्रीयता की भावना की विजय हुई और उसका पूर्ण विकास होना आरंभ हुआ। युद्धोपरान्त पेरिस के शांति सम्मेलन में समस्त राष्ट्रों ने राष्ट्रपति विलसन द्वारा प्रतिपादित आत्मनिर्णय के सिद्धांत को आधार मानकर यूरोप का पुनर्संगठन करने का प्रयास किया था। उसके अनुसार आठ नये राज्यों का निर्माण किया गया। वह चैकोस्लोवाकिया, युगोस्लोवाकिया, हंगरी, पोलैंड, लिथुएनिया, एन्टोनिया और फिन्लैंड हैं।

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5. अधिनायकतंत्र की स्थापना –

युद्ध के मध्य में मित्र राष्ट्रों की ओर से यह प्रचार किया रहा था कि इस First World War के द्वारा संसार में जनतंत्र की स्थापना होगी। आरंभ में ऐसा दिखाई देने लगा था कि युद्ध में जनतंत्र की विजय हुई और इसी आधार पर भविष्य में शासन होगा, किन्तु कुछ ही समय उपरांत यह स्पष्ट हो गया कि यह संभव नहीं। सरकारों को भीषण समस्याओं का सामना करना पड़ा था। 

जिनका जनतंत्रीय सरकार निराकरण नहीं कर सकी। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वेच्छाचारी शासकों की स्थापना हुई और उन्होनें जनता पर मनमानी करना आरंभ कर दिया। जनता इसको सहन नहीं कर सकी और जनतंत्र का अंत हुआ तथा इसके स्थान पर अधिनायकतन्त्र की स्थापना हुई।

6. सैनिक शक्ति का विस्तार –

शांति सम्मेलन द्वारा जर्मनी की सैनिक शक्ति पर नियंत्रण तो अवश्य कर दिया गया, किन्तु विजयी राज्यों ने अपनी सैनिक शक्ति पर नियंत्रण स्थापित करने की ओर कोई कदम नहीं उठाया, उन्हौंने सैनिक शक्ति की वृद्धि ही की। जर्मनी में नाजीवाद और इटली में फासीवाद की स्थापना होने पर उन्होनें अपने देशों को उन्नत करने के लिये हर संभव उपाय की शरण ली। और अपनी सैनिक शक्ति का बहुत अधिक विस्तार किया था ।

7. राष्ट्र संघ की स्थापना –

First World War के उपरांत शांति की स्थापना के उद्देश्य से राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। यह बड़ा महत्वपूर्ण कदम उठाया गया, किन्तु उसको विश्व-शान्ति की स्थापना में विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। वह राष्ट्रों के स्वार्थों पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकी, जिससे देशों में प्रतिद्विन्दिता बढ़ने लगी थी। 

8. आर्थिक परिणाम –

युद्ध के पश्चात् साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव बहतु अधिक प्रभाव बढ़ गया और अब लोगों के मन में यह भावना उत्पन्न हो गई कि उद्योग-धंधो का राष्ट्रीयकरण करके समस्त उद्यागे धन्धों पर राज्य का सम्पूर्ण अधिकार और नियंत्रण स्थापित किया जाये। इस दिशा में कदापि अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई, फिर भी प्रत्येक देश में इस संबंध में राज्यों की ओर से विभिन्न प्रकार के हस्तक्षेप किये गये।

कारखानों में काम करने वाले मजदूरों का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा और उन्होंने राज्य के सामने अपनी मांगे उपस्थित करना आरंभ किया। इस प्रकार इस युद्ध के पश्चात् मजदूरों ने अपने आपको संगठित करना आरंभ किया और उनका महत्व निरंतर बढ़ने लगा। समस्त देशों की सरकारों ने उनकी सुविधाओं का ध्यान रखते हुए विभिन्न प्रकार के अधिनियम बनाये थे ।

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9. सामाजिक परिणाम –

First World War के सामाजिक क्षेत्रों में भी बड़े महत्वपूर्ण परिणाम हुये। रण क्षेत्रों में लोगों की मांग निरंतर बढ़ती रही, जिसके कारण बहुत से व्यक्ति जो अन्य कार्यों में व्यस्त थे, उनको अपने काम छोड़कर सैनिक सेवायें करने के लिये बाध्य होना पड़ा। उनके कार्यों को पूरा करने के लिये स्त्रियों को काम करना पड़ा।

इस प्रकार उन्होनें गृहस्थ जीवन का परित्याग कर मिल और कारखानों में कार्य करना आरंभ किया। उनको अपने महत्व का ज्ञान हुआ तथा नारी जाति में आत्म-विश्वास का उदय हुआ। युद्ध की समाप्ति के उपरातं उन्होंने भी मनुष्यों के समान अपने अधिकारों की मांग की और लगभग प्रत्येक राज्य ने उनकी बहुत सी माँगें को स्वीकार किया था ।

First World War History Video –

First World War 1 Facts –

  • प्रथम विश्व युद्ध में एक करोड़ दस लाख सिपाही ,60 लाख आम नागरिक मरे और ज़ख़्मी लोगों की संख्या 2 करोड़ थी। 
  • 28 जुलाई 1914 से 11 नवम्बर 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध में पुरे विश्व को बहुत बड़ा नुकशान का सामना करना पड़ा था। 
  • 8 जून 1914 को ऑस्ट्रिया के राजकुमार र्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या प्रथम विश्व युद्ध का मुख्य और तात्कालिक कारण था।
  • प्रथम विश्व युद्ध में  13 लाख भारतीय सैनिक ब्रिटिश आर्मी की तरफ़ से फ्रांस, इराक, ईजिप्ट आदि जगहों पर लडे, इनमे 50,000 सैनिकों वीरगति को प्राप्त हुए थे। शहीद हुए सैनिकों की याद में इंडिया गेट का निर्माण हुआ था। 
  • प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्यात मनुष्यों के समान अधिकारों की मांग की और प्रत्येक राज्य ने प्रजा की बहुत सी माँगें को स्वीकार किया था। 

First World War Questions –

प्रथम विश्व युद्ध में अमेरिका कब शामिल हुआ और क्यों ?
16 अप्रैल 1917  के दिन अमरीका पहले विश्व युद्ध में शामिल हुआ था। इनका कारन मुख्य कारन अमेरिका क्वे यात्रिको की मौत थी। 
प्रथम विश्व युद्ध के क्या कारण थे ? 
इस महा खूंखार विध्वंश का मुख्य कारन औद्योगिक क्रांति था जिनकी वजह से यह प्रथम विश्व युद्ध हुआ था। 
प्रथम विश्व युद्ध कब और क्यों हुआ ?
28 जून 1914 के दिन प्रथम विश्व युद्ध ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्चड्यूक फ़र्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या के कारन शुरू हुआ था। 
प्रथम विश्व युद्ध में कितने देश शामिल थे ?
इस लड़ाई में 30 देश की और से 6 करोड़ 82 लाख सैनिक लड़े एव 99 लाख 11 हजार यौद्धा शहीद हुए थे। 
प्रथम विश्व युद्ध का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा ?
इस युद्ध मे भारतीयों को जबरदस्ती सेना में भर्ती किया जाता था। उनको बाहरी देशो में भेज देते थे ।

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Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल First World War Full Information In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा। इस लेख के जरिये  हमने what caused world war और who won world war से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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प्लासी का पहला युद्ध 1757 सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच संघर्ष

प्लासी का पहला युद्ध 1757 सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच संघर्ष

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम प्लासी का पहला युद्ध 1757 सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच संघर्ष हुआ उसका सम्पूर्ण लेखाजोखा बताने वाले है। 

सन 23 जून 1757 को प्लासी का प्रथम युद्ध हुवा था,प्लासी का युद्ध मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में हुआ था। प्लासी के युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी और दूसरी तरफ बंगाल के नवाब की सेना थी। आज हम causes of battle of plassey ,battle of plassey and buxar और battle of plassey summary से सबको वाकिफ कराने वाले है। 

कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था। परन्तु इस जित को कम्पनी की जीत नही कह सकते कयोंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फ़ौरन बाद मीर जाफ़र के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है इस युद्ध से ही भारत की कमनसीबी की कहानी शुरू होती है।

प्लासी का पहला युद्ध 1757 सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच संघर्ष –

युद्ध की साल  23 जून 1757
स्थान  पलासी, पश्चिम बंगाल, भारत
क्षेत्रीय बदलाव  बंगाल पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्ज़ा
परिणाम  ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की निर्णायक विजय

Battle of Plassey –

Palasi ka yudh बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के संघर्ष का परिणाम था। युद्ध के अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा स्थाई परिणाम निकले थे। 1757 में हुआ प्लासी का युद्ध ऐसा युद्ध था जिसने भारत में अंग्रेजों की सत्ता की स्थापना करदी। बंगाल की तत्कालीन स्थिति और अंग्रेजी स्वार्थ ने East India Company को बंगाल की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया। अलीवर्दी खा जो पहले बिहार का नायब-निजाम था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आई राजनैतिक उठा-पटक का भरपूर लाभ उठाया।

उसने अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली। महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था उसने बंगाल के तत्कालीन नवाब सरफराज खां को युद्ध में हराकर मार डाला और स्वयं नवाब बन गया था 9 अप्रैल को अलीवर्दी खां की मृत्यु हुई उनकी कोई संतान नहीं थी इसलिए मृत्यु के बाद अगला नवाब कौन होगा, इसके लिए कुछ लोगों में उत्तराधिकार के लिए षड्यंत्र शुरू हो गए थे। लेकिन अलीवर्दी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी सबसे छोटी बेटी के पुत्र सिराजुद्दौला को उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था और वही हुआ सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना गया।

plassey battle picture
plassey battle picture

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ब्रिटिश सरकार का उदय –

इस युद्ध से कम्पनी को बहुत लाभ हुआ वो आई तो व्यापार हेतु थी किंतु बन गई राजा। plasi ka pratham yudh से प्राप्त संसाधनो का प्रयोग कर कम्पनी ने फ्रांस की कम्पनी को कर्नाटक के तीसरे और अन्तिम युद्ध मे निर्णायक रूप से हरा दिया था। इस युद्ध के बाद बेदरा के युद्ध मे कम्पनी ने ड्च कम्पनी को हराया था।इस युद्ध की जानकारी लन्दन के इंडिया हाउस लाइब्ररी में उपलब्ध है जो बहुत बड़ी लाइब्ररी है और वहां भारत की गुलामी के समय के 20 हज़ार दस्तावेज उपलब्ध है।

वहां उपलब्ध दस्तावेज के हिसाब से अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुदौला के पास 18 हजार सिपाही। अंग्रेजी सेना का सेनापति था रोबर्ट क्लाइव और सिराजुदौला का सेनापति था मीरजाफर। रोबर्ट क्लाइव ये जानता था की आमने सामने का युद्ध हुआ तो एक घंटा भी नहीं लगेगा। 

हम युद्ध हार जायेंगे और क्लाइव ने कई बार चिठ्ठी लिख के ब्रिटिश पार्लियामेंट को ये बताया भी था। इन दस्तावेजों में क्लाइव की दो चिठियाँ भी हैं। जिसमे उसने ये प्रार्थना की है कि अगर प्लासी का युद्ध जीतना है तो मुझे और सिपाही दिए जाएँ। रोबर्ट क्लाइव ने तब अपने दो जासूस लगाये और उनसे कहा की जा के पता लगाओ की सिराजुदौला के फ़ौज में कोई ऐसा आदमी है जिसे हम रिश्वत दे लालच दे और रिश्वत के लालच में अपने देश से गद्दारी कर सके।

मीरजाफर –

उसके जासूसों ने ये पता लगा के बताया की हाँ उसकी सेना में एक आदमी ऐसा है जो रिश्वत के नाम पर बंगाल को बेच सकता है और अगर आप उसे कुर्सी का लालच दे तो वो बंगाल के सात पुश्तों को भी बेच सकता है। वो आदमी था मीरजाफर और मीरजाफर ऐसा आदमी था  जो दिन रात एक ही सपना देखता था की वो कब बंगाल का नवाब बनेगा। ये बातें रोबर्ट क्लाइव को पता चली तो उसने मीरजाफर को एक पत्र लिखा। 

कम्पनी ने इसके बाद कठपुतली नवाब मीर जाफर को सत्ता दे दी किंतु ये बात किसी को पता न थी कि सत्ता कम्पनी के पास है। नवाब के दरबारी तक उसे क्लाइव का गधा कहते थे कम्पनी के अफ़सरों ने जमकर रिश्वत बटोरी बंगाल का व्यापार बिल्कुल तबाह हो गया था इसके अलावा बंगाल मे बिल्कुल अराजकता फ़ैल गई थी।

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प्लासी के युद्ध का कारण और परिणाम –

आधुनिक भारत के इतिहास में प्लासी युद्ध का अत्यंत महत्व है। इस युद्ध के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब सिराजुददौला को पराजित कर बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली। इस लिए इस युद्ध को भारत के निर्णायक युद्धों में विशिष्ट स्थान उपलब्ध है। बंगाल मुगल साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। परन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रांतों में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

जिसमें अलवर्दी खाँ ने बंगाल पर अपना अधिकार कर लिया। उन्हें कोई पुत्र नहीं था। सिर्फ तीन पुत्रियाँ थी। बड़ी लड़की छसीटी बेगम नि:सन्तान थी। दूसरी और तीसरी से एक- एक पुत्र थे। जिसका नाम शौकतगंज, और सिराजुद्दौला था। वे सिराजुद्दौला को अधिक प्यार करते थे। इसलिए अपने जीवन काल में ही उसने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

10 अप्रैल 1756 को अलवर्दी की मृत्यु हुई। सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना परन्तु शुरु से ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ उसका संघर्ष अवश्यभावी हो गया। अंत में 23 जून 1757 को दोनों के बीच युद्ध छिड़ा जिसे प्लासी युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के अनेक कारण थे जो इस प्रकार है।

सिराज उद द्दौला –

सिराजुद्दौला भले ही नवाब बन गया पर उसे कई विरोधियों का सामना करना पड़ा. उसकी सबसे बड़ी विरोधी और प्रतिद्वंदी उसके परिवार से ही थी और वह थी उसकी मौसी. उसकी मौसी का नाम घसीटी बेगम था। घसीटी बेगम का पुत्र शौकतगंज जो स्वयं पूर्णिया (बिहार) का शासक था, उसने अपने दीवान अमीनचंद और मित्र जगत सेठ के साथ सिराजुद्दौला को परास्त करने का सपना देखा। मगर सिराजुद्दौला पहले से ही सावधान हो चुका था। 

उसने सबसे पहले घसीटी बेगम को कैद किया और उसका सारा धन जब्त कर लिया। इससे शौकतगंज भयभीत हो गया और उनसे सिराजुद्दौला के प्रति वफादार रहने का वचन दिया पर सिराजुद्दौला ने बाद में उसे युद्ध में हराकर मार डाला। इधर ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी स्थिति मजबूत कर चुकी थी। दक्षिण में फ्रांसीसियों को हराकर अंग्रेजों के हौसले बुलंद थे।

मगर वे बंगाल में भी अपना प्रभुत्व जमाना चाहते थे। पर अलीवर्दी खां ने पहले से ही सिराजुद्दौला को सलाह दे दिया था कि किसी भी हालत में अंग्रेजों का दखल बंगाल में नहीं होना चाहिए। इसलिए सिराजुद्दौला भी अंग्रेजों को लेकर सशंकित था।

plassey battle map
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सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच संघर्ष –

सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों को फोर्ट विलियम किले को नष्ट करने का आदेश दिया जिसको अंग्रेजों ने ठुकरा दिया. गुस्साए नवाब ने मई, 1756 में आक्रमण कर दिया. 20 जून, 1756 ई. में कासिमबाजार पर नवाब का अधिकार भी हो गया। उसके बाद सिराजुद्दौला ने फोर्ट विलियम पर भी अधिकार कर लिया. अधिकार होने के पहले ही अंग्रेज़ गवर्नर ड्रेक ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भागकर फुल्टा नामक एक द्वीप में शरण ले ली। 

कलकत्ता में बची-खुची अंग्रेजों की सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा. अनेक अंग्रेजों को बंदी बनाकर और मानिकचंद के जिम्मे कलकत्ता का भार सौंपकर नवाब अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद लौट गया ऐसी ही परिस्थिति में “काली कोठरी” की दुर्घटना (The Black Hole Tragedy) घटी जिसने अंग्रेजों और बंगाल के नवाब के सम्बन्ध को और भी कटु बना दिए। 

कहा जाता है कि 146 अंग्रेजों, जिनमें उनकी स्त्रियाँ और बच्चे भी थे, को फोर्ट विलियम के एक कोठरी में बंद कर दिया गया था।  जिसमें दम घुटने से कई लोगों की मौत हो गई थी। जब इस घटना की खबर मद्रास पहुँची तो अंग्रेज़ बहुत गुस्से में आ गए और उन्होंने सिराजुद्दौला से बदला लेने शीघ्र ही मद्रास से क्लाइव (Lord Clive) और वाटसन थल सेना लेकर कलकत्ता की ओर बढ़े और नवाब के अधिकारीयों को रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया। 

परिणामस्वरूप मानिकचंद ने बिना किसी प्रतिरोध के कलकत्ता अंग्रेजों को सौंप दी अंग्रेजों ने हुगली पर भी अधिकार कर लिया। ऐसी स्थिति में बाध्य होकर नवाब को अंग्रेजों से समझौता करना पड़ा। 

अंग्रेजो ध्वारा नवाब के विरुद्ध षडयंत्र-

प्रारंभ से ही अंग्रेजों की आखें बंगाल पर लगी हुई थी।

क्योंकि बंगाल एक उपजाऊ और धनी प्रांत था।

बंगाल पर कम्पनी का अधिकार हो तो अधिक धन कमाने की आशा थी।

हिन्दु व्यापारियों को अपनी ओर मिलाकर नवाब के विरुद्ध भड़काना शुरु किया। 

यह नवाब को पसन्द नहीं करता था।

व्यापारिक सुविधाओं का उपयोग-

मुगल सम्राट से अंग्रेजों को निशुल्क सामुद्रिक व्यापार करने की छूट मिलि थी।

लेकिन अंग्रेजों ने इसका दुरुपयोग करना शुरु किया।

वे अपना व्यक्तिगत व्यापार भी नि:शुल्क करने लगे और देशी व्यापारियों को

बिना चुंगी दिए व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित करने लगे।

इससे नवाब को आर्थीक क्षति पहुँचती थी।

नवाब इन्हें पसन्द नहीं करता था।

उन्होने व्यापारिक सुविधाओं के दुरुपयोग को बन्द करने का

निश्चय किया तो अंग्रेज संघर्ष पर उतर आए।

battle of plassey photos
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प्लासी का युद्ध –

अंग्रेज़ इस संधि से भी संतुष्ट नहीं हुए सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाकर किसी वफादार नवाब को बिठाना चाहते थे जो उनके कहे अनुसार काम करे और उनके काम में रोड़ा न डाले क्लाइव ने नवाब के खिलाफ षड्यंत्र करना शुरू कर दिया। उसने मीरजाफर से एक गुप्त संधि की और उसे नवाब बनाने का लोभ दिया इसके बदले में मीरजाफर ने अंग्रेजों को कासिम बाजार, ढाका और कलकत्ता की किलेबंदी करने, 1 करोड़ रुपये देने और उसकी सेना का व्यय सहन करने का आश्वासन दिया।

षड्यंत्र में जगत सेठ, राय दुर्लभ और अमीचंद भी अंग्रेजों से जुड़ गए। अब क्लाइव ने नवाब पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया। उस समय नवाब की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। दरबारी-षड्यंत्र और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण से उत्पन्न खतरे की स्थिति ने उसे और भी भयभीत कर दिया था। उसने मीरजाफर को अपनी तरफ करने की कोशिश भी की पर असफल रहा। नवाब की कमजोरी को भाँपकर क्लाइव ने सेना के साथ प्रस्थान किया था। 

23 जून, 1757 को प्लासी के मैदान में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई। युद्ध नाममात्र का युद्ध था नवाब की सेना के एक बड़े भाग ने युद्ध में हिस्सा नहीं लिया था। आंतरिक कमजोरी के बावजूद सिराजुद्दौला की सेना, जिसका नेतृत्व मीरमदन और मोहनलाल कर रहे थे, ने अंग्रेजों की सेना का डट कर सामना किया। परन्तु मीरजाफर के विश्वासघात के कारण सिराजुद्दौला को हारना पड़ा। वह जान बचाकर भागा, परन्तु मीरजाफर के पुत्र मीरन ने उसे पकड़ कर मार डाला था। 

प्लासी के युद्ध के परिणाम – 

  • प्लासी के युद्ध के परिणाम अत्यंत ही व्यापक और स्थायी निकले थे। 
  • इसका प्रभाव कम्पनी, बंगाल और भारतीय इतिहास पर पड़ा था। 
  • मीरजाफर को क्लाइव ने बंगाल का नवाब घोषित कर दिया। 
  • उसने कंपनी और क्लाइव को बेशुमार धन दिया था।
  • संधि के अनुसार अंग्रेजों को भी कई सुविधाएँ मिलीं।
  • बंगाल की गद्दी पर ऐसा नवाब आ गया जो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली था। 
  • प्लासी के युद्ध ने बंगाल की राजनीति पर अंग्रेजों का नियंत्रण कायम कर दिया।
  • अंग्रेज़ अब व्यापारी से राजशक्ति के स्रोत बन गये।
  • इसका नैतिक परिणाम भारतीयों पर बहुत ही बुरा पड़ा। 
  • कंपनी ने भारत आ कर  सबसे अमीर प्रांत के सूबेदार को अपमानित करके गद्दी से हटा दिया।
  • मुग़ल सम्राट सिर्फ तमाशा देखते रह गए। 
  • आर्थिक दृष्टिकोण से भी अंग्रेजों ने बंगाल का शोषण करना शुरू कर दिया।
  • इसी युद्ध से प्रेरणा लेकर क्लाइव ने आगे बंगाल में अंग्रेजी सत्ता स्थापित कर ली।
  • बंगाल से प्राप्त धन के आधार पर अंग्रेजों ने दक्षिण में फ्रांसीसियों पर विजय प्राप्त कर लिया।

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युद्ध जीतनसे कम्पनी को हुए लाभ –

  • भारत के सबसे समृद्ध तथा घने बसे भाग से व्यापार करने का एकाधिकार।
  • बंगाल के साशक पर भारी प्रभाव, क्योंकि उसे सत्ता कम्पनी ने दी थी।
  • इस स्थिति का लाभ उठा कर कम्पनी ने अप्रत्यक्ष सम्प्रभु सा व्यवहार शुरू कर दिया।
  • बंगाल के नवाब से नजराना, भेंट, क्षतिपूर्ति के रूप मे भारी धन वसूली।
  • एक सुनिश्चित क्षेत्र 24 परगना का राजस्व मिलने लगा।
  • बंगाल पे अधिकार से इतना धन मिला कि इंग्लैंड से धन मँगाने कि जरूरत नही रही।
  • इस धन को भारत के अलावा चीन से हुए व्यापार मे भी लगाया गया।
  • धन से सैनिक शक्ति गठित की गई जिसका प्रयोग फ्रांस तथा भारतीय राज्यों के विरूद्ध किया गया।
  • देश से धन निष्कासन शुरू हुआ जिसका लाभ इंग्लैंड को मिला था।
  • वहां इस धन के निवेश से ही ओद्योगिक क्रांति शुरू हुई थी।

प्लासी का पहला युद्ध का वीडियो –

प्लासी युद्ध के रोचक तथ्य –

  • अंग्रेजों ने भारत में कई जंग लड़े लेकिन 1757 के प्लासी का पहला युद्ध ने बहुत बदल दिया था। 
  • हमारे देश पर अंग्रेजों की धमक बढ़ती चली गई और दूसरे शासकों की पकड़ ढीली होती चली गई। 
  • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच
  • प्लासी की लड़ाई साल 1757 में 23 जून को लड़ी गई थी। 
  • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को ये निर्णायक जीत कर्नल रॉबर्ट क्लाइव की अगुआई में मिली थी। 
  • बंगाल के नदिया जिले में ये जंग गंगा नदी के किनारे प्लासी नामक जगह पर हुआ था। 
  • बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला 40,000 सैनिकों और 50 फ्रांसीसी तोपों के साथ लड़े थे। 
  • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास 1000 अंग्रेज और 2,000 भारतीय सैनिक थे। 
  • इस अहम युद्ध ने भारत में अंग्रेजों के राज की नींव रखी और फ्रांसीसियों की ताकत कम होती चली गई। 
  • युद्ध के फौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी।
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प्लासी के युद्ध प्रश्न –

1 .प्लासी के युद्ध में किसकी हार हुई ?

नवाब सिराज़ुद्दौला को रॉबर्ट क्लाइव ने हराया था। 

2 .प्लासी का युद्ध कब हुआ था ?

23 जून 1757 के दिन मुर्शिदाबाद के दक्षिण में  गंगा नदी के किनारे

22 मील दूर नदिया जिले में plasi ka yudh हुआ था। 

3 .प्लासी के युद्ध में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व किसने किया था ?

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव ने किया और नवाब सिराज़ुद्दौला को हराया था।

4 .प्लासी युद्ध से अंग्रेजों को क्या लाभ हुआ ?

अंग्रेजो को 24 परगना की जमींदारी और बंगाल, ओडिशा तथा

बिहार पर अंग्रेजो को मुफ्त व्यापार करने की छूट प्रदान कर दी।

5 .सिराजुद्दौला की हार का मुख्य कारण क्या था ?

मीर जाफर की धोखाधड़ी सिराजुद्दौला की हार का मुख्य कारण था।

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Conclusion –

आपको मेरा प्लासी का पहला युद्ध 1757 बहुत अच्छी तरह से समज आया होगा। 

लेख के जरिये हमने Battle of plassey और प्लासी का युद्ध के कारण

और परिणाम से सम्बंधित जानकारी दी है।

अगर आपको अन्य अभिनेता के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है।

तो कमेंट करके जरूर बता सकते है।

हमारे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द।

Note –

आपके पास प्लासी के युद्ध का महत्व या plasi ka yuddh की कोई जानकारी हैं।

या दी गयी जानकारी मैं कुछ गलत लगे तो दिए गए सवालों के जवाब आपको पता है।

तो तुरंत हमें कमेंट और ईमेल मैं लिखे हम इसे अपडेट करते रहेंगे धन्यवाद 

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Humayun Biography In Hindi - हुमायूँ की जीवनी हिंदी में - Biography Hindi

Humayun Biography In Hindi – हुमायूँ की जीवनी हिंदी में

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है आज हम Humayun Biography In Hindi में सम्राट बाबर का ज्येष्ठ पुत्र नासिरउद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जीवन परिचय बताने वाले है। 

उसका जन्म मार्च, 1508 में काबुल के किले में हुआ था. हुमायूँ की माता का नाम माहम बेगम था। माहम बेगम हिरात के हुसैन बैकरा की पुत्री थी। आज हम humayun tomb,humayun spouse और humayun nama की सारी बातोसे वाकिफ कराने वाले है। बाबर ने 1506 में माहम बेगम से शादी की थी। वह माहम बेगम को सबसे अधिक मानता था। बाबर को तीन और पुत्र थे जिसमें कामरान और असकरी का जन्म गुलरुख बेगम तथा हिंदाल जा जन्म दिलदार अगाची के कोख से हुआ था। 

हुमायूं के पिता का नाम बाबर था वह साहित्य, गणित, ज्योतिष, दर्शन, खगोल विद्या एवं चित्रकला के प्रति हुमायूँ की अभिरुचि अधिक थी। भारत में हुमायूँ ने हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आज के आर्टिकल में हुमायूँ की असफलता के कारण,हुमायूं के कितने पुत्र थे ? और हुमायूं की प्रारंभिक कठिनाइयां क्या थी उसकी असफलता के कारण बताइए तो हम इस सभी सवालों के जवाब इस पोस्ट के जरिये देने वाले है। 

Humayun Biography In Hindi –

 नाम   नासिरउद्दीन मुहम्मद हुमायूँ
 जन्म   मार्च, 1508
 जन्म स्थान   काबुल
 पिता  बाबर
 माता   माहम बेगम
 पत्नी  हमीदा बानू
 पुत्र   अकबर
 मृत्यु  जनवरी 1556

Humayun History In Hindi –

शुरुआत में humayun father बाबर का जीवन स्वयं संकटपूर्ण था , इसीलिए humayun childhood में शिक्षा का प्रबंध ठीक से नहीं कर पाया। लेकिन काबुल लौटने के बाद बाबर ने humayun education का प्रबंध किया। दो अध्यापकों की नियुक्ति बाबर करदी थी। वे थे मौलाना मसीह-अल-दीन रूहुल्ला और मौलाना इलियास दोनों सुयोग्य प्राध्यापक थे। हुमायूँ का अर्थ ही धन्य है होता है। 

उनके संरक्षण में हुमायूँ थोड़े ही दिनों में तुर्की, अरबी और फारसी भाषा का अच्छा ज्ञाता बन गया।  हुमायूँ ने 29 अगस्त 1541 को हिन्दाल के गुरु मीर अली अकबर जामी की पुत्री हमीदा बानू humayun wife से विवाह किया। 1542 में अमरकोट के किले में अकबर का जन्म हुआ। इस समय अमरकोट का शासक वीरसाल था।

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हुमायु का राज्याभिषेक –

हुमायूँ 22 वर्ष की अवस्था में 29 दिसंबर 1530 ई को बादशाह बना। हुमायूँ को साम्राज्य विरासत में मिला वो फूलों की सेज न होकर काँटों का ताज था। क्योंकि बाबर का जीवन संघर्षों और युद्धों में ही बीत गया। बाबर एक अच्छा सेनानायक व योद्धा था परन्तु वह एक अच्छा प्रशासक न था। इसलिए हुमायूँ को जो राज्य मिला वह पूरी तरह से अस्त व्यस्त और हमला खोरो से भरा था। हुमायूँ के तीन भाई कामरान, अस्करी और हिन्दाल  थे। 

हुमायु का व्यवहारिक जीवन –

about humayun मात्र बौद्धिक विकास से बाबर संन्तुष्ट नहीं था , वह हुमायूँ को व्यावहारिक जीवन में भी प्रशिक्षित करना चाहता था।  यही कारण था कि मात्र 21 वर्ष की आयु में ही उसे बदख्शां का सूबेदार नियुक्ति किया गया। बाबर के भारतीय अभियान में हुमायूँ ने बदख्शां से एक सैनिक टुकड़ी लेकर साहयता की। पानीपत और खानवा के मैदान में उसने बाबर के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर युद्ध किया था। 

हुमायूँ की सैनिक क्षमता को ध्यान में रखकर बाबर ने उसे पुन बदख्शां का गवर्नर नियुक्त किया। बदख्शां में हुमायूँ 1527 ई. से 1529 ई. तक रहा था इस बिच उजवेगों को दबाने में हुमायूँ असफल रहा था । बाबर ने अपने गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर उसे आगरा बुला लिया, आगरा में कुछ दिन रहने के बाद हुमायूँ को संभल का जागीरदार नियुक्त किया गया ,संभल में हुमायूँ बीमार पड़ा। 

बीमारी की अवस्था में ही उसे आगरा लाया गया। बीमारी दूर होने जाने के बाद बाबर ने अपनी मृत्यु के निकट को देखते हुए सभी सरदारों की एक बैठक बुलाई और उसमें हुमायूँ को अपना उत्तराधिकार घोषित किया। 

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हुमायु की प्रारंभिक कठिनाइया –

मुग़ल साम्राज्य ज्वालामुखी के कगार पर खड़ा था,आंतरिक विद्रोह, साम्राज्य की अस्त-व्यस्तता, सगे-सम्बन्धियों की लोलुपता और सैनिकों के बीच असंतोष की स्थिति के कारण हुमायूँ के लिए दिल्ली की गद्दी फूलों की सेज के बदले काँटों का ताज साबित हुआ। विषम परिस्थिति को नियंत्रित करने के लिए कुशल, कूटनीतिज्ञ, योग्य सेनानायक और प्रतिभा के धनी शासक की अवाश्यकता थी। किन्तु दुर्भाग्यवश हुमायूँ की व्यक्तिगत खामियों के फलस्वरूप मुग़ल साम्राज्य की हालत बद-से-बदटार हो गई। 

उत्तराधिकार की रक्षा के लिए संघर्ष – 

बहुमुखी विरोध के बावजूद हुमायूँ राज्यारोहण के बाद मुग़ल साम्राज्य की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सक्रिय था। प्रारम्भिक अवस्था में भाग्य ने हुमायूँ का साथ दिया। वह मुग़ल साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर उसने अधिकार कायम करने के लिए हुमायूँ के युद्ध आक्रमण की नीति अपनाई थी । 

हुमायु का चौसा का युद्ध ( सन 25 जून 1539 )

यह जगह गंगा और कर्मनाशा नदी के बीच का क्षेत्र है वहाँ पर हुमायूँ और शेरशाह के बीच युद्ध हुआ। इसी युद्ध के बाद शेरखां ने शेरशाह की उपाधि धारण की थी। इस युद्ध में हुमायूँ की हार हुयी। इसीयुद्ध के बाद निजाम भिश्ती ने हुमायूँ की जान बचाई। बाद में हुमायूँ ने इसे कुछ समय के लिए राजा बना दिया था। फरिश्ता के अनुसार आधे दिन के लिए। जौहर आफ़तावची के अनुसार दो घंटे के लिए। गुलबदन बेगम के अनुसार दो दिन के लिए भिश्ती को राजा बनाया था।

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अफगानोसे युद्ध –

हुमायूँ की सबसे बङी कठिनाई उसके अफगान शत्रु थे, जो मुगलों को भारत से बाहर खदेङने के लिए लगातार प्रयत्नशील थे। हुमायूँ का समकालीन अफगान नेता शेरखाँ था, जो इतिहास में शेरशाह सूरी के नाम से विख्यात हुआ। हुमायूँ का कालिंजर आक्रमण मूलत बहादुर शाह की बढती हुई शक्ति को रोकने का प्रयास था। हुमायूँ के राजत्व काल में उसका अफगानों से पहला मुकाबला 1532ई. में दोहरिया नामक स्थान पर हुआ।

अफगानों का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया। लेकिन अफगानों की पराजय हुई। 1532ई में जब हुमायूँ ने पहली बार चुनार का घेरा डाला । उस समय यह किला अफगान नायक शेरखाँ के अधीन था। शेरखाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार ली तथा अपने लङके कुतुब खाँ के साथ एक अफगान सैनिक टुकङी मुगलों की सेवा में भेज दी। 1532ई. में बहादुर शाह ने रायसीन के महत्वपूर्ण किले को जीत लिया एवं 1533ई. में मेवाङ को संधि करने के लिए विवश किया।

बहादुरशाह ने टर्की के प्रसिद्ध तोपची रूमी खाँ की सहायता से एक अच्छा तोपखाना तैयार कर लिया था। हुमायूँ ने 1535-36ई. में बहादुर शाह पर आक्रमण कर दिया। बहादुरशाह पराजित हुआ। हुमायूँ ने माण्डू और चंपानेर के किलों को जीत लिया। 1534ई. में शेरशाह की सूरजगढ विजय तथा 1536ई. में फिरसे बंगाल को जीतकर बंगाल के शासक से 13 लाख दीनार लेने से शेरखाँ के शक्ति और सम्मान में बहुत अधिक वृद्धि हुई। फलस्वरूप शेरखाँ को दबाने के लिए हुमायूँ ने चुनारगढ का 1538ई. में दूसरा घेरा डाला और किले पर अधिकार कर लिया।

अकबर का जन्म –

बादशाह अकबर son of humayun 15अगस्त 1538ई. को जब हुमायूँ गौङ पहुँचा तो उसे वहाँ चारों ओर लाशों के ढेर तथा उजाङ दिखाई दिया। हुमायूँ ने इस स्थान का नाम जन्नताबाद रख दिया।बंगाल से लौटते समय हुमायूँ एवं शेरखाँ के बीच बक्सर के निकट चौसा नामक स्थान पर 29जून1539 को युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ की बुरी तरह पराजय हुई। हुमायूँ अपने घोङे सहित गंगा नदी में कूद गया और एक भिश्ती की सहायता से अपनी जान बचायी। हुमायूँ ने इस उपकार के बदले उसे भिश्ती को एक दिन का बादशाह बना दिया था।

विजय के पलस्वरूप शेरखाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की। तथा अपने नाम का खुतबा पढवाने और सिक्का ढलवाने का आदेश दिया 17मई1540ई. में कन्नौज ( बिलग्राम ) के युद्ध में हुमायूँ पुनः परास्त हो गया यह युद्ध बहुत निर्णायक युद्ध था। कन्नौज के युद्ध के बाद हिन्दुस्तान की सत्ता एक बार फिर अफगानों के हाथ में आ गयी। अपने निर्वासन काल के ही दौरान हुमायूँ ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू मीर अली की पुत्री हमीदाबानों बेगम से 29अगस्त 1541ई. में विवाह किया कालांतर में इसी से अकबर का जन्म हुआ।

हुमायु की कन्नौज – बिलग्राम की लड़ाई (17 मई 1540) अवं निर्वासित जीवन –

इस युद्ध में हुमायूँ हार गया और निर्वासित हो गया। कन्नौज से हारने के बाद वह क्रमश आगरा, दिल्ली और सिंध गया। बाद में बैरम खां की सलाह पर वह ईरान के शाह तहमास्प के दरबार में पहुँचा। यहाँ पर उसने शिया धर्म स्वीकार कर लिया। हुमायूँ ने तहमास्प से संधि की कि वह कांधार विजित कर उसे दे देगा। 1545 ईo में उसने कांधार जीतकर शाह को दे दिया। आगे शाह ने काबुल व गजनी को जीतने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। तब हुमायूँ ने कांधार को फिरसे अपने नियंत्रण में ले लिया। इसके बाद उसने काबुल जीता। इसी समय हुमायूँ की तरफ से युद्ध करते हुए हिन्दाल मारा गया था ।

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हुमायु ने कालिंजर पर आक्रमण किया –

Humayun – कालिंजर बुन्देलखंड में था. सैनिक रिष्टि से कालिंजर एक महत्त्वपूर्ण दुर्ग था ,कालिंजर का शासक प्रतापरूद्र कालपी पर अधिकार करना चाहता था। राज्यारोहण के पाँच महीने के बाद हुमायूँ ने कालिंजर पर 1531 ई. में आक्रमण किया। कालिंजर के दुर्ग पर मुग़ल सेना का घेरा कई महीने तक रहा था। इस बीच महमूद लोदी ने जौनपुर और उसके निकटवर्ती क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ऐसी स्थिति में हुमायूँ ने कालिंजर के शासक के साथ समझौता कर लिया था। 

कालिंजर के राजा प्रतापरूद्र ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हुमायूँ को उपहार के रूप में बारह मन सोना प्राप्त हुआ था ।  कालिंजर का राज्य नष्ट नहीं हुआ था। प्रतापरूद्र हुमायूँ का शत्रु बन गया और वह विरोधी अफगानों को सहायता देने लगा. इस प्रकार कालिंजर अभियान हुमायूँ की भूल थी। 

हुमायु का महमूद लोदी के विरुद्ध संघर्ष –

महमूद लोदी ने अफगानों को संगठित कर जौनपुर और आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया,हुमायूँ ने महमूद लोदी को दबाने के उदेश्य से कालिंजर का घेरा उठा लिया और आगरा लौटकर एक विशाल सेना के साथ जौनपुर ओअर अधिकार कर लिए. इस घटना के बाद महमूद लोदी मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध आक्रमण करने का साहस नहीं जुटा पाया।

कामरान का विद्रोह –

हुमायूँ को अफगानों एवं मिर्जाओं के साथ उलझा हुआ देखकर कामरान ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का निश्चय कर लिया. उसने अफगानिस्तान का प्रबंध असकरी को सौंपकर पंजाब,मुल्तान और लाहौर पर अधिकार कर लिया. हुमायूँ को विवशता में पंजाब, मुल्तान और लाहौर पर कामरान के अधिकार को मान्यता देनी पड़ी थी। 

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चुनार का घेरा –

चुनार का दुर्ग शेर खां के अधिकार में था,शेर खां कुशल कूटनीतिज्ञ था,वह मुगलों के साथ प्रत्यक्ष युद्ध कर अपनी सैन्य शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहता था, इसलिए उसने हुमायूँ के साथ समझौता कर लिया। हुमायूँ भी गुजरात के शासक बहादुरशाह को दबाना चाहता था।  संधि के लिए जब शेर खां के द्वारा पहल की गई तो हुमायूँ ने उसे स्वीकार कर लिया। चुनार का दुर्ग शेर खां को सौंप दी गई। 

शेर खां ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली और 500 अफगान सैनिकों ले साथ अपने पुत्र क़ुतब खां को हुमायूँ की सेवा में भेज दिया था। हुमायूँ शेर खां की चाल समझ नहीं पाया। शेर खां अपनी शक्ति बचाकर बंगाल-विजय करने में सफल हो गया चुनार का दुर्ग शेर खां को सौंप कर हुमायूँ ने भूल करदी थी। 

हुमायु की पुन राज्य प्राप्ति – 

सन1545 में हुमायूँ ने काबुल और कंधार पर अधिकार कर लिया। हिन्दुस्तान पर फिरसे अधिकार करने के लिए हुमायूँ 4 दिसंबर 1554 ई. को पेशावर पहुँचा। फरवरी 1555 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। 15मई 1555 ई. को ही मुगलों और अफगानों के बीच सरहिन्द नामक स्थान परयुद्ध हुआ इस युद्ध में अफगान सेना का नेतृत्व सिकंदर सूर तथा मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने किया ।

Humayun  – अफगान बुरी तरह पराजित हुए। सरहिन्द के युद्ध में मुगलों की विजय ने उन्हें भारत का राज सिंहासन एक बार फिर से प्रदान कर दिया। इस प्रकार 23 जुलाई 1555 ई. हुमायूँ एक बार फिर से दिल्ली के तख्त पर बैठा।किन्तु वह बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सका। दुर्भाग्य से एक दिन जब वह दिल्ली में दीनपनाह भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढियों से उतर रहा ता वह गिरकर मर गया। और इस प्रकार वह जनवरी 1556ई. में इस संसार से विदा हो गया। 

लेनपूल ने हुमायूँ पर टिप्पणी करते हुए कहा -“हुमायूँ जीवनभर लङखङाता रहा और लङखङातें हुए अपनी जान दे दी।” हुमायूँ ज्योतिष में एधिक विश्वास करता था। इसलिए वह सप्ताह में सातों दिन सात रंग के कपङे पहनता था। मुख्यत वह इतवार को पीले, शनिवार को काले एवं सोमवार को सफेद रंग के कपङे पहनता था। हुमायूँ अफीम का बहुत शौकीन था। मुगल बादशाहों में हुमायूँ ही एकमात्र शासक था जिसने अपने भाइयों में साम्राज्य का विभाजन किया था।

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हुमायु की मृत्यु – Humayun Death

जनवरी 1556 में दीनपनाह नगर में पुस्तकालय ( शेरमण्डल ) की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूँ की मृत्यु हो गयी। इसकी मृत्यु का समाचार 17 दिनों तक गुप्त रखा गया। इसके लिए मुल्ला बेकसी ( हुमायूँ का हमशक्ल ) का जनता को दर्शन कराया गया। इसकी मृत्यु पर लेनपूल ने कहा “जीवन भर लुढ़कते रहने के बाद अंत में हुमायूँ की मृत्यु लुढ़ककर ही हो गयी”। हुमायूँ के मकबरे का निर्माण (humayun ka maqbara builtby )उसकी पत्नी हाजी बेगम ने दिल्ली में कराया। इसी के मकबरे को एक वफादार बीबी की महबूबाना पेशकश कहा जाता है।

Humayun History Video –

Humayun Interesting Fact –

  • 1531 ईo में अपने पहले अभियान में कालिंजर के चंदेल शासक प्रताप रुद्रदेव को हराया।
  • 1533 ईo में दीनपनाह नगर की स्थापना की थी।
  • हुमायूँनामा की रचना गुलबदन बेगम ने की।
  • हुमायूँ ज्योतिष में विश्वास करता था और सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग रंग के कपड़े पहनता था।
  • भाइयों में साम्राज्य का बंटवारा करने वाला एक मात्र मुग़ल शासक।

Humayun Questions

हुमायूं नामा किसने लिखा था ?
गुलबदन बेगम हुमायूं की सौतेली बहन थी। उसे अपने भाई हुमायूं के जीवन चित्र हुमायूं नामा को लिखा है।
अकबर के पुत्र का नाम ?

मुग़ल सम्राट अकबर के तीन बेटे थे ,दो बेटों मुराद और दानियाल की मौत हुई थी एव सलीम पिता की मृत्यु के बाद जहाँगीर के नाम से राजा बना था।

हुमायूं की कितनी पत्नियां थी ?
हमीदा बानु बेगम,बेगा बेगम,बिगेह बेगम,चाँद बीबी,हाजी बेगम ,माह-चूचक मिवेह-जान शहज़ादी खानम हुमायूं की पत्नियां थी। 
हुमायूं की मृत्यु कैसे हुई ?
1 जनवरी 1556 को दीन पनाह भवन में सीढ़ियों से गिरने से हुमायूं की मौत हो गई थी। 
हुमायूं की प्रारंभिक कठिनाइयां क्या थी ?
उनके भाइयों और रिश्तेदारों का अनुचित व्यवहार,.अफ़गानों और राजपूतों का शत्रुता मुख्य था।

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Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल हुमायूँ ki history in hindi बहुत अच्छी तरह से समज और पसंद आया होगा। इस लेख के जरिये  हमने  humayun death reason और humayun achievements से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है। अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है। तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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Jahangir Biography In Hindi Me Janakari - Thebiohindi

Jahangir Biography In Hindi – जहाँगीर की जीवनी हिंदी

नमस्कार मित्रो आज के हमारे लेख में आपका स्वागत है। आज हम Jahangir Biography In Hindi , में मुग़ल सम्राट अकबर के पुत्र मिर्जा नूर-उद-दीन बेग मोहम्मद खान सलीम , यानि जहांगीर का जीवन परिचय बताने वाले है। 

जहांगीर का जन्म 31 अगस्त 1569 को फतेहपुर सीकरी में हुआ था। आध्यात्मिक संत शेख सलीम चिश्ती की मन्नत से बेटे का जन्म होने के कारण ही उसका नाम “सलीम” रखा गया था। आज हम jahangir tomb ,jahangir mahal और jahangir son से रिलेटेड सभी जानकारी से हमारे दर्शको को जहांगीर का इतिहास से ज्ञात करवाने वाले है।  

jahangir in hindi  में आपको बतादे की वयस्क होने पर सलीम ने पिता अकबर के विरूद्ध विद्रोह करके इलाहाबाद को अपना स्वतंत्र राज्य की घोषणा कर दी थी। वह सेना लेकर आगरा की ओर बढ़ा , पर सम्राट की शक्ति के सामने उसे वापस इलहाबाद लौटना पड़ा था। यह जहाँगीर नामा में सब लिखा हुआ है। जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ उसकी प्रिय बेगम थी। तो चलिए सबको ले चलते है। जहाँगीर हिस्ट्री इन हिंदी की सम्पूर्ण माहिती बताने के लिए। 

Jahangir Biography In Hindi –

नाम  मिर्जा नूर-उद-दीन बेग मोहम्मद खान सलीम
जन्म  31 अगस्त 1569
जन्म स्थान  फतेहपुर सीकरी, मुगल साम्राज्य
पिता  अकबर
माता  मरियम
jahangir wife  नूर जहां, साहिब जमाल, जगत गोसेन,मलिक जहां, शाह बेगम,   खास महल,करमसी, सलिहा बानु बेगम, नूर-अन-निसा बेगम,
बच्चे खुसरो मिर्जा, खुर्रम मिर्जा (शाहजहां),परविज मिर्जा, शाहरियर  मिर्जा, जहांदर मिर्जा,इफत बानू बेगम, बहार बानू बेगम, बेगम  सुल्तान बेगम,सुल्तान-अन-निसा बेगम, दौलत-अन-निसा बेगम,
मृत्यु 28 अक्टूबर 1627, राजोरी, कश्मीर

जहांगीर का जीवन परिचय – Jahangir Biography

jahangir mother का नाम मरियम और सन1605 में jahangir father अकबर की मृत्यु के बाद सलीम जहांगीर के नाम से गद्दी पर बैठा था  इस बार उसके पुत्र खुसरो ने उसके विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी लेकिन कुछ ही समय में खुसरो की मृत्यु हो गयी। सत्ता संघर्ष के चलते जहांगीर ने पहले अकबर के विश्वस्त मंत्री अबुल फजल की और फिर खुसरो की मदद करने की गलतफहमी में सिखों के गुरु अर्जुन देव की हत्या करा दी। 1611 में जहांगीर ने गयास बेग की पुत्री मेहरुनिस्सा से विवाह किया और उसे “नूरजहाँ” का खिताब अता फरमाया। 

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जहांगीर का शासन – 

जहांगीर ने राज्य की सारी शक्ति भी नूरजहाँ के हाथो में सौंप दी | सिक्को पर उसका नाम ढाला गया | नूरजहाँ ने बेशक अपने नाम को सार्थक किया और कई बार जहांगीर को संकटो से भी उभरा। शहजादा खुर्रम द्वारा बगावत का झंडा बुलंद करने के बाद जब सिपाहसलार महावत खां ने भी बगावत कर दी और जहागीर को कैद कर लिया तो नूरजहाँ ने बड़े कौशल से सम्राट को मुक्त कराया था |

Jahangir Biography – अकबर के तीन लड़के थे। सलीम, मुराद और दानियाल (मुग़ल परिवार)। मुराद और दानियाल पिता के जीवन में शराब पीने की वजह से मर चुके थे। सलीम अकबर की मृत्यु पर नुरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर के उपनाम से तख्त नशीन हुआ। सन 1605 में कई उपयोगी सुधार लागू किए। कान और नाक और हाथ आदि काटने की सजा रद्द कीं। शराब और अन्य नशा हमलावर वस्तुओं का हकमा बंद किया था। 

कई अवैध महसूलात हटा दिए। प्रमुख दिनों में जानवरों का ज़बीहह बंद. फ़्रीआदीं की दाद रस्सी के लिए अपने महल की दीवार से जंजीर लटका दी। जिसे जंजीर संतुलन कहा जाता था। सन 1606 में उसके सबसे बड़े बेटे ख़ुसरो ने विद्रोह कर दिया। और आगरे से निकलकर पंजाब तक जा पहुंचा। जहांगीर ने उसे हराया।  सखोंकेगोरो अर्जुन देव जो ख़ुसरो की मदद कर रहे थे। शाही इताब में आ गए।

राणा अमर सिंह को हराया –

सन 1614 में राजकुमार खुर्रम शाहजहान ने मेवाड़ के राणा अमर सिंह को हराया। सन 1620 में कानगड़ह स्वयं जहांगीर ने जीत लिया। सन 1622 में कंधार क्षेत्र हाथ से निकल गया। जहांगीर ही समय में अंग्रेज सर टामस रो राजदूत द्वारा, पहली बार भारतीय व्यापारिक अधिकार करने के इरादे से आए। सन 1623 में खुर्रम ने विद्रोह कर दिया।

क्योंकि नूरजहाँ अपने दामाद नगरयार को वली अहद बनाने की कोशिश कर रही थी।   सन 1625 में बाप और बेटे में सुलह हो गई। सम्राट जहांगीर अपनी तज़क जहांगीर मैन लिखते हैं कि इत्र गुलाब मेरे युग सरकार में नूर जहां बेगम की मां ने आविष्कार किया था।

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जहांगीर का व्यक्तित्व – Jahangir Biography

सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था ,लेकिन उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था। अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था। उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था  किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था। अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं। 

मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है−’हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था। प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे। इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि, यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते थे। बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी। हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने के समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।’ जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी।

यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था। वह अरबी, फ़ारसी और ब्रजभाषा−हिन्दी का ज्ञाता तथा फ़ारसी का अच्छा लेखक था। उसकी रचना ‘तुज़क जहाँगीर’ (जहाँगीर का आत्म चरित) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है।

जहांगीर के मुख्य कार्य – Jahangir Biography

जहाँगीर के द्वारा आगरा में स्थापित की गयी न्याय की श्रंखला मुख्य कार्य था। इसकी श्रंखला कई घंटियों से बंधी थी जिसे राजा को संदेसा देने के लिए काम में लिया जाता था । यह कार्य राजा और जनता के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिहाज़ से बहुत अहम था। इसे बजने वाले नागरिको की फरियाद राजा खुद सुनते थे।

निजी जिंदगी – Jahangir Biography

जहाँगीर की कई बार शादी हुई। उनकी सबसे मशहूर पत्नी नूरजहाँ थी . जोकि एक बागी अधिकारी शेर अफ़ग़ान की विधवा थी।

जहाँगीर का सैन्य जीवन –

सन् 1494 में 12 वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया । उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया । कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे । 1497 में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और ७ महीनों के बाद उसे जीत भी लिया । इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया ।

जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनो उसके हाथों से चले गए । सन् १५०१ में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शायबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया।

फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तील सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया । इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया । सन् १५०४ में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे ।

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जहांगीर का विवाह और बच्चे –

अकबर का इकलौता बारिस होने के कारण और वैभव-विलास में पालन-पोषण की वजह से जहांगीर एक बेहद शौकीन और रंगीन मिजाज का शासक था, जिसने करीब 20 शादियां की थी, हालांकि उनकी सबसे चहेती और पसंदीदा बेगम नूर जहां थीं। वहीं उनकी कई शादियां राजनीतिक कारणों से भी हुईं थी।

16 साल की उम्र में जहांगीर की पहली शादी आमेर के राजा भगवान राज की राजकुमारी मानबाई से हुई थी। जिनसे उन्हें दो बेटों की प्राप्ति हुई थी। वहीं जहांगीर के बड़े बेटे खुसरो मिर्जा के जन्म के समय मुगल सम्राट जहांगीर ने अपनी पत्नी मानबाई को शाही बेगम की उपाधि प्रदान की थी। इसके बाद जहांगीर कई अलग-अलग राजकुमारियों से उनकी सुंदरता पर मोहित होकर शादी की।

आपको बता दें साल 1586 में जहांगीर ने उदय सिंह की पुत्री जगत गोसन की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे विवाह किया। जिनसे उन्हें दो पुत्र और दो पुत्रियां पैदा हुईं। हालांकि, इनमें से सिर्फ एक ही पुत्र खुर्रम जीवित रह सका, अन्य संतान की बचपन में ही मौत हो गई। बाद में उनका यही पुत्र सम्राट शाहजहां के रुप में मुगल सिंहासन पर बैठा और मुगल साम्राज्य का जमकर विस्तार किया,

वहीं शाहजहां को लोग आज भी सात आश्चर्यों में से एक ताजमहल के निर्माण के लिए याद करते हैं। जहांगीर के अपनी सभी पत्नियों से पांच बेटे खुसरो मिर्जा, खुर्रम मिर्जा (शाहजहां), परविज मिर्जा, शाहरियर मिर्जा, जहांदर मिर्जा और इफत बानू बेगम, बहार बानू बेगम, बेगम सुल्तान बेगम, सुल्तान-अन-निसा बेगम,दौलत-अन-निसा बेगम नाम की पुत्रियां थी।

जहांगीर की प्रिय बेगम नूरजहां से रिश्ते –

ऐसा कहा जाता है कि जब पहली बार मुगल सम्राट जहांगीर ने मिर्जा ग्यास बेद की बेटी मेहरून्निसा उर्फ नूरजहां को देखा था। तो वे उनकी खूबसूरती से इतने मोहित हो गए थे, कि उन्होंने उनसे निकाह करने का फैसला लिया था। आपको बता दें कि मेहरून्निसा को अपने पति अलीकुली बेग की मौत के बाद अकबर की विधवा सलीमा बेगम की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था।

1611 ईसवी में सम्राट जहांगीर ने मेहरून्निसा की खूबसूरती पर लट्टू पर विधवा मेहरुन्निसा से शादी कर ली। वहीं शादी के बाद सम्राट जहांगीर ने उसे नूरमहल और नूरजहां की उपाधि दी थी। इसके साथ ही जहांगीर ने अपने राज्य की सारी शक्तियां भी नूरजहां बेगम के हाथों में सौंप दी थी। नूरजहां को इतिहास में एक साहसी महिला के रुप में भी जाना जाता है, क्योंकि वह जहांगीर के साथ उनके राजकाज में हाथ बंटाती थी। 

वहीं जहांगीर अपने शासनकाल में सभी महत्वपूर्ण फैसलें नूरजहां की सलाह से ही लेता था। वहीं 1626 ईसवी में नूरजहां बेगम ने इतमाद-उद-दौला का मकबरे का निर्माण करवाया था, यह मुगलकालीन वास्तुकला से बनाई गई पहली ऐसी इमारत थी जो सफेद संगमरमर से बनी थी।

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जहांगीर चित्रकला का गूढ़ प्रेमी था –

मुगल सम्राट जहांगीर चित्रकला का बेहद शौकीन था, वे अपने महल में कई अलग-अलग तरह के चित्र इकट्ठे करते रहते थे उसने अपने शासनकाल में चित्रकला को काफी बढ़ावा भी दिया था। यही नहीं जहांगीर खुद के एक बेहतरीन आर्टिस्ट थे। मनोहर और मंसूर बिशनदास जहांगीर के शासनकाल के समय के मशहूर चित्रकार थे।

जहांगीर के शासनकाल को चित्रकला का स्वर्णकाल भी कहा जाता है। वहीं मुगल सम्राट ने जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है कि “कोई भी चित्र चाहे वह किसी मृतक व्यक्ति या फिर जीवित व्यक्ति द्वारा बनाया गया हो, मैं देखते ही तुरंत बता सकता हुँ कि यह किस चित्रकार की कृति है।

जहांगीर के खिलाफ खुशरो का विद्रोह और पांचवे सिख गुरु की हत्या –

मुगल सम्राट जहांगीर जब मुगल सिंहासन की बागडोर संभाल रहे थे, तभी उनके सबसे बेटे खुसरो ने सत्ता पाने के लालच में अपने पिता जहांगीर पर 1606 ईसवी में षणयंत्र रच आक्रमण करने का फैसला लिया था। जिसके बाद जहांगीर की सेना और खुसरो मिर्जा के बीच जलांधर के पास युद्ध हुआ और जहांगीर की सेना खुसरो को हराने में सफल रही और इसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। 

इसके कुछ समय बाद ही खुसरो की मृत्यु हो गई थी . वहीं जहांगीर को जब पता चला कि खुसरो द्धारा उनके खिलाफ विद्रोह में सिखो के 5वें गुरु अर्जुन देव ने मदद की है, तो उन्होंने अर्जुन देव की हत्या करवा दी।

जहांगीर का इंसाफ –

जहांगीर ने कुशल और आदर्श शासक के रुप में अपने शासनकाल में न्याय व्यवस्था को ठीक करने के भी उचित कदम उठाए। जहांगीर जनता के कष्टों और मामलों को खुद भी सुनता था। और उनकी समस्याओं का हल करने की पूरी कोशिश करता था, एवं उन्हें न्याय दिलवाता था। इसके लिए जहांगीर ने आगरे के किले शाहबुर्ज और यमुना तट पर स्थित पत्थर के खंबे में एक सोने की जंजीर बंधवाई थीं। 

जिसमें करीब 60 घंटियां भी लटकी हुई थी, जो कि “न्याय की जंजीर” के रुप में प्रसिद्ध हुई। दरअसल, कोई भी फरियादी मुश्किल के समय इस जंजीर को पकड़कर खींच सकता था और सम्राट जहांगीर से न्याय की गुहार लगा सकता था। करीब 40 गज लंबी इस “न्याय की जंजीर” को बनवाने में काफी ज्यादा लागत खर्च हुई थी। वहीं जहांगीर को न्याय की जंजीर के लिए आज भी याद किया जाता है।

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जहांगीर की मृत्यु –

Jahangir Biography – साल 1627 में जब मुगल सम्राट जहांगीर कश्मीर से वापस लौट रहा था, तभी रास्ते में लाहौर (पाकिस्तान) में तबीयत बिगड़ने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद, जहांगीर के मृत शरीर को अस्थायी रूप से लाहौर में रावी नदी के किनारे बने बागसर के किले में दफनाया गया था। फिर बाद में वहां जहांगीर की बेगम नूरजहां द्धारा जहाँगीर का मकबरा बनवाया गया, जो आज भी लाहौर में पर्यटकों के आर्कषण का मुख्य केन्द्र है। वहीं जहांगीर की मौत के बाद उसका बेटा खुर्रम (शाहजहां) मुगल सिंहासन का उत्तराधिकारी बना।

Jahangir History In Hindi –

जहांगीर के रोचक तथ्य –

  • जहांगीर ने सिखों के गुरु अर्जुन देव की हत्या करा दी थी।   
  • अय्याश शाहजहान के अपने सगी बेटी से ही थे नाजायज़ संबंध थे। 
  • 1605 में जहांगीर ने शराब और अन्य नशा हमलावर वस्तुओं का हकमा बंद किया था।  
  • सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था ,लेकिन उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था।
  • जहांगीर मदिरा−पान को अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था।
  • उसकी रचना ‘तुज़क जहाँगीर’ (जहाँगीर का आत्म चरित) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है।

Jahangir Biography Questions –

जहाँगीर की माता का नाम ?
मरियम-उज-ज़मानी जहाँगीर की माता थी। 
जहाँगीर किसका पुत्र था  ?
मुग़ल बादशाह अकबर जहाँगीर के पिता थे। 
जहाँगीर की पत्नी का नाम ?
मुग़ल जहांगीर को  20 पत्निया थी उसमे से नूर जहां उन्हें बहुत ज्यादा प्रिय थी।  
जहाँगीर की माँ कौन थी  ?
मरियम-उज-ज़मानी जहाँगीर की माँ थी। 
जहांगीर के पिता का नाम ?
बादशाह अकबर जहांगीर के पिता थे। 
जहांगीर के कितने पुत्र थे ?
मुग़ल जहांगीर के 4 पुत्र थे
जहांगीर की मृत्यु कैसे हुई ?
कश्मीर से लाहौर जाते वक्त जहांगीर की मौत हुई थी। 
जहांगीर के पुत्र का नाम \ जहांगीर का बेटा कौन था?
निसार बेगम खुसरौ,मिर्ज़ा परवेज़ बहार बनू ,बगुम शाह जहाँ और शहरयार जहाँदार जहांगीर के पुत्र के नाम है। 

इसके बारेमेभी पढ़िए :-प्रथम विश्व युद्ध की पूरी जानकारी

Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल Jahangir Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज आ गया होगा  इस लेख के जरिये  हमने jahangir and anarkali और jahangir palace से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है  . अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे  . जय हिन्द । –

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Babar Biography Hindi Me Janakari - Thebiohindi

Babar Biography In Hindi – बाबर का जीवन परिचय हिंदी

हमारे लेख में आपका स्वागत है। नमस्कार मित्रो आज के हमारे आर्टिकल , Babar Biography In Hindi में हम अपनी क्रूरता बहुत प्रचलित हुए बाबर का जीवन परिचय देने वाले है। 

उसने भारत के तत्कालीन सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी। वह इतना क्रूर थाकि हजारों लोगों की हत्या करवा दी थी। इस पोस्ट में babar history में आपको babar father name ,babar family और babar son की माहिती बताने वाले है। बाबर का पूरा नाम “ज़हिर उद-दिन मुहम्मद बाबर” था।

बाबर के पिता की मौत के बाद उसने सिर्फ 11 साल में ही शासन करना शुरू कर दिया था। कम उम्र में ही उसने बहुत से युद्ध लड़े थे। जिस कारण उसने युद्ध कौशल में महारत हासिल कर ली थी। वैसे तो बाबर का इतिहास देखा जाये तो बाबर के वंशज कई सालो से शाशन करते थे। लेकिन उन्होंने मुग़ल साम्राज्य को बहुत विस्तार करके मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी। तो चलिए मुगल साम्राज्य का इतिहास बताते है। 

Babar Biography In Hindi –

 नाम  जहीर उद -दिन मुहमद बाबर
 जन्म  23 फरवरी 1483
 जन्म स्थान  उज़्बेकिस्तान
 पिता  उमर शेख मिर्जा
 माता  कुतलुग निगार खानम
 पत्निया  11
 बच्चे  20
 मृत्यु   26 दिसम्बर 1530

बाबर का जन्म – Babar Biography

23 फरवरी 1483 को फरगना घाटी, उज़्बेकिस्तान में हुआ था। उसके पिता का नाम उमर शेख मिर्जा था जो फरगना घाटी के शासक थे। बाबर की माता का नाम कुतलुग निगार खानम था। बाबर अपने पिता की तरफ से तैमूर का वंशज था और अपनी मां की तरफ से चंगेज खान का वंशज था। युद्ध कौशल और कुशल प्रशासन उसके खून में था। मुग़ल बाबर की मातृभाषा चगताई भाषा थी लेकिन वहां पर फारसी भाषा अधिक बोली जाती थी।

बाबर फारसी भाषा में प्रवीण था। उसने बाबरनामा ग्रंथ चगताई भाषा में लिखा है। Babar Biographyकहते हैं कि बाबर के पिता उमर शेख को शराब पीने का बड़ा शौक था। वह बाबर को भी चखने के लिए देता था। बाबर की नसों में तुर्कों के साथ मंगोलों का भी रक्त था। बादशाह बाबर ने काबुल पर अधिकार कर स्वयं को मुगल प्रसिद्ध किया था। बाबर ने छल कपट से काबूल पर कब्जा किया था।

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बाबर की शारीरिक क्षमता –

Babar Biography – कहा जाता है कि बाबर शरीर से बहुत शक्तिशाली था। वह व्यायाम करना पसंद करता था। व्यायाम करने के लिए वह दोनों कंधों पर दो लोगों को लादकर दौड़ लगाता था। अपने रास्ते में आने वाली नदियों को तैर कर पार करता था। बाबर ने गंगा नदी को दो बार तैर कर पार किया था।

बाबर की पत्निया – Babar Biography

कहा जाता है कि बाबर की कुल 11 पत्नियां थी जिससे उसको कुल 20 बच्चे हुए थे। आयशा सुल्तान बेगम, जैनाब सुल्तान बेगम, मौसम सुल्तान बेगम, महम बेगम, गुलरूख बेगम, दिलदार बेगम, मुबारका युरुफजई और गुलनार अघाचा उसकी बेगम थी। बाबर ने अपने बड़े बेटे हुमायूं को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।

बाबर की मुख्य प्रजा – Babar Biography

Babar Biography – फारसी में मंगोल जाति को मुगल कहकर पुकारा जाता था। बाबर की प्रजा में मुख्यतः फारसी और तुर्क लोग शामिल थे। उसकी सेना में फारसी। तुर्क, मध्य एशियाई कबीले के अलावा पश्तो और बर्लाव जाति के लोग शामिल थे।

बाबर का भारत में आगमन – Babar Biography

मुगल सम्राट बाबर मध्य एशिया पर राज करना चाहता था। उसकी नजर भारत पर पड़ी। उन दिनों भारत की राजनीतिक दशा खराब थी। यहां के राजा एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त थे। यह स्तिथि बाबर को फायदेमंद लगी। उस समय दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी था जो बहुत सी लड़ाइयां हार रहा था। उसके हाथ से शासन धीरे-धीरे निकलता जा रहा था। उत्तरी भारत में क्षेत्रों पर अफगान और राजपूत राज कर रहे थे।

इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खान इब्राहिम लोधी के काम से संतुस्ट नहीं थे। वे खुद दिल्ली के सल्तनत पर कब्जा करना चाहते थे। उनको बाबर के बारे में जानकारी थी। तब आलम खान और दौलत खान ने बाबर को भारत आने का न्योता भेजा। बाबर को यह फायदे की बात लगी और अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए वह दिल्ली आ गया।

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भारत पर बाबर का पहला आक्रमण –

Babar Biography – बाबर ने भारत पर पहला आक्रमण सन 1519 में बाजौर पर किया था और भेरा के किले को जीता था। बाबरनामा में इस घटना का उल्लेख मिलता है। इस युद्ध में बाबर ने पहली बार बारूद और तोपखाने का इस्तेमाल भी किया था।

पानीपत का प्रथम युद्ध -बाबर इब्राहिम लोदी –

पानीपत की पहली लड़ाई में मुगलों का उदय हुआ, जिसमे भारतीय इतिहास में सबसे ताकतवर शक्तियों का इस्तेमाल हुआ। इतिहास के अनुसार यह सबसे पुराना भारतीय युद्ध था, जिसमे गनपाउडर आग्नेयास्त्रों और क्षेत्रीय सेना का उपयोग किया गया था। लड़ाई दो बड़ी-शक्तियों, बाबर, तत्कालीन काबुल के शासक और दिल्ली सल्तनत के राजा इब्राहिम लोधी के बीच हुई थी। यह पानीपत (वर्तमान दिन हरियाणा) के पास लड़ा गया था।

यद्यपि बाबर के पास 8,000 सैनिकों की लड़ाकू सेना थी और लोदी के पास लगभग 40000 सैनिक के साथ 400 युद्ध हाथी थे। फिर भी मुख्य तत्व है कि बाबर के लिए युद्ध क्षेत्र में तोप का उपयोग उसके लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ। सैनिको से लड़ने और पराजित करने के अलावा, हाथियों को डराने के लिए तोपें एक शक्तिशाली और उनके बीच तबाही का कारण था।

बाबर की विजयी हुई और उसने मुगल साम्राज्य की स्थापना की, जबकि इब्राहिम लोदी युद्ध में मारे गए। मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह भी चाहते थे कि बाबर इब्राहिम लोदी से युद्ध करें क्योंकि इब्राहिम लोदी उनका शत्रु था। राणा सांगा ने भी बाबर को भारत आकर इब्राहिम लोदी से युद्ध करने का निमंत्रण दिया था। बाबर को इस युद्ध में जीत मिली थी। खुद को हारता देख कर इब्राहिम लोदी ने स्वयं मौत को गले लगा लिया था।

भारत में बाबर का रह जाना –

हिन्दुस्तानी राजाओ को लगता था कि बाबर “पानीपत का पहला युद्ध” जीतकर वापस चला जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ। भारत बाबर भारत में ही रह गया। और आज भी उनके वंशज भारत में रहा करते है। 

खानवा की लड़ाई बाबर और राणा संग्रामसिंह –

मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह को लगता था कि बाबर “पानीपत का प्रथम युद्ध” जीतकर वापस चला जाएगा, पर बाबर ने भारत में रहने का मन बना लिया और राणा संग्राम सिंह को युद्ध के लिए चुनौती दे दी। इसके परिणाम स्वरूप खंडवा की लड़ाई हुई।

यह लड़ाई 17 मार्च 1527 ई० को खनवा स्थान पर लड़ा गया। इस युद्ध में राजपूत वीरता से लड़े, पर बाबर के पास बारूद और तोपखाने थे जिसका सामना राजपूत नहीं कर पाए और इस युद्ध में वे हार गये। मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह ने खुद को हारता देखकर आत्महत्या कर ली।

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घागरा की लड़ाई –

बाबर मेवाड़ के राजा राणा संग्राम सिंह को हरा चुका था, पर इसके बावजूद उसके लिए कई चुनौतियां मौजूद थी। बिहार और बंगाल में अफगानी शासक राज कर रहे थे, जो बाबर को भारत से बाहर भगाना चाहते थे। मई 1529 को बाबर और अफगान शासको में युद्ध हुआ। यह युद्ध घागरा स्थान पर लड़ा गया। बाबर को इस युद्ध में जीत मिली। इस युद्ध के बाद बाबर और उसकी सेना ने भारत के राज्यों को लूटना शुरू किया।

बाबरी मज्जिद –

ऐसा माना जाता है कि बाबर ने अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में राम मंदिर को ध्वस्त करके वहां पर babari masjid का निर्माण करवाया था। 6 दिसंबर 1992 को राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू हुआ और कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। जो वर्तमन समय के माननीय मुख्य प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर निर्माण करवा रहे है। 

बाबर की हिन्दुओ पर क्रूरता –

भारत में जीतने के बाद बाबर का साम्राज्य स्थापित हो गया। बाबर की सेना भारत में जमकर लूटपाट करने लगी। उसकी क्रूरता के बहुत से उदाहरण देते हैं। बाबर अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर नरसंहार भी करता था। लोगों की हत्या करने में उसे किसी प्रकार का संकोच या ग्लानि नहीं होती थी।

इसके प्रमाण इतिहास में मिलते हैं। बाबर बहुत अधिक धार्मिक प्रवृत्ति वाला नहीं था, इसलिए उसने यहां के हिन्दुओ का जबरन इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने की कोशिश नही की। वह स्वभाव से अइयाश किस्म का शासक था। उसने आगरा (उत्तर प्रदेश) में एक सुंदर सा बगीचा बनवाया था।

भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना –

भारत में बाबर के आगमन के बाद ही मुगल साम्राज्य की स्थापना हो गई थी। बाबर ने पंजाब, दिल्ली और बिहार राज्यों को जीता था। मरने से पहले उसने बाबरनामा नामक किताब लिखी थी जिसमें उसने सभी बातों का उल्लेख किया है।

बाबर का अवसान –

बादशाह बाबर की मृत्यु 26 दिसम्बर 1530 को आग्रा में हुई थी। उस समय आगरा मुगल साम्राज्य में हिस्सा था। मरने से पहले बाबर ने हुमायूं को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।

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बाबर की कुछ दिलचस्प बाते –

  • 1930-40 में बाबर ने राज करने वाले एक मराठी हाकिम का उदाहरण देते हुए कहा कि उसने अपनी भाषा में उर्दू और फ़ारसी शब्दों से पाक करने के लिए एक फ़रमान जारी किया था। 
  • एक सलाहकार ने कहा कि हुज़ूर ‘फ़रमान’ समेत आपके फ़रमान में इस्तेमाल किए गए 40 प्रतिशद शब्द फ़ारसी और उर्दू के हैं। 
  • प्रोफ़ेसर मुखिया के अनुसार तुर्क भाषा में कविता लिखने वाली दो बड़ी हस्तियां गुज़रीं, उनमें से एक बाबर थे। 
  • बाबर की कठोरता की मिसालें मिलती हैं, लेकिन उनकी मृदुलता के भी कई उदाहरण हैं।  एक बार वे जंग की तैयारी में लगे थे कि किसी ने उन्हें ख़रबूज़ पेश किया।  बाबर ख़ुशी के मारे रो पड़े। सालों से उन्होंने ख़रबूज़े की शकल नहीं देखी थी। 
  • बाबर 12 वर्ष की उम्र में राजा बने, लेकिन 47 साल की उम्र में मरते दम तक वे युद्ध में जुटे रहे। इसके बावजूद बाबर ने पारिवारिक ज़िम्मेदारियां निभाईं।
  • उनकी ज़िन्दगी पर माँ और नानी का गहरा असर था जिन्हें वे बेइंतहा प्यार करते थे। वह अपनी बड़ी बहन के लिए एक आदर्श भाई थे। 
  • मुग़ल बादशाह हुमांयूं बाबर के सबसे बड़े बेटे थे। उनके लिए बाबर एक समर्पित पिता थे। हुमांयूं एक बार बहुत बीमार पड़ गए।  बाबर ने बीमार हुमांयू के जिस्म के तीन गर्दिश किए और ख़ुदा से दुआ मांगी कि उनके बेटे को स्वस्थ कर दे। 

बाबर की आत्मकथा ( बाबर नामा ) –

बाबरनामा बाबर की आत्मकथा है। बाबर ने इसे तुर्की भाषा में लिखा था। ऐतिहासिक रूप से इस किताब को बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है। बाबरनामा की विशेषता यह है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में अपने चरित्र को इस तरह से पेश किया है कि एक बार तो लगता है कि जो बाते उसके बारे में बताई जाती है क्या वह वाकई सच हैं। इस किताब में उसने अपने आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा के बारे में भी लिखा है।

पानीपत और खानवा के युद्ध में अपनाई गई तुलुग्मा युद्ध प्रणाली की भी इसमें जानकारी है। बाबर ने लिखा है कि हिंदुस्तानियों ने खुलकर उससे दुश्मनी निभाई। जहां भी उसकी सेना गई हिंदुस्तानियों ने अपने घरो को जला दिया और कुओं में जहर डाल दिया। इस किताब की मूल प्रति में सुंदर चित्रों के द्वारा भारत के बारे में समझाया गया है। इसमें कुल 378 पेज हैं और इनमें से 122 पर 144 चित्र हैं।

babar hindi अनुवाद बाबरनामा के नाम से साहित्य अकादमी ने 1974 में प्रकाशित किया था। अनुवादक युगजीत नवलपुरी हैं। अंग्रेजी संस्मरण की भूमिका में एफजी टैलबोट ने लिखा है। बाबर ने अपनी किताब में हिंदुस्तान के बारे में हर वह चीज के बारे में लिखा है जो उसने देखी। इसी तरह उसने भारत के मंदिरों, देवताओं, पवित्र धार्मिक स्थानों का वर्णन नहीं किया है।

बाबर के कुछ किस्से – Babar Biography

  • बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक ए बाबरी’ में लिखा कि उसका पहला शिक्षक शेख मजीद बेग एक बड़ा अय्याश था इसलिए बहुत गुलाम रखता था।
  • दूसरे शिक्षक कुलीबेग के बारे में लिखा कि वह न नमाज पढ़ता था, न रोजा रखता था, वह बहुत कठोर भी था। तीसरे शिक्षक पीर अली दोस्तगाई के बारे में उसने लिखा कि वह बेहद हंसोड़- ठिठोलिया और बेदकारी में माहिर था।
  • बाबर ने आशिकी पर शेर लिखे थे, परन्तु जब बाबर ने बाद में उसे एक बार आगरा की गली में देखा तो उसने स्वयं बाबरनामा में लिखा, वह लड़का मिल गया जो हमारी सोहब्बत में रह चुका था। हम उससे आंखें नहीं मिला पाए, क्योंकि अब हम बादशाह हो चुके थे।
  • बाबर की कट्टर और क्रूर था। उसने अपने पहले आक्रमण में ही बाजौर के सीधे-सादे 3000 से भी अधिक निर्दोष लोगों की हत्या कर दी थी। यहां तक कहा जाता है 
  • उसने इस युद्ध के दौरान एक पुश्ते पर आदमियों के सिरों को काटकर उसका स्तंभ बनवा दिया था। यह नरसंहार उसने ‘भेरा’ पर आक्रमण करके भी किए थे।
  • बाबर द्वारा किए गया तीसरा, चौथा व पांचवां आक्रमण- सैयदपुर, लाहौर तथा पानीपत पर किया था जिसमें उसने किसी के बारे में नहीं सोचा। उसके रास्ते में बूढ़े, बच्चे और औरतें, जो कोई भी आया वह उन्हें काटता रहा।

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बाबर के कारनामे –

  • वह अपने साथ ज्यादा से ज्यादा धन लूट कर ले जाना चाहता था। कहते हैं कि गुरुनानक जी ने बाबर के इन वीभत्स अत्याचारों को अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने इन आक्रमणों को पाप की बारात और बाबर को यमराज की संज्ञा दी थी।
  • बाबर का टकराव इब्राहिम लोदी सहित कई शासकों के साथ हुआ, लेकिन किसी ने उसे ज्यादा परेशान नहीं किया। जब वह मेवाड़ के राणा सांगा के साथ युद्ध करने पहुंचा तो उन्होंने उसको उसका छठी का दूध याद दिला दिया था।
  • मुग़ल बाबर ने चगताई तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा ‘तुजुक ए बाबरी’ लिखी इसे इतिहास में बाबरनामा भी कहा जाता है। बाबर का टकराव दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी से हुआ।
  • बाबर के जीवन का सबसे बड़ा टकराव मेवाड़ के राणा सांगा के साथ था। बाबरनामा में इसका विस्तृत वर्णन है। संघर्ष में 1927 ई. में खन्वाह के युद्ध में, अन्त में उसे सफलता मिली।
  • कहते हैं कि बाबर ने मुसलमानों की हमदर्दी पाने के लिए हिन्दुओं का नरसंहार ही नहीं किया, बल्कि अनेक हिन्दू मंदिरों को भी नष्ट किया। उसके एक अधिकारी ने संभल में एक मंदिर को गिराकर मस्जिद का निर्माण करवाया।
  • सदर शेख जैना ने चन्देरी के अनेक मंदिरों को नष्ट किया। यही नहीं ग्वालियर के निकट उरवा में अनेक जैन मंदिरों को भी नष्ट किया था। बाबर की आज्ञा से मीर बाकी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर निर्मित प्रसिद्ध मंदिर को नष्ट कर मस्जिद बनवाई।

Babar Biography Video –

Babar Biography Facts –

  • हरबंस मुखिया कहते हैं कि यह आम ग़लतफ़हमी है कि अयोध्या की विवादास्पद बाबरी मस्जिद बाबर ने बनवाई थी. उनके मुताबिक़, बाबरी मस्जिद का ज़िक्र उसके ज़िंदा रहने तक या उसके मरने के कई सौ साल तक नहीं मिलता.
  •  बाबर ने 1526 में पानीपत की लड़ाई में जीत की ख़ुशी में पानीपत में ही एक मस्जिद बनवाई थी, जो आज भी वहीँ खड़ी है.
  •  दुनिया के पहले शासक बाबर  थे, जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी. बाबरनामा उनके जीवन की नाकामियों और कामयाबियों से भरी पड़ी है.
  • हरबंस मुखिया के अनुसार बाबर की सोच थी कि कभी हार मत मानो. उन्हें समरक़ंद (उज़्बेकिस्तान) हासिल करने का जुनून सवार था. उन्होंने समरक़ंद पर तीन बार क़ब्ज़ा किया था। 
  • लेकिन तीनों बार उन्हें शहर से हाथ धोना पड़ा. अगर वे समरक़ंद का राजा बने रहते तो शायद काबुल और भारत पर राज करने की कभी नहीं सोचते। 
  • भारत में भले बाबर को वो सम्मान नहीं मिला, जो उनके पोते अकबर को मिला था, लेकिन उज़्बेकिस्तान में बाबर को वही दर्जा हासिल है ,
  • उनकी किताब के कई शब्द भारत में आम तौर से प्रचलित हैं. ‘मैदान’ शब्द का भारत में पहली बार इस्तेमाल बाबरनामा में देखने को मिला. प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया कहते हैं कि आज भी भारत में बोली जाने वाली भाषाओँ में तुर्की और फ़ारसी शदों का प्रयोग आम है। 

बाबर के प्रश्न – 

1 .बाबरी मस्जिद किसने गिराई थी ?

 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद गिराई थी। 

2 .बाबर की मृत्यु कैसे हुई ?

26 दिसम्‍बर 1530 के दिन अपने बेटे हुमायूं को ठीक करते बाबर की मृत्यु हुई थी। 

3 .बाबर के कितने बच्चे थे ?

18 बच्चे बाबर के थे। 

4 .बाबर के कितने बेटे थे ?

6 बेटे बाबर के थे। 

5 .बाबर ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया ?

क्रूर बाबर ने भारत पर पांच बार आक्रमण किया था। 

6 .बाबर के पिता का नाम ?

उम्र शेख मिर्ज़ा बाबर के पिता थे। 

7 .बाबर भारत में कब आया था ?

17 वीं शताब्दी के आखिर में बाबर भारत में आया था। 

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Conclusion –

दोस्तों आशा करता हु आपको मेरा यह आर्टिकल, Babar Biography In Hindi बहुत अच्छी तरह से समज और पसंद आया होगा। इस लेख के जरिये  हमने मुगल राजाओं के नाम और achievements of babur से सबंधीत  सम्पूर्ण जानकारी दे दी है अगर आपको इस तरह के अन्य व्यक्ति के जीवन परिचय के बारे में जानना चाहते है तो आप हमें कमेंट करके जरूर बता सकते है। और हमारे इस आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ शयेर जरूर करे। जय हिन्द ।

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